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हिन्दी साहित्य का इतिहास- चार युग- आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल | History of Hindi Literature

साहित्य के मूल में परिवर्तित सामूहिक चित्तवृत्तियों को आधार बनाकर साहित्य की परंपरा का व्यवस्थित अनुशीलन ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, "प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संक्षिप्त प्रतिबिंब होता है।"
जनवरी 1929 में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' ग्रंथ लिखा। हिंदी का यह पहला ग्रंथ है।

हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया गया है-
1. आदिकाल (वीरगाथाकाल)- सन 993 से 1918 तक, संवत् 1050 से 1375 तक
2. पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)- सन् 1318 से 1643 तक, संवत् 1375 से 1700 तक
3. उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल)- सन् 1643 से 1843, संवत् 1700 से 1900 तक
4. आधुनिक काल- सन् 1843 से आज तक, संवत् 1900 से आज तक

आदिकाल- आदिकाल को वीरगाथाकाल के नाम से जाना जाता है।

आदिकाल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. वीर रस की प्रधानता
2. युद्ध का सजीव चित्रण
3. ऐतिहासिक घटनाओं का चित्रण
4. श्रृंगार एवं अन्य रसों का समावेश
5. प्राकृत, अपभ्रंश, डिंगल एवं पिंगल भाषा का प्रयोग
6. आश्रयदाताओं की प्रशंसा एवं उनका यशगान

आदिकाल के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्न लिखित हैं-
1. चंदवरदायी- पृथ्वीराज रासो
2. नरपति नाल्ह- वीसलदेव रासो
3. जगनिक- परमाल रासो 'आल्हाखण्ड'
4. शारंगधर- हम्मीर रासो
5. दलपतिविजय- खुमान रासो

भक्तिकाल- भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल माना जाता है। भक्ति काल को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1. सगुण धारा
2. निर्गुण धारा

सगुण धारा- भक्तिकाल की इस काव्य धारा के कवियों ने ईश्वर के साकार रूप की लीलाओं का वर्णन किया है। इसे दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. रामभक्ति शाखा- इस शाखा में राम के जीवन चरित्र को आधार बनाया गया तथा इनके माध्यम से समाज को आदर्श मूल्यों, स्वस्थ गुणों, सामाजिक, पारिवारिक मूल्यों की शिक्षा देने का प्रयत्न किया गया।
इस शाखा के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
तुलसीदास- रामचरित मानस
अग्रदास- अष्टयाम
नाभादास- भक्तमाल
केशवदास- रामचंद्रिका
2. कृष्णभक्ति शाखा- कृष्णभक्ति शाखा में कृष्ण के चरित्र को आधार बनाकर काव्य रचना की गई। इस शाखा के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
सूरदास- सूरसागर
मीराबाई- मीराबाई की पदावली
रसखान- प्रेम वाटिका
इस शाखा में अष्टछाप के कवि थे।

निर्गुण धारा- जिन कवियों ने ईश्वर को निराकार रूप में अपने काव्य में स्थान दिया, उन्हें निर्गुण धारा के कवि के रूप में जाना जाता है। इसे दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. ज्ञानमार्गी शाखा- ज्ञान को ही ईश्वर तक जाने का मार्ग मानकर जिन्होंने काव्य साधना की, वे ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि हैं इस शाखा के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं निम्नलिखित हैं-
कबीर दास- बीजक
रैदास- गुरु ग्रंथ साहब
गुरुनानक
2. प्रेममार्गी शाखा- जिन्होंने प्रेम के माध्यम से ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग खोलना चाहा, वे कभी प्रेमाश्रयी शाखा के अंतर्गत परिगणित होते हैं।
इस शाखा के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
मलिक मोहम्मद जायसी- पद्मावत
शेख रहीम
नसीर

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. साकार एवं निराकार ब्रह्म की उपासना
2. रहस्यवादी कविता का प्रारंभ
3. आध्यात्मिकता और सदाचार प्रेरणा
4. लोक कल्याण के पद पर काव्य का चरमोत्कर्ष
5. समस्त काव्य शैलियों का प्रयोग
6. प्रकृति सापेक्ष वर्णन।

रीतिकाल- रीतिकालीन काव्य को तीन धाराओं में विभाजित किया जा सकता है-
रीतिबद्ध काव्य
रीतिमुक्त काव्य
रीतिसिद्ध काव्य

रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण
2. ब्रज मिश्रित अवधी भाषा का प्रयोग
3. वीर एवं श्रंगार रस की प्रधानता
4. नीति और भक्ति संबंधी काव्य रचनाएँ
5. मुक्तक काव्य रचनाएँ

इस काल के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. घनानंद- सुजान सागर
2. केशवदास- कविप्रिया, रामचंद्रिका
3. पद्माकर- पद्माभरण
4. भूषण- शिवराज भूषण
5. बिहारी- बिहारी सतसई
6. रसनिधि- विष्णुपद कीर्तन

आधुनिक काल- आधुनिक हिंदी कविता का प्रारंभ संवत् 1900 से माना जाता है। यह काल अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस काल में हिंदी साहित्य का चहुँमुखी विकास हुआ। यह काल हिंदी साहित्य की अनेक प्रवृतियों एवं परिवर्तनों को लेकर उपस्थित हुआ। इस काल में धर्म, दर्शन, कला एवं साहित्य सभी के प्रति नए दृष्टिकोण का आविर्भाव हुआ। हिंदी साहित्य के विकासक्रम को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-
1. भारतेंदु युग- सन् 1850 से 1900 तक
2. द्विवेदी युग- सन् 1900 से 1920 तक
3. छायावादी युग- सन् 1920 से 1936 तक
4. प्रगतिवादी युग- सन् 1936 से 1943 तक
5. प्रयोगवादी युग- 1943 से 1950 तक
6. नई कविता- सन् 1950 से आज तक

भारतेंदु युग- भारतेंदु युग को आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रवेश द्वार माना जाता है। इस युग के कवियों में नवीन के प्रति मोह, साथ ही प्राचीन के प्रति आग्रह भी था। भारतेंदु युग नव जागरण का युग है। इसमें नई सामाजिक चेतना उभरकर आई। भारतेंदु युग में देशभक्ति और राजभक्ति तत्कालीन राजनीति का अभिन्न अंग थी, जिसका स्पष्ट प्रभाव इस युग के कवियों में देखा जा सकता है।

भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. राष्ट्रीयता की भावना- इस युग के कवियों ने देश-प्रेम की रचनाओं के माध्यम से जन-मानस में राष्ट्रीय भावना का बीजारोपण किया।
2. सामाजिक चेतना का विकास- इस काल का काव्य सामाजिक चेतना का काव्य है। इस युग के कवियों ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं सामाजिक रूढ़ियों को दूर करने हेतु कविताएँ लिखीं।
3. हास्य व्यंग्य- हास्य व्यंग्य शैली को माध्यम बनाकर पश्चिमी सभ्यता, विदेशी शासन तथा सामाजिक अंधविश्वासों पर करारे प्रहार किए गए।
4. अंग्रेजी शिक्षा का विरोध- भारतेंदु युगीन कवियों ने अंग्रेजी भाषा तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रति अपना विरोध कविताओं में प्रगट किया है।
5. विभिन्न काव्य रूपों का प्रयोग- इस काल में काव्य के विविध रूप दिखाई देते हैं। जैसे मुक्तक काव्य, प्रबंध काव्य आदि।

भारतेंदु युगीन प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. भारतेंदु हरिश्चंद्र- प्रेम सरोवर, प्रेम फुलवारी
2. प्रताप नारायण मिश्र- प्रेम पुष्पावली
3. जगमोहन सिंह- देवयानी
4. राधाचरण गोस्वामी- नवभक्त माल
5. अंबिका दत्त व्यास- भारत धर्म

द्विवेदी युग- यह युग कविता में खड़ी बोली के प्रतिष्ठित होने का युग है। इस युग के प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। इन्होंने 'सरस्वती पत्रिका' का संपादन किया। इस काल में प्रबंध काव्य भी पर्याप्त संख्या में लिखे गए। अनेक कवियों ने ब्रजभाषा छोड़कर खड़ी बोली को अपनाया। इस काल में खड़ी बोली को ब्रजभाषा के समक्ष काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया, साथ ही विकसित चेतना के कारण कविता नई भूमि पर प्रतिष्ठित हुई।

द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. देशभक्ति- द्विवेदी युग में देशभक्ति को व्यापक आधार मिला। इस काल में देशभक्ति विषयक लघु एवं दीर्घ कविताएँ लिखी गई।
2. अंधविश्वास तथा रूढ़ियों का विरोध- इस काल की कविताओं में सामाजिक अंधविश्वासों और रूढ़ियों पर तीखे प्रहार किए गए।
3. वर्णन प्रधान कविताएँ- 'वर्णन' प्रधानता इस युग की कविताओं की विशेषता है।
4. मानव प्रेम- द्विवेदी युगीन कविताओं में मानव मात्र के प्रति प्रेम की भावना विशेष रूप से मिलती है।
5. प्रकृति-चित्रण- इस युग के कवियों ने प्रकृति के अत्यंत रमणीय चित्र खीचें हैं। प्रकृति का स्वतंत्र रूप में मनोहारी चित्रण मिलता है।

द्विवेदी युगीन प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. मैथिलीशरण गुप्त- पंचवटी, जयद्रथ-वध, साकेत
2. रामनरेश त्रिपाठी- स्वप्न, पथिक, मिलन
3. माखनलाल चतुर्वेदी- समर्पण, युगचरण
4. महावीर प्रसाद द्विवेदी- काव्य मंजूषा, सुमन
5. अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'- प्रिय प्रवास, रसकलश

छायावाद- हिंदी साहित्य के आधुनिक चरण में द्विवेदी युग के पश्चात् हिंदी काव्य की जो धारा विषय वस्तु की दृष्टि से स्वछंद प्रेमभावना, प्रकृति में मानवीय क्रिया-कलापों तथा भाव-व्यापारों के आरोपण और कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना पद्धति को लेकर चली, उसे 'छायावाद' कहा गया।
डॉक्टर नगेंद्र के अनुसार, 'स्थूल के प्रति सूक्ष्म के विद्रोह' को छायावाद माना जाना है। प्रकृति पर चेतना के आरोप को भी छायावाद कहा गया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'प्रस्तुत' के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में 'अप्रस्तुत कथन' को छायावाद माना है।
जयशंकर प्रसाद के अनुसार, "छायावादी कविता वाणी का वह लावण्य है जो स्वयं में मोती के पानी जैसी छाया, तरलता और युवती के लज्जा भूषण जैसी श्री से संयुक्त होता है। यह तरल छाया और लज्जा श्री ही छायावादी कवि की वाणी का सौंदर्य है।"

छायावादी काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. व्यक्तिवाद की प्रधानता- छायावाद में व्यक्तिगत भावनाओं की प्रधानता है। वहाँ कवि अपने सुख-दुख एवं हर्ष-शोक को ही वाणी प्रदान करते हुए खुद को अभिव्यक्त करता है।
2. श्रृंगार भावना- छायावादी काव्य मुख्यतया श्रृंगारी काव्य है किंतु उसका श्रृंगार अतींद्रिय सूक्ष्म श्रृंगार है। छायावाद का श्रृंगार उपभोग की वस्तु नहीं, अपितु कौतूहल और विस्मय का विषय है। उसकी अभिव्यंजना में कल्पना और सूक्ष्मता है।
3. प्रकृति का मानवीकरण- प्रकृति पर मानव व्यक्तित्व का आरोप छायावाद की एक प्रमुख विशेषता है। छायावादी कवियों ने प्रकृति को अनेक रूपों में देखा है। कहीं प्रकृति को नारी के रूप में देखकर उसके सूक्ष्म सौंदर्य का चित्रण किया है।
4. अज्ञात सत्ता के प्रति प्रेम- अज्ञात सत्ता के प्रति कवि में हृदयगत प्रेम की अभिव्यक्ति पायी जाती है। इस अज्ञात सत्ता को कवि कभी प्रेयसी के रूप में तो कभी चेतन प्रकृति के रूप में देखता है। छायावाद की यह अज्ञात सत्ता ब्रह्म से भिन्न है।
5. नारी के प्रति नवीन भावना- छायावाद में श्रृंगार और सौंदर्य का संबंध में नारी से है। रीतिकालीन नारी की तरह छायावादी नारी प्रेम की पूर्ति का साधन मात्र नहीं है। वह इस पार्थिव जगत की स्थूल नारी न होकर भाव जगत की सुकुमार देवी है।

टीप- 1. 'जयशंकर प्रसाद' छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं।
2. छायावाद की त्रयी- प्रसाद, पंत और निराला

छायावाद के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. जयशंकर प्रसाद- कामायनी, आँसू, लहर
2. महादेवी वर्मा- नीरजा, निहार, रश्मि, सांध्यगीत
3. सुमित्रानंदन पंत- पल्लव, गुंजन, ग्रंथि, वीणा
4. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'- अनामिका, गीतिका, परिमल
5. रामकुमार वर्मा- आकाशगंगा, निशीथ, चित्ररेखा

रहस्यवाद- हिंदी कविता में रहस्यवाद का काल निर्धारण करना कठिन है क्योंकि रहस्यवाद सृष्टि के आरंभ से ही कवियों को प्रिय रहा है। वेदों में ऊषा, मेघ, सरिता आदि के वर्णन में अव्यक्त परमात्मा के स्वरूप को लक्षित किया गया है। यह प्रकृति और जगत ही रहस्यमय है। कण-कण में परमात्मा के होने का आभास ही रहस्यवाद है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, "चिंतन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।" जहाँ कवि इस अनंत परमतत्व और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से अभिव्यंजना करता है, वहाँ रहस्यवाद है। रामचंद्र शुक्ल ने रहस्यवाद को भारतीय साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि माना है।
बाबू गुलाबराय ने "प्रकृति में मानवीय भावों का आरोप कर जड़ चेतन के एकीकरण की प्रवृत्ति के लाक्षणिक प्रयोगों को रहस्यवाद कहा है।"
मुकुटधर पांडेय के अनुसार, "प्रकृति में सूक्ष्म सत्ता का दर्शन ही रहस्यवाद है।"

रहस्यवादी काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. अलौकिक सत्ता के प्रति प्रेम- इस युग की कविताओं में अलौकिक सत्ता के प्रति जिज्ञासा, प्रेम व आकर्षण के भाव व्यक्त हुए हैं।
2. परमात्मा से विरह-मिलन का भाव- आत्मा को परमात्मा की विरहिणी मानते हुए उससे विरह व मिलन के भाव व्यक्त किए गए हैं।
3. जिज्ञासा की भावना- सृष्टि के समस्त क्रिया कलापों तथा अदृश्य ईश्वरीय सत्ता के प्रति जिज्ञासा के भाव प्रकट किए गए हैं।
4. प्रतीकों का प्रयोग- प्रतीकों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति की गई है।

प्रमुख छायावादी कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. सुमित्रानंदन पंत- स्वर्णधूलि, वीणा
2. महादेवी वर्मा- यामा
3. जयशंकर प्रसाद- आँसू
4. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'- परिमल, नए पत्ते, अणिमा

छायावाद एवं रहस्यवाद में अंतर निम्नलिखित है-
1. छायावाद में कल्पना की प्रधानता है, जबकि रहस्यवाद में चिंतन की प्रधानता है।
2. छायावाद में भावना की प्रधानता है, जबकि रहस्यवाद में ज्ञान व बुद्धितत्व की प्रधानता है।
3. छायावाद के मूल में प्रकृति है, जबकि रहस्यवाद की प्रकृति दार्शनिक है।
4. छायावाद में नारी की सुंदरता का अंकन है, जबकि रहस्यवाद में परमात्मा के सौंदर्य का चित्रण है।
5. छायावाद में स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है, जबकि रहस्यवाद में परमात्मा के प्रति प्रेम की भावना की अभिव्यक्ति है।
6. छायावाद में नियमबध्दता तथा मर्यादा का उल्लंघन है, जबकि रहस्यवाद में यथासंभव मर्यादा, पवित्रता तथा स्वच्छता का समावेश है।

प्रगतिवाद- प्रगतिवाद भौतिक जीवन से उदासीन, आत्मनिर्भर, सूक्ष्म, अंतर्मुखी प्रवृत्ति के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में, लोक के विरुद्ध स्थूल जगत की तार्किक प्रतिक्रिया है। यह काव्यधारा कला की अपेक्षा 'जीवन' को, व्यक्ति की अपेक्षा समाज को और स्वाद उन्नति के अपेक्षा सर्वानुभूति को प्रधानता देती है।

प्रगतिवादी काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. शोषको के प्रति विद्रोह और शोषितों के प्रति सहानुभूति- प्रगतिवादी कवियों ने किसानों, मजदूरों पर किए जाने वाले पूँजीपतियों के अत्याचार के प्रति अपना विरोध व्यक्त किया है।
2. आर्थिक व सामाजिक समानता पर बल- इस युग के कवियों ने आर्थिक एवं सामाजिक समानता पर बल देते हुए निम्न वर्ग और उच्च वर्ग के अंतर को समाप्त करने पर बल दिया।
3. नारी शोषण के विरुद्ध मुक्ति का स्वर- प्रगतिवादी कवियों ने नारी को उपभोग की वस्तु नहीं समझा। वरन् उसे सम्मानजनक स्थान दिया है। नारी को शोषण से मुक्त कराने हेतु भी इन्होंने प्रयास किए हैं।
4. ईश्वर के प्रति अनास्था- इस काल के कवियों ने ईश्वर के प्रति अनास्था का भाव व्यक्त किया है। वे ईश्वरीय शक्ति की तुलना में मानवीय शक्ति को अधिक महत्व देते हैं।
5. प्रतीकों का प्रयोग- अपनी भावनाओं को स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए इस काल के कवियों ने प्रतीकों का सहारा लिया है।

प्रगतिवाद के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. नागार्जुन- युगधारा
2. केदारनाथ अग्रवाल- युग की गंगा
3. त्रिलोचन- धरती
4. रांगेय राघव- पांचाली
5. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'- कुकुरमुत्ता

प्रयोगवाद- अज्ञेय ने लिखा है- "ये कवि नवीन राहों के अन्वेषी हैं।" स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अज्ञेय के संपादन में 'प्रतीक' मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। उसमें प्रयोगवाद का स्वरूप स्पष्ट हुआ। सबसे पहले प्रथम तार सप्तक का संपादन हुआ। सन् 1951 में दूसरा तार सप्तक प्रकाशित हुआ और तत्पश्चात् तीसरा तार सप्तक।
जीवन और जगत के प्रति अनास्था प्रयोगवाद का एक आवश्यक तत्व है। साम्यवाद के प्रति भी अनास्था उत्पन्न कर देना उसका लक्ष्य है। वह कला को केवल कला के लिए, अपने अहं की अभिव्यक्ति के लिए की मानता है। अहं का विसर्जन तथा साहित्य का सामाजिकरण इसका महत्वपूर्ण लक्षण था। इन कवियों की अनुभूति का केंद्र इनका अहं है। इनकी वाणी में 'मैं' का तीव्र विस्फोट है।

प्रयोगवादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. प्रेम भावनाओं का खुला चित्रण- इन्होंने प्रेम भावनाओं का अत्यंत खुला चित्रण कर उसमें अश्लीलता का समावेश कर दिया है।
2. निराशावाद की प्रधानता- इस काल के कवियों ने मानव मन की निराशा, कुंठा व हताशा का यथातथ्य रूप में वर्णन किया है।
3. अहं की प्रधानता- फ्रायड के मनोविश्लेषण से प्रभावित ये कवि अपने अहं को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
4. रूढ़ियों के प्रति विद्रोह- इस काल की कविताओं में रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर मुखर हुआ है। इन कवियों ने रूढ़ि मुक्त नवीन समाज की स्थापना पर बल दिया है।
5. व्यंग्य की प्रधानता- इस काल के कवियों ने व्यक्ति व समाज दोनों पर अपनी व्यंग्यात्मक लेखनी चलाई है।

प्रमुख प्रयोगवादी कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. स.ही.वा. अज्ञेय- हरी घास पर क्षण भर
2. धर्मवीर भारती- अंधायुग, ठंडा लोहा
3. गिरिजा कुमार माथुर- धूप के धान, नाश और निर्माण
4. भारत भूषण अग्रवाल- ओ अप्रस्तुत मन
5. नरेश मेहता- बन पाँखी

प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद में अंतर निम्नलिखित है- 1. प्रगतिवाद में मध्यवर्गीय हताशा, कुंठा तथा मनःस्थिति की ऊहापोह का अंकन है, जबकि प्रयोगवाद में शोषितों, दलितों तथा गरीबों की दशा का वास्तविक चित्रण है।
2. प्रगतिवाद में सरल भाषा-शैली अपनाकर अपनी बात को जन-सामान्य तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है, जबकि प्रयोगवाद में अनपढ़ शब्दावली, असम्बध्द उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग किया गया है।
3. प्रगतिवाद में जिंदगी का यथार्थ चित्रण है, जबकि प्रयोगवाद में बौद्धिकता की प्रधानता है।
4. प्रगतिवादी जनसाधारण से सहानुभूति रखते हैं, जबकि प्रयोगवाद में वैयक्तिकता की प्रधानता है।

नई कविता- प्रयोगवादी कविता का ही आगे का दौर नई कविता के रूप में उभरा है। वस्तुतः नई कविता की विषय वस्तु मात्र चमत्कार न होकर एक भोगा हुआ जीवन यथार्थ है। नई कविता परिस्थितियों की उपज है। नई कविता स्वतंत्रता के बाद लिखी गई वह कविता है जिसमें नवीन भावबोध, नए मूल्य तथा नया शिल्प विधान है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पहली बार मनुष्य की विवशता, असहायता तथा निरूपायता सामने आई और उसने अस्तित्व का संकट अनुभव किया।
घुटन, आक्रोश और नैराश्य में व्यंग्य का जन्म लेना स्वाभाविक था। इसलिए नई कविता में व्यंग्य की भी प्रधानता रही है।

नई कविता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. लघु मानववाद की प्रतिष्ठा- मानवजीवन को महत्वपूर्ण मानकर उसे अर्थपूर्ण दृष्टि प्रदान की गई।
2. प्रयोगों में नवीनता- नए-2 भावों को नए-2 शिल्प विधानों में प्रस्तुत किया गया है।
3. अनुभूतियों का वास्तविक चित्रण- मानव व समाज दोनों की अनुभूतियों का सच्चाई के साथ चित्रण किया गया है।
4. बिंब- प्रयोगवादी कवियों ने नूतन बिंबों की खोज की है।
5. व्यंग्य की प्रधानता- इस काल में मानव जीवन की विसंगतियों, विकृतियों एवं अनैतिकतावादी मान्यताओं पर व्यंग्य रचनाएँ लिखी गई हैं।

नई कविता के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. भवानी प्रसाद मिश्र- सन्नाट, गीत फरोश
2. कुंवर नारायण- चक्रव्यूह, आमने-सामने
3. जगदीश गुप्त- नाव के पाँव, बोधि वृक्ष
4. दुष्यंत कुमार- सूर्य का स्वागत, साये में धूप
5. श्रीकांत वर्मा- माया दर्पण, मगध

नवगीत- नई कविता ने जब गेयता को नकारना प्रारंभ किया तब नवगीत का जन्म हुआ।

नवगीतों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. अपने युग के परिवेश को प्रस्तुत करना।
2. अभिव्यक्ति में सर्वत्र मौलिकता दिखाई देती है।

प्रमुख नवगीतकार एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. वीरेंद्र मिश्र- झुलसा है छाया नट धूप में, गीतम
2. शंभूनाथ सिंह- दर्द जहाँ नीला है, नवगीत दशक
3. रामनाथ अवस्थी- बंद न करना द्वार
4. सोम ठाकुर- एक ऋचा पाटल की

लोकगीतों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. लोकगीतों में सामान्य जन-जीवन का सजीव चित्रण होता है।
2. लोकगीतों में संगीतात्मकता का सहज प्रवाह होता है जो श्रोता को आकर्षित कर लेता है।

आशा है, हिन्दी साहित्य के इतिहास का यह आंश महत्वपूर्ण और परीक्षापयोगी होगा।
धन्यवाद।
RF Temre
infosrf.com

I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com


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