हिन्दी गद्य साहित्य का विकास - भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, छायावादी युग एवं छायावादोत्तर युग || Hindi Gadya Sahitya ka vikash
हिन्दी गद्य साहित्य का विकास
शैली की दृष्टि से साहित्य के सामान्यतः दो भेद किए जाते हैं - गद्य और पद्य। गद्य वाक्यबद्ध विचारात्मक रचना होती है और पद्य छंदबद्ध या लयबद्ध भावात्मक रचना है। गद्य में हमारी बौद्धिक चेष्टाएँ और चितनशील मनःस्थितियाँ अपेक्षाकृत सुगमता से व्यक्त हो सकती हैं, जबकि पद्य में भावपूर्ण मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति सहज ही होती है। पद्य में संवेदना और कल्पना की प्रमुखता होती है और गद्य में विवेक एवं तक की। इसी कारण पद्य को हृदय की भाषा कहा जाता है और गद्य को मस्तिष्क की भाषा। गद्य में भाषा का एक व्यवस्थित और अनुशासित रूप दृष्टिगोचर होता है। गद्य शब्द का उद्भव 'गद्' धातु के साथ 'यत्' प्रत्यय जोड़ने से बनता है। 'गद्' का अर्थ है - बोलना, बताना या कहना। इसीलिए दैनिक जीवन में गद्य की ही प्रयोग होता है। विषय और परिस्थिति के अनुरूप शब्दों का सही स्थान निर्धारण तथा वाक्यों की उचित योजना ही उत्तम गद्य की कसौटी है। आधुनिक युग की अभिनव समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिए गद्य अत्यन्त सशक्त माध्यम सिद्ध हो रहा है। इसलिए गद्य के क्षेत्र में अनेक नवीन विधाओं के द्वार खुले हैं। प्रमुख गद्य विधाएँ हैं - निबंध, नाटक, कहानी, सस्मरण, एकाकी, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, यात्रावृत्त, जीवनी, डायरी, पत्र, भेंटवार्ता आदि। आरंभ में इनमें से अनेक विधाओं की कहानी, निबंध आदि के साथ ही सम्मिलित कर लिया जाता था किन्तु इस शताब्दी के चौथे दशक से इनका स्वतन्त्र अस्तित्व परिलक्षित होने लगा है।
राष्ट्रभाषा के रूप में मान्य मानक हिन्दी खड़ी बोली का ही परिनिष्ठित रूप है। खड़ी बोली गद्य की प्रामाणिक रचनाएँ सत्रहवी शताब्दी से प्राप्त होती हैं। इसका प्रमाण जटमल कृत "गोरा बादल" की कथा है। यह 1623 में लिखी गई थी। प्रारंभिक खड़ी बोली गद्य ब्रजभाषा से प्रभावित है। ब्रजभाषा के प्रभाव से मुक्त खड़ी बोली गद्य का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। खड़ी बोली गद्य का एक रूप "दक्खिनी गद्य" का है। मुस्लिम शासकों के समय में, विशेषकर मोहम्मद तुगलक के शासन काल में उत्तर के अनेक मुसलमान दक्षिण में जाकर बस गए थे। ये अपने साथ उत्तर की खड़ी बोली को दक्षिण ले गए इससे वहाँ "दक्खिनी हिन्दी" का विकास हुआ। दक्खिनी खड़ी बोली गद्य का प्रामाणिक रूप 1580 ई. से प्राप्त होता है। लगभग अठारहवीं सदी के मध्यान्ह काल से लेकर बीसवीं सदी के मध्यान्ह काल तक (सन् 1785 से 1843 तक ) ई. तक खड़ी बोली गद्य के प्रारंभिक स्वरूप के उन्नयन में चार लेखकों का योगदान महत्त्वपूर्ण है - मुंशी सदासुखलाल (सन् 1746 से सन् 1824), मुंशी इंशा अल्ला खाँ (सन् 1735 से 1818), पंडित लल्लू लाल (सन् 1768 से 1825) तथा सदल मिश्र (सन् 1768 से 1848)।
मुंशी सदासुखलाल ने विष्णु पुराण का अंश लेकर उसे खड़ी बोली में प्रस्तुत किया। इनकी भाषा शैली में पंडिताऊपन और वाक्य रचना पर फारसी शैली का प्रभाव है। मुंशी इंशा अल्ला खाँ ने चटपटी हास्य प्रधान शैली में "रानी केतकी की कहानी" लिखी। सदल मिश्र की प्रसिद्ध कृति "नासिकेतोपाख्यान" है और पंडित लल्लू लाल ने "प्रेंम सागर" लिखा। इन लेखकों के कुछ समय पहले रामप्रसाद निरंजनी ने भाषा योगवशिष्ठ में तथा मध्यप्रदेश के पं. दौलतराय साधु वे अपनी रचनाओं में खड़ी बोली गद्य का प्रयोग किया था। इन्हीं दिनों ईसाई मिशनरी ने भी बाइवल का हिन्दी खड़ी बोली गद्य में अनुवाद कराकर हिन्दी गद्य के विकास मे अपना योगदान दिया। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक हिन्दी गद्य का स्वरूप पूर्णता परियोजित नहीं हो पाया था। उन्नीसवीं शताब्दी का द्वितीय एवं तृतीय चरण भारतीय सामाजिक एवं राष्ट्रीयता के जागरण का काल था। इस नवीन चेतना का अभ्युदय बंगाल से हुआ। यहीं से समाचार पत्रों के प्रकाशन का प्रारंभ हुआ । यह देश ब्रजभाषा से दूर था इसलिए नवीन चेतना को अभिव्यक्त करने का भार खड़ी बोली पद्य को वहन करना पड़ा। नवीन चेतना के इस जागरण काल में अनेक संस्थाओं का योगदान था। इनमें प्रमुख थीं ब्रह्मसमाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज, आर्यसमाज, थियोसाफिकल सोसायटी इत्यादि। इन संस्थाओं के विशेषकर आर्यसमाज ने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का माध्यम हिन्दी गद्य को बनाया। हिन्दी गद्य साहित्य के विकास क्रम को चार युगों में बाँटा जा सकता है -
भारतेन्दु युग
द्विवेदी युग
छायावादी युग
छायावादोत्तर युग
भारतेन्दु युग (सन् 1850 से 1885 तक)
भारतेन्दु जी के पूर्व हिन्दी गद्य में दो शैलियाँ प्रचलित हो गई थीं। प्रथम थी राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की 1823 से 1895 गद्य शैली। वे हिन्दी को नफीस बनाकर उसे उर्दू जैसा रूप प्रदान करने के पक्ष में थे। दूसरी शैली के प्रवर्तक ये राजा लक्ष्मणसिंह जो हिन्दी को अधिकाधिक संस्कृतनिष्ठ करने के पक्ष में थे। भारतेंदु जी ने इन दोनों के मध्य का मार्ग ग्रहण कर उसे हिन्दी भाषा प्रदेशों की जनता के मनोनुकूल बनाया लोक प्रचलित शब्दावली के प्रयोग के कारण भारतेन्दु जी का गद्य व्यावहारिक, सजीव, और प्रवाहपूर्ण है। बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, बदरी नारायण चौधरी "प्रेमधन", ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाकृष्ण दास एवं किशोरी लाल गोस्वामी भारतेंदु जी के सहयोगी एवं समकालीन लेखक थे।
पं. बालकृष्ण भट्ट इलाहाबाद से "हिन्दी प्रदीप" नामक मासिक पक्ष निकालते थे। उनकी शैली विनोदपूर्ण और चुटीली है तथा व्यंग्य में सरसता के साथ मार्मिकता भी है। उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत तथा लोक भाषा के शब्द लिए। उनके निबंधों के विषय में विविधता देखी जा सकती है। पं. प्रतापनारायण मिश्र ने "ब्राम्हण" पत्रिका माध्यम से हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध करने का प्रयत्न किया। उन्होंने समाज सुधार एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दृष्टि से निबंध लिखे। चुलबुलापन, हास-परिहास, आत्मीयता और सहजता उनकी भाषा शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। श्री बदरी नारायण चौधरी "प्रेंमधन" "आनंद कादम्बिनी" पत्रिका का सम्पादन करते थे। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा शैली काव्यात्मक है। श्री राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह ने सामयिक समस्याओं पर निबंध लिखे।
द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1922 ई० तक)
भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य का स्वरूप काफी हद तत्र निखरा किंतु अभी भी उसमें परिष्कार परिमार्जन की आवश्यकता थी। यह कार्य द्विवेदी युग में पूरा हुआ। इस काल का नामकरण पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर किया गया। द्विवेदी इस जी ने "सरस्वती" के माध्यम से व्याकरणनिष्ठ, स्पष्ट एवं विचारपूर्ण गद्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने तत्कालीन भाषा का परिमार्जन कर उसे व्याकरण-सम्मत रूप प्रदान किया और साहित्यकारों को विविध विषयों पर लेखन के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया।
द्विवेदी युग के प्रमुख गद्यकारों में श्री माधव मिश्र, गोविंद नारायण मिश्र, 'पद्मसिंह शर्मा, सरदारपूर्ण सिंह, बाबू श्यामसुंदर दास, मिश्र बंधु, बाला भगवानदीन, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि हैं। इस काल में अनेक गंभीर निबंध, विवेचनापूर्ण आलोचनाएँ, कहानियाँ, उपन्यास तथा नाटक लिखे गये और इस प्रकार गद्य साहित्य के विविध रूपों का विकास हुआ।
हिन्दी निबंध और आलोचना के क्षेत्र में बाबू श्यामसुंदर दास का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने "नागरी प्रचारिणी" सभा की स्थापना की तथा साहित्यिक, सांस्कृतिक भाषा एवं वैज्ञानिक विषयों पर निबंध लिखे। श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने अपनी पांडित्यपूर्ण व्यंग्य प्रधान शैली में निबंध और कहानियाँ लिखकर हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध किया। सरस्वती के अतिरिक्त "प्रभा", "मर्यादा", "माधुरी", "इन्दु”, “सुदर्शन", "समालोचक", आदि अन्य पत्रिकाओं में भी गद्य साहित्य के प्रचार एवं प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस युग के उत्तरार्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू गुलाबराय के आविर्भाव से हिन्दी गद्य की विकासधारा को एक नई दिशा मिली।
छायावाद युग (सन् 1919 से 1938 ई० तक)
द्विवेदी युग नैतिक मूल्यों के आग्रह का युग था। जबकि इस युग में द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्य में भाव-तरलता, कल्पना-प्रधानता और स्वच्छंद चेतना आदि भावनाओं का समावेश हुआ। परिणाम यह हुआ कि इस युग में रचित गद्य साहित्य अधिक कलात्मक, लाक्षणिक, कवित्वपूर्ण और अंतर्मुखी हो गया। इस युग के प्रमुख गद्यकारों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रामकृष्ण दास, वियोगी हरि, डॉ. रघुवीर सिंह, शिवपूजन सहाय, वर्मा, पंत, निराला, नंददुलारे बाजपेयी, बेचन शर्मा 'उग्र' के नाम मुख्य हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दो प्रकार के निबंध लिखे - साहित्यिक एवं मनोविकार संबंधी। उनके साहित्यिक निबंध भी दो वर्ग के हैं - सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक समीक्षा से संबंधित। शुक्ल जी को युगांतकारी निबंधकार कहा जाता है और इसका श्रेय उनको मनोविकार संबंध निबंधों को है। गुलाबराय जी के कुछ निबंध साहित्यिक विषयों पर तथा सामान्य विषयों पर लिखे गए हैं। बख्शी जी के निबंध विचारात्मक, समीक्षात्मक तथा विवरणात्मक हैं।
छायावादोत्तर युग (सन् 1938 के पश्चात् )
इस युग में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर लेखकों ने यथार्थवादी जीवन दर्शन को महत्व देना आरंभ किया। इस युग में साहित्यकारों की दो पीढ़ियाँ परिलक्षित की जा सकती हैं। प्रथम पीढ़ी उन साहित्यकारों की है जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व से लिखते आ रहे थे। इस पीढ़ी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिप्रिय द्विवेदी, रामधारी दिनकर, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, जैनेंद्र, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, वासुदेव शरण अग्रवाल तथा भगवत शरण उपाध्याय आदि प्रमुख हैं।
इस युग में सृजनरत दूसरी पीढ़ी उन लेखकों की है जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद साहित्य सृजन में प्रवृत्त हुए हैं। इनमें श्री विद्य निवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, कुबेरनाथ राय, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
इस युग में हिन्दी गद्य साहित्य में नवीन कलात्मक गद्य विधाओं का विकास हुआ तथा उसे राष्ट्रीय गरिमा प्रदान की। आज हिन्दी की यह स्थिति है कि उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित मान्यता मिलने लगी है।
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