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पाठ 1 भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ : लता मंगेशकर (कुमार गंधर्व) 11th हिंदी (वितान भाग 1) || पाठ का सारांश एवं संपूर्ण अभ्यास (प्रश्न उत्तर)

  • BY:
     RF Tembhre
  • Updated on:
    April 27, 2025

संपूर्ण पाठ-परिचंय -

बरसों पहले की बात है। मैं बीमार था। उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा। स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं। यह स्वर सीधे मेरे कलेजे से जा भिड़ा। मैं तो हैरान हो गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्वर किसका है। मैं तन्मयता से सुनता ही रहा। गाना समाप्त होते ही गायिका का नाम घोषित किया गया लता मंगेशकर। नाम सुनते ही मैं चकित हो गया। मन-ही-मन एक संगति पाने का भी अनुभव हुआ। सुप्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी एक दूसरा स्वरूप लिए उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज़ में सुनने का अनुभव हुआ।

मुझे लगता है 'बरसात' के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था। तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना जमाना था। परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दीख पड़ते हैं। जैसे प्रसिद्ध सितारिये विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत ही आगे चले गए।

मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारण चित्रपट संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, यही नहीं लोगों का शास्त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्टिकोण भी एकदम बदला है। छोटी बात कहूँगा। पहले भी घर-घर छोटे बच्चे गाया करते थे पर उस गाने में और आजकल घरों में सुनाई देने वाले बच्चों के गाने में बड़ा अंतर हो गया है। आजकल के नन्हे- मुन्ने भी स्वर में गुनगुनाते हैं। क्या लता इस जादू का कारण नहीं है? कोकिला का स्वर निरंतर कानों में पड़ने लगे तो कोई भी सुनने वाला उसका अनुकरण करने का प्रयत्न करेगा। ये स्वाभाविक ही है। चित्रपट संगीत के कारण सुंदर स्वर मालिकाएँ' लोगों के कानों पर पड़ रही हैं। संगीत के विविध प्रकारों से उनका परिचय हो रहा है। उनका स्वर-ज्ञान बढ़ रहा है। सुरीलापन क्या है, इसकी समझ भी उन्हें होती जा रही है। तरह-तरह की लय के भी प्रकार उन्हें सुनाई पड़ने लगे हैं और आकारयुक्त लय के साथ उनकी जान-पहचान होती जा रही है। साधारण प्रकार के लोगों को भी उसकी सूक्ष्मता समझ में आने लगी है। इन सबका श्रेय लता को ही है। इस प्रकार उसने नयी पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया है और सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में बड़ा हाथ बँटाया है। संगीत की लोकप्रियता, उसका प्रसार और अभिरुचि के विकास का श्रेय लता को ही देना पड़ेगा।

सामान्य श्रोता को अगर आज लता की ध्वनिमुद्रिका' और शास्त्रीय गायकी' की ध्वनिमुद्रिका सुनाई जाए तो वह लता की ध्वनिमुद्रिका ही पसंद करेगा। गाना कौन से राग में गाया गया और ताल कौन-सा था, यह शास्त्रीय ब्योरा इस आदमी को सहसा मालूम नहीं रहता। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि राग मालकोस' था और ताल त्रिताल। उसे तो चाहिए वह मिठास, जो उसे मस्त कर दे, जिसका वह अनुभव कर सके और यह स्वाभाविक ही है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्यता हो तो वह मनुष्य है, वैसे ही 'गानपन" हो तो वह संगीत है। और लता का कोई भी गाना भी गाना लीजिए तो उसमें शत-प्रतिशत यह 'गानपन' मौजूद मिलेगा।

लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह 'गानपन' ही है। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पार्श्व गायिका नूरजहाँ भी एक अच्छी गायिका थी, इसमें संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दीखता था। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दीखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता।

लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना बड़ा कठिन है, परंतु लता के साथ यह बात अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है।

ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे खुद यह बात नहीं पटती। मेरा अपना मत है कि लता ने करुण रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है। बजाए इसके, मुग्ध श्रृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय' के गाने लता ने बड़ी उत्कटता से गाए हैं। मेरी दृष्टि से उसके गायन में एक और कमी है; तथापि यह कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना। लता का गाना सामान्यतः ऊँची पट्टी में रहता है। गाने में संगीत दिग्दर्शक उसे अधिकाधिक ऊँची पट्टी में गवाते हैं और उसे अकारण ही चिलवाते हैं।

एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शास्त्रीय संगीत में लता का स्थान कौन-सा है। मेरे मत से यह प्रश्न खुद ही प्रयोजनहीन है। उसका कारण यह है कि शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में तुलना हो ही नहीं सकती। जहाँ गंभीरता शास्त्रीय संगीत का स्थायीभाव है वहीं जलदलय' और चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है। चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है। चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग किया जाता है। उसकी लयकारी बिलकुल अलग होती है, आसान होती है। यहाँ गीत और आघात को ज़्यादा महत्व दिया जाता है। सुलभता और लोच' को अग्र स्थान दिया जाता है; तथापि चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और वह लता के पास निःसंशय है। तीन-साढ़े तीन मिनट के गाए हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध खानदानी शास्त्रीय गायक की तीन-साढ़े तीन घंटे की महफ़िल, इन दोनों का कलात्मक और आनंदात्मक मूल्य एक ही है, ऐसा मैं मानता हूँ। किसी उत्तम लेखक का कोई विस्तृत लेख जीवन के रहस्य का विशद् रूप में वर्णन करता है तो वही रहस्य छोटे से सुभाषित का या नन्ही-सी कहावत में सुंदरता और परिपूर्णता से प्रकट हुआ भी दृष्टिगोचर होता है। उसी प्रकार तीन घंटों की रंगदार महफ़िल का सारा रस लता की तीन मिनट की ध्वनिमुद्रिका में आस्वादित किया जा सकता है। उसका एक-एक गाना एक संपूर्ण कलाकृति होता है। स्वर, लय, शब्दार्थ का वहाँ त्रिवेणी संगम होता है और महफ़िल की बेहोशी उसमें समाई रहती है। वैसे देखा जाए तो शास्त्रीय संगीत क्या और चित्रपट संगीत क्या, अंत में रसिक को आनंद देने की सामर्थ्य किस गाने में कितना है, इस पर उसका महत्व ठहराना उचित है। मैं तो कहूँगा कि शास्त्रीय संगीत भी रंजक न हो, तो बिलकुल ही नीरस ठहरेगा। अनाकर्षक प्रतीत होगा और उसमें कुछ कमी-सी प्रतीत होगी। गाने में जो गानपन प्राप्त होता है, वह केवल शास्त्रीय बैठक के पक्केपन की वजह से ताल सुर के निर्दोष ज्ञान के कारण नहीं। गाने की सारी मिठास, सारी ताकत उसकी रंजकता पर मुख्यतः अवलंबित रहती है और रंजकता का मर्म रसिक वर्ग के समक्ष कैसे प्रस्तुत किया जाए, किस रीति से उसकी बैठक बिठाई जाए और श्रोताओं से कैसे सुसंवाद साधा जाए, इसमें समाविष्ट है। किसी मनुष्य का अस्थिपंजर और एक प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा उसी मनुष्य का तैलचित्र', इन दोनों में जो अंतर होगा वही गायन के शास्त्रीय ज्ञान और उसकी स्वरों द्वारा की गई सुसंगत अभिव्यक्ति में होगा।

संगीत के क्षेत्र में लता का स्थान अव्वल दरजे के खानदानी गायक के समान ही मानना पड़ेगा। क्या लता तीन घंटों की महफिल जमा सकती है, ऐसा संशय व्यक्त करने वालों से मुझे भी एक प्रश्न पूछना है, क्या कोई पहली श्रेणी का गायक तीन मिनट की अवधि में चित्रपट का कोई गाना उसकी इतनी कुशलता और रसोत्कटता से गा सकेगा? नहीं, यही उस प्रश्न का उत्तर उन्हें देना पड़ेगा? खानदानी गवैयों का ऐसा भी दावा है कि चित्रपट संगीत के कारण लोगों की अभिरुचि बिगड़ गई है। चित्रपट संगीत ने लोगों के 'कान बिगाड़ दिए' ऐसा आरोप लगाया जाता है। पर मैं समझता हूँ कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान खराब नहीं किए हैं, उलटे सुधार दिए हैं। ये विचार पहले ही व्यक्त किए हैं और उनकी पुनरूक्ति नहीं करूँगा।

सच बात तो यह है कि हमारे शास्त्रीय गायक बड़ी आत्मसंतुष्ट वृत्ति के हैं। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है। शास्त्र-शुद्धता के कर्मकांड को उन्होंने आवश्यकता से अधिक महत्व दे रखा है। मगर चित्रपट संगीत द्वारा लोगों की अभिजात्य संगीत से जान-पहचान होने लगी है। उनकी चिकित्सक और चौकस वृत्ति अब बढ़ती जा रही है। केवल शास्त्र-शुद्ध और नीरस गाना उन्हें नहीं चाहिए, उन्हें तो सुरीला और भावपूर्ण गाना चाहिए। और यह क्रांति चित्रपट संगीत ही लाया है। चित्रपट संगीत समाज की संगीत विषयक अभिरुचि में प्रभावशाली मोड़ लाया है। चित्रपट संगीत की लचकदारी उसका एक और सामर्थ्य है, ऐसा मुझे लगता है। उस संगीत की मान्यताएँ, मर्यादाएँ, झंझटें सब कुछ निराली हैं। चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है। यहाँ नवनिर्मिति की बहुत गुंजाइश है। जैसा शास्त्रीय रागदारी का चित्रपट संगीत दिग्दर्शकों ने उपयोग किया, उसी प्रकार राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली, प्रदेश के लोकगीतों के भंडार को भी उन्होंने खूब लूटा है, यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए। धूप का कौतुक करने वाले पंजाबी लोकगीत, रूक्ष और निर्जल राजस्थान में पर्जन्य' की याद दिलाने वाले गीत पहाड़ों की घाटियों, खोरों में प्रतिध्वनित होने वाले पहाड़ी गीत, ऋतुचक्र समझाने वाले और खेती के विविध कामों का हिसाब लेने वाले कृषिगीत और ब्रजभूमि में समाविष्ट सहज मधुर गीतों का अतिशय मार्मिक व रसानुकूल उपयोग चित्रपट क्षेत्र के प्रभावी संगीत दिग्दर्शकों ने किया है और आगे भी करते रहेंगे। थोड़े में कहूँ तो संगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण है। वहाँ अब तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्रांत है तथापि बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं। फलस्वरूप स्वरूप चित्रपट संगीत दिनोंदिन अधिकाधिक विकसित होता जा रहा है।

ऐसे इस चित्रपट संगीत क्षेत्र की लता अनभिषिक्त सम्राज्ञी है। और भी कई पार्श्व गायक-गायिकाएँ हैं, पर लता की लोकप्रियता इन सभी से कहीं अधिक है। उसकी लोकप्रियता के शिखर का स्थान अचल है। बीते अनेक वर्षों से वह गाती आ रही है और फिर भी उसकी लोकप्रियता अबाधित है। लगभग आधी शताब्दी तक जन-मन पर सतत प्रभुत्व रखना आसान नहीं है। ज़्यादा क्या कहूँ, एक राग भी हमेशा टिका नहीं रहता। भारत के कोने-कोने में लता का गाना जा पहुँचे, यही नहीं परदेस में भी उसका गाना सुनकर लोग पागल हो उठें, यह क्या चमत्कार नहीं है? और यह चमत्कार हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

ऐसा कलाकार शताब्दियों में शायद एक ही पैदा होता है। ऐसा कलाकार आज हम सभी के बीच है, उसे अपनी आँखों के सामने घूमता-फिरता देख पा रहे हैं। कितना बड़ा है हमारा भाग्य !

पाठ का सारांश -

'कुमार गंधर्व' द्वारा लिखित प्रस्तुत लेख 'भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ लता मंगेशकर' में स्वर साम्राज्ञी, 'लता मंगेशकर' की प्रशंसा बहुत ही सुन्दर एवं विश्लेषणात्मक ढंग से की गई है।

लेखक के अनुसार भारत-भूमि पर अब तक सैकड़ों प्रतिभाशाली एवं सुरीले कण्ठ वाली गायिकाएँ पैदा हई हैं जिन्होंने अपने गायन से जन-जन को आनन्दित एवं प्रभावित किया है. किन्तु इन सब में से लता मंगेशकर का स्थान निर्विवादित रूप से सर्वोच्च है। लताजी का गायन व्यक्ति के तन से होता हुआ मन तक पहुँचता है और अन्तस को एक पारलौकिक अनुभूति प्रदान करता है। सुप्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की सुपुत्री लता मंगेशकर की आवाज जितनी कोमल है, उतनी ही उसमें मिठास भी है। लताजी का गायन सुप्रसिद्ध चित्रपट-गायिका नूरजहाँ से भी कहीं बेहतर और मर्म को छू लेने वाला है।

लेखक के अनुसार लताजी के कारण चित्रपट संगीत और मनोरंजन की दुनिया को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हई है। साथ ही लोगों का शास्त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्टिकोण भी एकदम बदला है। ये लताजी के कण्ठ का ही जादू है जो साधारण प्रकार के लोगों को भी संगीत के सुर-ताल और लय की सूक्ष्मता समझ में आने लगी है। लताजी को लोकप्रियता का मुख्य मर्म उनका 'गानपन' है। उनके गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। लताजी के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। साथ ही, लताजी के गाने में 'नादमय उच्चार' का भी अपना महत्त्व है।

लेखक के अनुसार शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत की तुलना बेमानी है। जहाँ गंभीरता शास्त्रीय संगीत का स्थायी भाव है वहीं द्रुतलय और चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है। लताजी चित्रपट संगीत के क्षेत्र की सर्वमान्य साम्राज्ञी हैं। लताजी जैसा कलाकार शताब्दियों में एकाध ही पैदा होता है। यह हमारा सौभाग्य है कि हम शताब्दियों के इस कलाकार को यूँ जीता-जागता, घूमता-फिरता देख पा रहे हैं।

लेखक परिचय
कुमार गंधर्व

(सन् 1924-1992)

जन्म सुलेभावि, ज़िला बेलगाँव (कर्नाटक) में। मूल नाम शिवपुत्र सढ़िदारमैया कामकली। मात्र 10 वर्ष की उम्र में गायकी की पहली मंचीय प्रस्तुति। उनके संगीत की मुख्य विशेषता मालवा लोक धुनों और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का सुंदर सामंजस्य है जिसका अद्भुत नमूना कबीर के पदों का उनके द्वारा गायन है। लोक में रचे-बसे लुप्तप्राय पदों का संग्रह कर और उन्हें स्वरों में बाँधकर कुमार गंधर्व ने इन्हें अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी। इन्हें कालिदास सम्मान और पद्मविभूषण सहित बहुत से सम्मान से अलंकृत किया गया है।

पाठ का अभ्यास

1. लेखक ने पाठ में गानपन का उल्लेख किया है। पाठ के संदर्भ में स्पार करते हुए बताएँ कि आपके विचार में इसे प्राप्त करने के लिए किस प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता है ?
उत्तर - प्रस्तुत पाठ में लेखक कुमार गंधर्व ने लता मंगेशकर के अदभुत "गानपन" को चर्चा की है। वास्तव में, गानपन का शाब्दिक अर्थ होता है किसी की आवाज में उपलब्ध मिठास और मस्ती। लताजी की गायिकी में गायन के उपर्युक्त दोनों प्राण-तत्व कूट-कूट कर भरे हैं। उनके स्वरों का स्पर्श पाकर सामान्य-सी रचना वाले गीत भी कर्णप्रिय हो उठते हैं।
गानों में लताजी जैसा 'गानपन' प्राप्त करने के लिए नादमय उच्चार के साथ गाने का नियमित एवं कड़ा अभ्यास करना आवश्यक है। इसके लिए गायक द्वारा आघात, लोच और सुलभता को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। गाने में गानपन प्राप्त करने के लिए न केवल शास्त्रीय संगीत के कठिन अभ्यास से पके सुरों का निर्दोष ज्ञान आवश्यक है अपितु एक अच्छे गायक द्वारा स्वर, लय और अर्थ का उचित सामंजस्य बैठाना भी जरूरी है।

2. लेखक ने लता की गायकी की किन विशेषताओं को उजागर किया है ? आपको लता की गायकी में कौन-सी विशेषताएँ नजर आती हैं ? उदाहरण सहित बताइए।
उत्तर - लेखक का स्पष्ट मत है कि लता के जोड़ की कोई गायिका हुई ही नहीं है। लता के गाने की मुख्य विशेषताएँ उनका 'गानपन' है। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। लता के गाने की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता है उसका 'नादमय उच्चार'। उनके गीतों में किन्हीं दो शब्दों का अन्तर स्वरों के आलाप द्वारा बड़ी सुन्दर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक-दूसरे में मिल जाते हैं।
हमारी दृष्टि में भी लता की गायकी का अंदाज अछूता एवं अद्वितीय है। उनके गाये गानों में गानपन व सुरीलापन स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है। उनके कंठ से निकलने वाले स्वरों में बालपन की-सी निर्मलता है। उनके नादमय उच्चार के तो सभी प्रशंसक हैं। साथ ही, लता के गाये गानों में उच्चारण की सर्वोच्च शुद्धता सुनने को मिलती है। लता के स्वर अत्यन्त कोमल हैं। इस कारण उनके द्वारा गाये गये श्रृंगारपरक गीत अत्यन्त मधुर बन पड़े हैं जो सुनने वाले के हृदय को स्पर्श करके उसे मुग्ध कर देते हैं।
उनके द्वारा गाया गया गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों' उनके अंतस के भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति बन कालजयी गीत बन गया है।

3. लता ने करुण रस के गानों के साथ न्याय नहीं किया है, जबकि श्रृंगारपरक गाने वे बड़ी उत्कटता से गाती हैं- इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं ?
उत्तर - लता द्वारा चित्रपट-संगीत के क्षेत्र में गाये गये गीतों पर यदि दृष्टि डाली जाय तो एक पल को उपर्युक्त कथन उचित ही प्रतीत होता है किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चित्रपट-संगीत की दुनिया में यह अधिकार गायक अथवा गायिका के पास नहीं होता कि उसे किस प्रकार के गाने, गाने को मिलें, अपितु संगीत दिग्दर्शक अपनी पसन्द से गायक-गायिकाओं को गाने, गाने के लिए चुनकर देते हैं। अतः, इसे लता की व्यावसायिक मजबूरी कहा जाय तो बेहतर होगा कि स्वर कोकिला को करुण रस को व्यक्त करने वाले गाने उतनी संख्या में नहीं मिल सके कि वह इस रस में भी अपने कौशल का प्रभावशाली प्रदर्शन कर पातीं। उन्हें जब-जब भी अवसर मिला तब-तब उन्होंने करुण रस के साथ भी पूरा न्याय किया है।
उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है कि गायकी के क्षेत्र में लता की विविधताएँ असीमित हैं और उनके कौशल का लोहा संगीत प्रेमी भली प्रकार मानते हैं। यह मात्र संयोग ही है कि जिन भी संगीत दिग्दर्शकों के साथ उन्होंने कार्य किया है, वे लता को करुण रस की अभिव्यक्ति वाले गाने पर्याप्त मात्रा में गाने को नहीं दे सके।

4. संगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण है। वहाँ अब तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्रान्त है तथा बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं- इस कथन को वर्तमान फिल्म संगीत के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - लेखक ने संगीत के क्षेत्र को विस्तीर्ण कहा है, क्योंकि उसके अनुसार संगीत के क्षेत्र में अब तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्ण ऐसा बहुत बड़ा प्रान्त है जिसकी खोज अथवा जिस पर कार्य होना अभी बाकी है। वास्तव में, संगीत एक ऐसी विधा है, जिसमें असीम सम्भावनाएँ हैं तथा करने के लिए काफी कुछ है। प्रयोगधर्मियों के लिए संगीत जैसा विस्तीर्ण क्षेत्र कोई दूसरा नहीं है। संगीत के क्षेत्र में होने वाले नित नए प्रयोग और कार्य इसे और भी सम्भावनाओं वाला क्षेत्र बनाते हैं।
वर्तमान चित्रपट संगीत में नित नवीन प्रयोग हो रहे हैं। पुराने समय में चित्रपट के लिये गीत-संगीत तैयार करने में गीतकार, संगीतकार, वादक, गायक कई-कई दिनों तक अभ्यास में जुटे रहते थे। तब कहीं जाकर कोई कर्णप्रिय धुन तैयार होती थी। तब न तो आज के जैसी मशीनें ही र्थी और न ही अब के जैसे आधुनिक वाद्य यन्त्र थे। वर्तमान में संगीत के क्षेत्र में तकनीक के बढ़ते चलन से समय की काफी बचत हुई है। अब पहले की तरह बार-बार रिकॉर्डिंग नहीं करनी पड़ती है। एक ही बार में रिकॉर्ड की गई गायक की आवाज में तकनीक के माध्यम से अभीष्ट परिवर्तन किये जा सकते हैं। अब नये संगीतकारों में पश्चिमी देशों की तर्ज पर द्रुत संगीत-सम्मत गानों की रचना करने का चलन बढ़ गया है। तेज गति के गाने आज की युवा पीढ़ी को भी भा रहे हैं। साथ ही, इससे भारतीय संगीत को विदेशी बाज़ार भी मिला है। यह संगीत की सेवा की अनन्त तक विस्तीर्णता का ही प्रभाव है कि वर्तमान में विभिन्न प्रदेशों के लोकगीतों को भी नये अंदाज़ में संगीतबद्ध किया जा रहा है और ये प्रयोग श्रोताओं के मध्य काफी सफल एवं लोकप्रिय भी सिद्ध हुए हैं।

5. चित्रपट संगीत ने लोगों के कान बिगाड़ दिए-अक्सर यह आरोप लगाया जाता रहा है। इस संदर्भ में कुमार गंधर्व की राय और अपनी राय लिखें।
उत्तर - लेखक कुमार गंधर्व के अनुसार नये दौर के चित्रपट संगीत में न तो पहले जैसी कर्णप्रिय धुनें हैं और न ही संगीत दिग्दर्शकों की व्यक्तिगत सोच ही परिलक्षित होती है। नित्य नये विकसित वाद्ययंत्रों, उच्चकोटि की लाजवाब प्रौद्योगिकी के बाद भी आज के दौर का चित्रपट संगीत अपनी गहरी और लम्बी छाप नहीं छोड़ सका है।
हमारी व्यक्तिगत राय में वर्तमान में, चित्रपट संगीत का आलम यह है कि कोई गाना आज बनता है, कल सुना जाता है और परसों तक लोग उसे भूल जाते हैं। इस दौर का कानफाड़ संगीत वाद्य यन्त्रों की सहायता से श्रोता के शरीर को तो हो सकता है उत्तेजित कर सका हो, किन्तु किसी भी अर्थों में वह सुनने वालों के मन-मस्तिष्क में नहीं उतर सका है। इस स्थिति का एक बड़ा दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि आजकल का श्रोता इस कानफाड़ चित्रपट संगीत को सुन-सुनकर अच्छे संगीत की समझ खो चुका है।

6. शास्त्रीय एवं चित्रपट दोनों तरह के संगीतों के महत्व का आधार क्या होना चाहिए ? कुमार गंधर्व की इस सम्बन्ध में क्या राय है ? स्वयं आप क्या सोचते हैं ?
उत्तर - पाठ के लेखक कुमार गंधर्व के अनुसार शास्त्रीय एवं चित्रपट, दोनों प्रकार के संगीतों के महत्व का मूल आधार उसकी 'रंजकता' होनी चाहिए। कुमार गंधर्व की राय में वही संगीत महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय माना जाएगा जो संगीत रसिकों और सुनने वालों को अंदर तक आनंदित कर सके तथा उन्हें मंत्र-मुग्ध कर सके। अनेक विलक्षणताओं एवं विशेषताओं के बाद भी यदि शास्त्रीय संगीत में इस आनंद तत्व का अभाव हो तो वह नीरस और उबाऊ लगने लगेगा। सुनने वाले को उसमें वह आनंद प्राप्त नहीं होगा और इस प्रकार वह बिल्कुल अनाकर्षक हो जायेगा।
हम भी लेखक के इस मत से पूरी तरह सहमत हैं कि एक अच्छे संगीत में मधुरता, गानपन और रसिकता का आनंद प्रदान करने के गुण विद्यमान होने चाहिए।

कुछ करने और सोचने के लिए

1. कुमार गंधर्व ने लिखा है- चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है ?- क्या शास्त्रीय गायकों को भी चित्रपट संगीत से कुछ सीखना चाहिए ? कक्षा में विचार-विमर्श करें।
उत्तर - कुमार गंधर्व के अनुसार चित्रपट संगीत गाने वालों के लिए यह सदैव अच्छा होगा कि वे शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी और आधारभूत समझ रखते हों। इससे उनके सुर पक्के हो जायेंगे। विभिन्न रागों एवं तालों की जानकारी उनकी गायकी में प्रभावशाली परिवर्तन लायेगी।
साथ ही, सुरों के पक्के शास्त्रीय गायकों को भी चित्रपट संगीत से काफी कुछ सीखने का प्रयास करना चाहिए। विशेषकर उन्हें यह सीखना चाहिए कि किस प्रकार उनका गायन चित्रपट संगीत की तरह रसपूर्ण एवं आनंददायक हो। चित्रपट संगीत-सरीखी लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए शास्त्रीय गायकों को चित्रपट संगीत की सी मधुरता, आरोह-अवरोह, लोच, सुरीलापन, सरलता, भावों की स्पष्टता एवं विशुद्ध उच्चारण इत्यादि गुणों को आत्मसात् करना चाहिए।


आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
(I hope the above information will be useful and important. )
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
infosrf.com


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