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भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना और विस्तार - अध्याय- 1 | Establishment and expansion of British power in India- Class 8th History

सिकंदर द्वारा भारत पर आक्रमण के समय से भारत का इतिहास सतत संघर्ष का इतिहास रहा है। भारत की विशाल संपदा, कई जातियों और आक्रामकों को प्राचीन काल से ही अपनी ओर आकर्षित करती रही है। शक, हूणमंगोल आक्रमण इसके उदाहरण हैं; परन्तु इन आक्रमणकारियों में बहुत से या तो आक्रमण के बाद पराजित होकर वापस चले गए अथवा यहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में घुल-मिल गए। मुगल आक्रमण के बाद भारत के बहुत बड़े भूभाग पर मुगल राज्य की स्थापना हुई। मुगल काल में मुगल-राजपूत, मुगल-सिक्ख और मुगल-मराठा युद्ध भी हुए।

मुगलों के पश्चात यूरोप की शक्तियाँ भारत आई। डच, फ्रेंच, पुर्तगाली और अंग्रेज उनमें प्रमुख थे। व्यापार और व्यापार के पश्चात अपना अपना राज्य स्थापित करने के लिए इनमें संघर्ष चलता रहा। अंततः भारत में बहुत बड़े भाग पर अंग्रेजों की सत्ता स्थापित हुई तथा देशी रियासतों से संधियाँ कर उन्हें अपनी सर्वोच्च सत्ता के अधीन कर लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजी शासनकाल में सभी ने मिलकर संघर्ष किया। इस संघर्ष में भारत की जनता ने सक्रिय भाग लिया और अंततः 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त की। आगे के अध्यायों में हम, भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के किए गए संघर्ष का अध्ययन करेंगे।

भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों का आगमन

15 वीं शताब्दी के यूरोप में घटित हुई कुछ प्रमुख घटनाओं, कुस्तुनतुनिया पर तुर्कों का अधिकार, पुनर्जागरण आंदोलन, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक क्रांति तथा भौगोलिक खोजों के प्रति आकर्षण, ने भारत एवं पूर्व के देशों के प्रति यूरोपीय लोगों में एक नया आकर्षण उत्पन्न किया। यूरोप में हुई व्यापारिक एवं औद्योगिक क्रांति ने वहाँ के व्यापारियों को नया बाजार तलाशने के लिए विवश कर दिया। पूर्व के लिए नवीन मार्गों की खोज का बीड़ा कोलंबस, वास्को डिगामा जैसे प्रसिद्ध नाविकों ने उठाया। कोलंबस 1492 ईस्वी में अमेरिका, बार्थोलोमियो डाईज 1487 ईस्वी में आशा अन्तरीप तथा वास्को डि गामा 1498 ईस्वी में भारत के पश्चिमी समुद्री तट कालीकट पहुंँचा। कालीकट के राजा जमोरिन ने उनका स्वागत किया।

भारत में पुर्तगालियों का आगमन–

1498 ईस्वी में वास्को डिगामा के भारत आगमन ने यूरोपीय व्यापारियों के लिए भारत का द्वार खोल दिया। यूरोपीय व्यापारियों का भारत के राजा-महाराजाओं ने भिन्न-भिन्न कारणों से स्वागत किया। भारत में व्यापार के लिए सर्वप्रथम पुर्तगाली व्यापारी आए। वास्को डिगामा के भारत आगमन से दोनों देशों के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नए युग का आरंभ हुआ। 1500 ईस्वी में 13 जहाजों ने बेड़े के साथ पेड्रो अल्वरेज केब्रल भारत पहुँचा। पुर्तगाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बंदरगाहों पर व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए उन्होंने 1503 ईस्वी में कोचीन में पहले दुर्ग की स्थापना की। 1505 ईस्वी में पुर्तगाल की सरकार ने फ्रांसिस्को द अल्मेडा को भारत में प्रथम पुर्तगाली वायसराय बनाकर भेजा। 1509 ईस्वी में उसने पुर्तगाली सेना के बल पर दीव पर अधिकार कर लिया।

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1509 ईस्वी में पुर्तगाली वायसराय अलबुकर्क ने बीजापुर के शासक युसुफ आदिल शाह से गोवा को छीन लिया। धीरे-धीरे पुर्तगालियों ने दमन, साल्सेट, बेसीन, मुंबई, हुगली तथा सेन्ट टॉ पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार 1515 ईस्वी तक पुर्तगाली व्यापारी भारत के साथ न केवल व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त कर चुके थे वरन् उन्होंने समुद्र तटीय क्षेत्रों पर अधिकार करके प्रशासन करना भी आरंभ कर दिया था।

भारत में डचों का आगमन–

डच हालैंड के निवासी थे। भारत से व्यापार करने के लिए हालैंड में 1602 ईसवी में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई। भारत में व्यापार पर अधिकार को लेकर डच व पुर्तगालियों के मध्य सैनिक संघर्ष हुए जिसमें पुर्तगाली शक्ति कमजोर हुई। डचों ने शीघ्र गुजरात में कोरोमंडल समुद्र तट, बंगाल बिहार तथा उड़ीसा में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित की। उन्होंने अपना पहला कारखाना मछलीपट्टम में खोला। डचों ने भारत के साथ मुख्यतः मसालों, नील, कच्चे रेशम, शीशा, चावल एवं अफीम का व्यापार किया। डचों की प्रमुख फैक्ट्री पुलीकट में थी, जहाँ वह स्वर्ण मुद्रा 'पगोडा' को ढालते थे।
टीप- डचों ने भारत में स्वर्ण मुद्रा चलाई जिसका नाम 'पगोडा' था।

अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत से डच कंपनी के व्यापार को धक्का लगा। 1759 ईस्वी में अंग्रेजों डचों के मध्य वेदरा का युद्घ हुआ, जिसमें डच पराजित हुए और उनकी शक्ति एवं व्यापार को अत्यधिक धक्का लगा धीरे-धीरे डच ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्ति भारत से समाप्त हो गई।

भारत में अंग्रेजों का आगमन–

अन्य यूरोपीय जातियों की भांति अंग्रेज भी भारत के साथ व्यापार के इच्छुक थे। इंग्लैंड के प्रमुख पूँजीपतियों द्वारा 31 दिसंबर 1600 को ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई। इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने उसे 15 वर्षों के लिए एक चार्टर द्वारा व्यापारिक एकाधिकार प्रदान किया। 1608 में कैप्टन हॉकिंस ने नेतृत्व में प्रथम अंग्रेजी जहाजी बेड़ा भारत पहुँचा। उस समय मुगल सम्राट जहाँगीर का शासन था।

भारत में फ्रांसीसियों का आगमन–

1664 ईस्वी में फ्रांस में भारत के साथ व्यापार करने के लिए 'द इंद ओरिएंताल' नामक कंपनी का निर्माण किया गया। फ्रांसिस केरन के नेतृत्व में 1667 में फ्रांसीसियों का एक दल भारत के लिए रवाना हुआ और 1668 ईस्वी में सूरत में प्रथम फ्रांसीसी कोठी की स्थापना की गई। इसके बाद 1669 में मछलीपट्टनम में, 1673 में पुदुचेरी में एवं 1690-92 में बंगाल के चंद्रनगर में फ्रांसीसी कंपनी ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। फ्रांसीसी कंपनी ने पुदुचेरी में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फोर्टलुई किले का निर्माण करवाया। 1740 तक कंपनी का एकमात्र उद्देश्य भारत से व्यापारिक लाभ प्राप्त करना था, किंतु 1740 के बाद कंपनी ने भारत की राजनीतिक परिस्थितियों से लाभ उठाने का निश्चय किया। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए। डूप्ले के प्रयासों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संघर्ष को जन्म दिया, जिसमें फ्रांसीसी पराजित हुए और उन्हें भारत के साथ अपने व्यापार को धीरे-धीरे समेटना पड़ा।

मुगल साम्राज्य का पतन और अंग्रेजों द्वारा इसका लाभ उठाना

जिस मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने 1526 में की थी, जिसे अकबर ने अपने कार्यों द्वारा शक्ति, प्रतिष्ठा तथा स्थायित्व प्रदान किया था, उसका औरंगजेब की मृत्यु के बाद प्रथम प्रारंभ हो गया।

मुगल साम्राज्य की गद्दी प्राप्त करने के लिए उत्तराधिकारियों में संघर्ष होने लगे। गद्दी के दावेदार साम्राज्य के सरदारों के सहयोग से गद्दी प्राप्त करने लगे। परिणामस्वरूप मुगल शासकों को अपने समर्थक सरदारों एवं अमीरों की गलत बातों को मानना पड़ा। परिवर्ती मुगल एक प्रकार से कठपुतली सांसद बनकर रह गए। वे साम्राज्य के विघटन को नहीं रोक सके।

इस काल में पतनशील मुगल साम्राज्य के प्रांतों में बंगाल, हैदराबाद, अवध, पंजाब, भरतपुर, पूना से लेकर ग्वालियर तक मराठा सरदारों के राज्य, मैसूर, कर्नाटक आदि अनेक स्वतंत्र राज्य खड़े हो गए। इन राज्यों ने मुगल साम्राज्य के पतन महत्वपूर्ण योगदान दिया। ईरान के शासक नादिरशाह और अफगान शासक अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के पतन को अवश्यंभावी बना दिया। इस स्थिति का लाभ अंग्रेजों द्वारा उठाया गया।

ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के साथ व्यापार और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का प्रारंभ

31 दिसंबर 1600 ईस्वी को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत एवं पूर्वी देशों के साथ व्यापार के लिए 15 वर्ष के लिए एक अधिकार पत्र (चार्टर) दिया। कंपनी को अधिकार-पत्र द्वारा युद्ध एवं संधि करने, कानून बनाने तथा कंपनी के एकाधिकारियों पर चोट करने वालों को दंडित करने का अधिकार भी दिया गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटेन के कुछ पूँजीपतियों द्वारा साझा व्यापार के लिए बनाई गई थी। कंपनी का प्रमुख उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा अर्जित करना था। अंग्रेजों की दृष्टि से मुनाफा अर्जित करते समय उचित अथवा अनुचित तरीकों का उपयोग करना गलत नहीं था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यापार-वाणिज्य के बहाने लूटमार करना भी उचित था। व्यापार तथा लूटमार के तरीकों से कंपनी मालामाल हो गई। कंपनी व्यापार पर पकड़ स्थापित करने के साथ-साथ राजनीतिक लक्ष्य को लेकर भी चल रही थी। भारत की राजनीति कमजोरियों का अनुमान उनको हो चुका था। अंग्रेजों को लगता था कि व्यापार से अधिक लाभ राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने में है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शीघ्र ही उन्होंने प्रयास प्रारंभ कर दिए।
(कंपनी के प्रारंभिक कर्मचारी भ्रष्ट, चरित्रहीन और घूसखोर थे। उनका उद्देश्य अधिक से अधिक धन वसूलना था।)

भारत में कंपनी के व्यापार का विस्तार

ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत के साथ व्यापार तो प्रारंभ कर दिया गया, मगर भारत में कंपनी को कोठी (व्यापारिक बस्ती) स्थापित करने में सफलता नहीं मिल रही थी। जहाँगीर ने 1613 ईस्वी में कंपनी को सूरत में कोठी स्थापित करने की अनुज्ञा प्रदान कर दी। इसके बाद कंपनी ने सर टॉमस रो को इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम के दूत के रूप में मुगल दरबार में भेजा। सर टामस रो 1615 से 1619 ईस्वी तक मुगल दरबार में रहा। उसने जहाँगीर से मुगल साम्राज्य के विभिन्न भागों में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने की अनुज्ञा प्राप्त कर ली। शीघ्र ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने सूरत, आगरा अहमदाबाद और भड़ौच में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कर लीं।

1668 ईस्वी में इंग्लैंड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीना के साथ हुआ। विवाह में दहेज के रूप में मुंबई (बम्बई) मिला। 10 पौण्ड वार्षिक लगान पर, मुंबई ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया गया। 1687 ई. में कंपनी द्वारा सूरत के स्थान पर मुंबई को पश्चिमी तट की कोठियों का मुख्यालय बना लिया गया।

भारत के पूर्वी तट पर भी कंपनी द्वारा मछलीपट्टनम, मद्रास (चेन्नई), बंगाल, हरिहरपुर, बालासोर, हुगली, पटना और कासिम बाजार में कोठियाँ स्थापित कर ली गईं। भारत के पश्चिमी एवं पूर्वी भागों में कंपनी के व्यापार में आशाजनक वृद्धि हुई। कंपनी द्वारा मुंबई, मद्रास तथा कलकत्ता में किले बनवा लिए गए और वहाँ पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध कर लिए गए।

1717 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा मुगल सम्राट फर्रूखसियार से अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली गई। जॉन सरमन तथा विलियम हैमिल्टन सम्राट से मिले। मुगल सम्राट गंभीर रोग से पीड़ित थे। विलियम हैमिल्टन की सहायता से सम्राट रोग मुक्त हो गया। प्रसन्न होकर सम्राट ने कंपनी को तीन फरमानों द्वारा अनेक सुविधाएँ प्रदान कर दी। 3000 रूपये वार्षिक के बदले कंपनी को बंगाल में बिना किसी कर के व्यापार करने के अधिकार मिल गए। कंपनी को कलकत्ता के आस-पास के क्षेत्रों को किराए पर लेने की अनुमति मिल गई। हैदराबाद प्रांत में कंपनी की सभी देनदारी समाप्त हो गई। कंपनी द्वारा मुंबई में टंकित सिक्कों का समस्त मुगल साम्राज्य में प्रचलन हो गया। इस प्रकार भारत में कंपनी के व्यापार एवं प्रभुत्व में व्यापक वृद्धि हुई।

आँग्ल-फ्रांसीसी प्रतिस्पर्धा और कर्नाटक युद्ध

आँग्ल-फ्रांसीसी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा शीघ्र ही युद्ध में परिवर्तित हो गई। दोनों के बीच लड़े गए युद्धों का अध्ययन करने से पूर्व उनकी शक्ति और साधनों पर एक दृष्टि डालना उचित होगा। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एक गैर-सरकारी संस्था थी, जबकि फ्रांसीसी कंपनी पर सरकारी प्रभुत्व था। ईस्ट इंडिया कंपनी अनेक व्यापार एवं शक्ति के विस्तार तथा निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र थी, जबकि फ्रांसीसी कंपनी समस्त निर्णयों के लिए फ्रांस की सरकार पर निर्भर थी। ब्रिटिश कंपनी के अधिकारी और कर्मचारी पूर्ण परिश्रम तथा लगन से कार्य करते थे, जबकि फ्रांसीसी कर्मचारियों के बारे में ऐसा नहीं था। सरकारी संरक्षण के कारण फ्रांसीसी कंपनी में स्वाभाविक व्यापारिक गतिशीलता तथा कार्यशीलता का अभाव था। ब्रिटिश कंपनी का व्यापार विस्तृत था, उसका मुनाफा तथा शक्ति एवं साधन फ्रांसीसियों की तुलना में अधिक थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभुत्व क्षेत्र भी अधिक थे। फ्रांसीसी कंपनी की एकमात्र महत्वपूर्ण व्यापारिक बस्ती पांडिचेरी थी, जबकि ब्रिटिश कंपनी के पास अनेक प्रमुख बस्तियाँ थी। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांसीसी कंपनी अपने-अपने व्यापार एवं प्रभुत्व क्षेत्र में वृद्धि के लिए प्रयास कर रही थीं। दोनों के कार्य क्षेत्र पश्चिमी एवं पूर्वी भारत थे। दोनों स्वार्थ एक जैसे थे, अतः पारस्परिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम युद्ध ही था।

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कर्नाटक युद्ध और परिणाम

अधिक मुनाफा अर्जित करने और राजनीतिक प्रभुत्व में वृद्धि के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांसीसी कंपनी प्रयत्नशील थीं। दोनों एक दूसरे को मात देने के लिए कम से कम मूल्य पर भारतीय माल क्रय करने का प्रयास करती थी। दोनों ही बाजार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी। दोनों अधिक बाजार तथा सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगी। व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का सपना भी देखने लगी।

फ्रांसीसी कंपनी का प्रधान कार्यालय दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट पर पांडिचेरी में था, जबकि ब्रिटिश कंपनी का प्रमुख केंद्र, फोर्ट सेण्ट जॉर्ज (मद्रास) में था, जो पांडिचेरी से अधिक दूर नहीं था। दोनों कंपनियों की महत्वाकांक्षा की वृद्धि होती गई और परस्पर झड़प होने लगी। एक-दूसरे को समाप्त करने की होड़ में दोनों के बीच भारत में तीन युद्ध हुए जिन्हें इतिहास में कर्नाटक युद्धों के से नाम से जाना जाता है।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-1748)

कर्नाटक, मुगल साम्राज्य का एक सूबा रह चुका था, मगर अब स्वतंत्र हो चुका था। कर्नाटक की राजधानी अर्काट थी जो मद्रास पांडिचेरी के बीच स्थित थी। यूरोपीय देश ऑस्ट्रिया में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर फ्रांस एवं ब्रिटेन के बीच 1744 ईस्वी में यूरोप में युद्ध प्रारंभ हो गया। जिसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा। ब्रिटेन और फ्रांस की कंपनियों के बीच भारत में भी तनातनी प्रारंभ हो गई। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन को लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया। फ्रांसीसी सेना ने मद्रास स्थित ब्रिटिश किले पर अधिकार कर लिया। कर्नाटक के नवाब ने डूप्ले से किले की माँग की। किंतु डूप्ले ने किला कर्नाटक को सौंपने से इंकार कर दिया। फलतः दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें कर्नाटक को पराजय का सामना करना पड़ा।

1748 ई. में यूरोप में फ्रांस और ब्रिटेन के बीच समझौता हो गया, परिणामस्वरुप भारत में भी दोनों के बीच शांति संधि हो गई। मद्रास का किला अंग्रेज कंपनी को वापस कर दिया गया। यद्यपि दोनों के बीच शांति हो गई थी, मगर इस युद्ध ने कुछ बातों को जन्म दिया। कर्नाटक की हार से यूरोपीय राज्यों की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करके अपने प्रभुत्व में वृद्धि की जा सकती है। इस युद्ध ने दोनों कंपनियों की पारस्परिक प्रतिद्वंदिता तथा ईर्ष्या द्वेष में और अधिक वृद्धि कर दी।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध ( 1748-1754 ई.)

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एवं फ्रांसीसी कंपनी के बीच हैदराबाद एवं कर्नाटक के उत्तराधिकार को लेकर 1784-1754 ई. के मध्य युद्ध हुआ। फ्रांसीसी कंपनी ने हैदराबाद में मुजफ्फरजंग को और कर्नाटक में चांदा साहब को शासक बना दिया। जबकि ब्रिटिश कंपनी कर्नाटक में मोहम्मद अली को और हैदराबाद में नासिर जंग को समर्थन दे रही थी। फलतः युद्ध प्रारंभ हो गया। नासिर जंग युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया। मुजफ्फर जंग के युद्ध में सहायता देने के लिए फ्रांसीसी कंपनी को 50,000 पौण्ड एवं 10,000 वार्षिक की एक जागीर दी। उधर क्लाइव ने नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने अर्काट का घेरा डाल दिया। चांदा साहब युद्ध में मारा गया। संपूर्ण कर्नाटक पर ब्रिटिश कंपनी का अधिकार हो गया। इस प्रकार कर्नाटक में अंग्रेजों के और हैदराबाद में फ्रांसीसी कंपनी के प्रभुत्व में वृद्धि हो गई। हैदराबाद की रक्षा के नाम पर फ्रांसीसी कंपनी ने एक सेना वहां रख दी, जिसका खर्च हैदराबाद को ही देना था। इस प्रकार भारतीय राज्यों से सेना का खर्च लेकर उनकी सुरक्षा के नाम पर उनके ऊपर नियंत्रण रखने का एक नया तरीका सामने आया।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध ( 1756-1763 ई.)

यूरोप में फ्रांस एवं ब्रिटेन के बीच सातवर्षीय युद्ध का प्रारंभ हो गया। फलतः भारत में भी उनके मध्य युद्ध प्रारंभ हो गया। जनवरी 1760 में वाण्डिवाश युद्ध में फ्रांसीसी निर्णायक रूप से पराजित हुए। युद्ध में अंग्रेज कंपनी को विजय मिली। कर्नाटक पर तो उनका अधिकार था ही, हैदराबाद से भी फ्रांसीसीयों को निकाल दिया गया। भारत में फ्रांसीसी कंपनी के प्रभुत्व वाले समय क्षेत्र ब्रिटिश कंपनी के हाथ में आ गए।

इस प्रकार भारत में फ्रांसीसी कंपनी की राजनीतिक प्रभुसत्ता प्राप्त करने के महत्वाकांक्षी का अंत हो गया और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने संपूर्ण भारत पर प्रभुसत्ता स्थापित करने का द्वार खुल गया।

बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना

अलीवर्दी खाँ 1740 ई. में बंगाल का नवाब बना। वह योग्य एवं कूटनीतिज्ञ शासक था। वह अंग्रेजों द्वारा की गई कलकत्ता की किलेबंदी को पसंद नहीं करता था। 1756 ई. में अलीवर्दी खाँ की मृत्यु हो गई। सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना। अलीवर्दी खाँ की बड़ी पुत्री घसीटी बेगम का पुत्र शौकतजंग स्वयं नवाब बनना चाहता था और उसे दीवान राजबल्लभ का सहयोग प्राप्त था। अलीवर्दी खाँ का बहनोई एवं सेनापति मीरजाफर भी नवाब बनने का सपना देख रहा था। ये सभी अंग्रेजों के संरक्षण में षड्यंत्रों को जन्म दे रहे थे। बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला अंग्रेजों द्वारा की जा रही कलकत्ता की किलेबंदी से अधिक नाराज था। बंगाल में अंग्रेजों द्वारा बिना कर दिये व्यापार किया जा रहा था, जिससे राजकीय खजाने को नुकसान हो रहा था। अंग्रेज नवाब को उचित सम्मान एवं वेट नहीं देते थे।

अंग्रेजों द्वारा की जा रही उकसाने वाली कार्यवाही से नाराज होकर 4 जून 1756 ई. को नवाब ने कासिम बाजार की फैक्टरी पर अधिकार कर लिया। अब वह कलकत्ता की तरफ बड़ा। गवर्नर ड्रेक व्यापारियों, महिलाओं एवं बच्चों के साथ कलकत्ता से भाग गया। 22 जून 1756 ई. को कलकत्ता पर नवाब का अधिकार हो गया।

अलीनगर की संधि

कलकत्ता के पतन का समाचार सुनकर राबर्ट क्लाइव चेन्नई (मद्रास) से एक सेना लेकर बंगाल पहुंचा। जनवरी 1757 ई. में एक छोटी लड़ाई के बाद कलकत्ता पर क्लाइव का अधिकार हो गया। नवाब युद्ध में पराजित हुआ और अलीनगर की संधि द्वारा अंग्रेजों की समस्त मांगों को स्वीकार कर लिया।

प्लासी का युद्ध (1757)

अलीनगर की संधि द्वारा अंग्रेजों को बंगाल में अनेक सुविधाएं मिल गई थी, तथापि वह समस्त बंगाल पर अधिकार करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने तैयारियाँ प्रारंभ कर दी। क्लाइव ने फ्रांसीसी बस्ती चंदनगर पर अधिकार कर लिया और नवाब कुछ नहीं कर सका। नवाब के दुश्मनों को लाइव ने अपनी सुरक्षा में ले लिया। क्लाइव ने सेनापति मीरजाफर, राय दुर्लभ, जगत सेठ एवं अमीरचंद के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया जिसके अनुसार सिराजुद्दौला को हटाकर मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाया जाना था। षड्यंत्र की रचना के बाद युद्ध का बहाना खोजा जाने लगा। नवाब पर अलीनगर की संधि भंग करने का आरोप लगाया गया। आरोप लगाते ही क्लाइव सेना सहित मुर्शिदाबाद के लिए चल पड़ा। 23 जून 1757 ई. को क्लाइव तथा नवाब की सेनाओं के बीच प्लासी के मैदान में युद्ध हुआ। नवाब के सेनापति मीरजाफर, राय दुर्लभ तथा यारलतीफ खाँ चुपचाप युद्ध का नजारा देखते रहे। नवाब पराजित हुआ और उसे मीरजाफर के पुत्र मीरन ने मार डाला।

सैनिक दृष्टि से प्लासी के युद्ध का कोई महत्व नहीं था, मगर राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से इस युद्ध का अत्यधिक महत्व है। बंगाल का नया नवाब मीरजाफर अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया। बंगाल के राजनीतिक जीवन पर अंग्रेजों का ही अधिकार था। आर्थिक दृष्टि से प्लासी युद्ध के बाद बंगाल की लूट आरंभ हो गई।

मीरजाफर ने लगभग 3 करोड़ रुपये अंग्रेजों को दिए। बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिला। कंपनी को कलकत्ता के समीप 24 परगाना की जमीदारी मिली। कलकत्ता में कंपनी को सिक्के ढालने का अधिकार मिला। इस प्रकार प्लासी के युद्ध ने कंपनी को बंगाल की सत्ता सौंप दी।

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बक्सर का युद्ध (1764 ई.)

प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल का नवाब मीरजाफर कंपनी के लिए एक कठपुतली शासक के समान था। नवाब का खजाना कंपनी और उसके कर्मचारियों को भेंट और रिश्वत देने में खाली हो गया। कंपनी की मांग में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी। कंपनी और उसे के दलाल किसानों और दस्तकारों को लूट रहे थे। कंपनी कम से कम मूल्य पर दस्तकारों को अपना सामान विक्रय करने के लिए विवश करती थी। इससे पहले कि नवाब मीरजाफर कोई कठोर निर्णय लेता कंपनी ने उसे गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीरकासिम को बंगाल का नया नवाब बना दिया।

मीरकासिम कंपनी पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहता था। उसने शक्ति संचयन करना प्रारंभ कर दिया। उसने अंग्रेजों के वफादार अफसरों को नौकरी से हटा दिया। नया सैनिक संगठन खड़ा किया। व्यापारिक चुंगी सभी के लिए समाप्त कर दी। जिससे कंपनी को नुकसान हुआ। परिणामस्वरूप 1763 ई. में नवाब मीरकासिम और कंपनी के मध्य हुए युद्ध में मीरकासिम पराजित हुआ। मीर कासिम भागकर अवध चला गया।

अवध का नवाब शुजाउद्दौला भी अंग्रेजों से नाराज था। मुगल सम्राट शाहआलम भी दिल्ली से भागकर अवध में ही निवास कर रहा था। तीनों ने मिलकर बक्सर नामक स्थान पर 23 अक्टूबर, 1764 ई. को कंपनी की सेनाओं के साथ युद्ध किया। मुगल सम्राट और दोनों नवाब युद्ध में पराजित हुए। 1765 ई. में शुजाउद्दौला तथा शाहआलम ने क्लाइव के साथ सन्धियाँ कर लीं।

अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ इलाहाबाद की संधि-

अंग्रेजों ने अगस्त 1765 में अवध के नवाब के साथ इलाहाबाद में संधि की– 1. अवध के नवाब से ₹50,00,000 युद्ध के हर्जाने के रूप में लेकर अंग्रेज उसे अवध का राज्य लौटा देंगे। 2. कड़ा और इलाहाबाद तथा उसके आसपास का क्षेत्र अवध से पृथक कर मुगल बादशाह शाहआलम को दिया जाएगा। 3. चुनार का दुर्ग अंग्रेजों को मिलेगा। 4. अंग्रेजों को अवध की सीमाओं के भीतर बिना कर दिए व्यापार की सुविधा मिलेगी।

मुगल बादशाह शाहआलम के साथ संधि

1. अवध से कड़ा व इलाहाबाद तथा उसके आसपास के क्षेत्र लेकर मुगल बादशाह को दिए गए। 2. अंग्रेजों ने मुगल बादशाह को 26 लाख रुपये वार्षिक देना स्वीकार किया। 3. इस सहायता के बदले मुगल बादशाह ने 12 अगस्त 1765 को एक फरमान द्वारा अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी का अधिकार दे दिया। इस प्रकार मुगल बादशाह, अंग्रेजों का आश्रित हो गया और अवध उनका मित्र बन गया। अवध से मित्रता हो जाने के कारण कंपनी को मराठों के आक्रमण का डर नहीं रहा। मीरजाफर को पुनः बंगाल का नवाब बना दिया गया।

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता का विस्तार

बंगाल पर आधिपत्य जमाने के पश्चात अंग्रेजों ने दक्षिण की ओर दृष्टि डाली। दक्षिण भारत में उस समय मराठे, हैदराबाद का निजाम और मैसूर में हैदरअली ये तीन प्रमुख सत्ताएँ थीं। इन तीनों सत्ताओं को एकजुट होने से रोकना, यह अंग्रेजों का ध्येय बन गया, उन्होंने निजाम को मराठे व हैदरअली से बचाने का लालच दिखाकर और कुछ प्रादेशिक लाभ देकर अपनी ओर मिला लिया।

अंग्रेज मैसूर संघर्ष

मैसूर के वाडियार राजा दुर्बल हो चुके थे। उनके योग्य तथा कुशल सेनानायक हैदरअली ने राजा को पदच्युत करके सत्ता पर अधिकार कर लिया था। हैदरअली, अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के कारण शंकित था। सत्ता की प्रतिस्पर्द्धा में अंग्रेज तथा मैसूर के बीच सर 1767 से 1799 तक चार युद्ध लड़े गए। प्रथम युद्ध वारेन हेस्टिंग्स के काल में हुआ। इसमें हैदरअली विजय रहा और विवश होकर अंग्रेजों ने उससे संधि कर ली। संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेजों ने हैदरअली को आश्वासन दिया कि वे मैसूर पर मराठों द्वारा आक्रमण किए जाने की स्थिति में सहायता देंगे, किंतु अंग्रेजों ने इस आश्वासन को नहीं निभाया। इस कारण दूसरा मैसूर युद्ध शुरू हुआ, जिसमें फ्रांसीसी कंपनी ने हैदरअली की सहायता की। हैदर अली की मृत्यु हो गई। उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा। अपनी स्थिति दुर्बल होती देख टीपू ने अंग्रेजों से संधि कर ली। टीपू, अंग्रेजों का कट्टर विरोधी था। उससे मुक़ाबला करने के लिए उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित सुसज्जित करने का प्रयास किया। टीपू के प्रयत्नों से अवगत होते ही अंग्रेजों ने तीसरा आंगल मैसूर युद्ध शुरू कर दिया। निजाम तथा मराठे अंग्रेजों से मिले हुए थे इस कारण टीपू अकेला लड़ता रहा। अंग्रेजों ने उसे पराजित कर दिया। संधि के अनुसार टीपू को अपने राज्य का महत्वपूर्ण भाग अंग्रेजों को सौपना पड़ा था। कुछ समय पश्चात ही टीपू ने एक बार पुनः अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने का प्रयास शुरू किया। उसने अपने दूत अरब, काबुल, कुस्तुनतुनिया, फ्रांस व मॉरिशस भेजकर सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। उस समय कंपनी का गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली था। अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत वेलेजली ने टीपू के विरुद्ध चौथा आंगल मैसूर युद्ध छेड़ दिया। अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए टीपू वीरगति को प्राप्त हुआ और मैसूर पर अंग्रेजो का कब्जा हो गया।

अंग्रेज-मराठा संघर्ष

मुंबई अंग्रेजों के पश्चिम भारतीय व्यापार का केंद्र था, किंतु उसके आसपास के प्रदेश पर मराठों की सत्ता थी। इस कारण से अंग्रेज वहां अपना अधिकार स्थापित नहीं कर पाए थे। मैसूर के पश्चात केवल मराठों की सत्ता अंग्रेजों के लिए एकमात्र चुनौती थी। अंग्रेज मराठों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर ढूँढ रहे थे। दुर्भाग्य से 1761 में अब्दाली के हाथों पानीपत के तृतीय युद्ध में पराजित होने मराठों की स्थिति कुछ दुर्लभ हो गई थी। इस समय योग्य पेशवा माधवराव की मृत्यु हो जाने के कारण अल्पवयीन उत्तराधिकारी के विरूद्ध उसके चाचा रघुनाथराव ने पेशवा पद के लिए अपना दावा प्रस्तुत किया। नाना फडनवीस और मराठा सरदारों- भोंसले, गायकवाड, सिंधिया और होल्कर ने इसका विरोध किया रघुनाथराव ने अंग्रेजों से एक संधि करके उसने सहायता ली। इस प्रकार से मराठों के मामलों में अंग्रेजों को प्रवेश करने का अवसर मिल गया। सन 1775 में अंग्रेज मराठों के बीच पहला युद्ध शुरू हुआ। इस युद्ध में मराठा सरदार एक साथ होने के कारण युद्ध अनिर्णित और आगे वाले लगभग 20 वर्ष तक दोनों में शांति बनी रही।

दूसरा अंग्रेज मराठा युद्ध लार्ड वेलेजली के समय में लड़ा गया, जब तत्कालीन पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों की सहायक संधि स्वीकार कर ली। अंग्रेजों से सैनिक सहायता प्राप्त करने के बदले में पेशवा ने उसकी सभी शर्तें स्वीकार कीं। शक्तिशाली मराठा सरदार, भोंसले तथा सिंधिया ने मराठा राज्य की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए अंग्रेजों के विरूद्ध 1803 में युद्ध छेड़ दिया। महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए किंतु अंग्रेजी सेना के सामने टिक न सके। अंततः दोनों सरदारों को अंग्रेजों से अलग-अलग संधि करने पर विवश होना पड़ा। आरंभ में खोलकर इस युद्ध से अलग रहा था, किंतु उसने शीघ्र ही स्वतंत्र रूप से युद्ध शुरू कर दिया। राजस्थान के भरतपुर के राजा ने उसका साथ दिया। अंग्रेजों की सेना ने यद्यपि होलकर को पराजित कर दिया तथापि भरतपुर को नहीं जीत सके। अंत में अंग्रेजों ने उससे शांति संधि कर ली।

तीसरा और अंतिम अंग्रेज मराठा युद्ध सन 1817-1818 में लॉर्ड हेस्टिंग्ज के शासनकाल में हुआ। पेशवा पूर्व में ही अंग्रेजों की सहायक संधि को स्वीकार कर चुका था, किंतु सन 1817 में ब्रिटिश रेजिडेंट ने उस पर नई सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला। साथ ही में पेशवा को बाध्य किया गया कि वह मराठा संघ का नेतृत्व छोड़ दे। पेशवा बाजीराव द्वितीय अंग्रेजों के निरंतर हस्तक्षेप से क्रुद्ध हो गया और उसने युद्ध शुरू कर दिया। भोंसले तथा होल्कर ने भी युद्ध की घोषणा कर दी। भिन्न-भिन्न लड़ाईयों में अंग्रेजों की सेना ने भोंसले, होलकर और पेशवा को पराजित किया। पेशवा के राज्य का एक भाग शिवाजी के वंशज को सतारा में दे दिया गया और शेष अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। अन्य मराठा सरदारों - भोंसले, होलकर, सिंधिया और गायकवाड की राजनैतिक और सैनिक शक्तियों में कटौती करके उनको अंग्रेजों के संरक्षण में राज करने का अधिकार मिला। इस प्रकार से मराठा शक्ति को नष्ट करके अंग्रेज भारत के प्रमुख सत्ताधीश बन गए।

वेलेजली की सहायक संधि

लार्ड वेलेजली को 1798 ई. में ब्रिटिश भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा गया। वेलेजली का लक्ष्य अधिक से अधिक साम्राज्य विस्तार करना था उसका उद्देश्य भारतीय राजा-नवाबों को ब्रिटिश झंडे के नीचे लाना था। इसके लिए उसने युद्ध एवं संधि के द्वारा भारतीय राज्यों को कंपनी के साथ जोड़ने का कार्य किया। युद्ध द्वारा मैसूर तथा मराठों को कंपनी के अधीन लाया गया।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में लॉर्ड वेलेजली, लॉर्ड हेस्टिंग्स और लॉर्ड डलहौजी का महत्वपूर्ण योगदान था।

लार्ड वेलेजली ने सहायक संधि के द्वारा भारत के अनेक राज्यों को कंपनी के अधीन किया सहायक संधि में निम्नलिखित बातें सम्मिलित थी-
1. सहायक संधि अपनाने वाले भारतीय राज्य को अपनी सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी को अपने राज्य की सीमाओं में रखना होता था।
2. ब्रिटिश सेना के खर्च के लिए संधि स्वीकार करने वाले राज्य को एक निश्चित धन-राशि अथवा अपने राज्य का एक भू-भाग कंपनी को देना होता था।
3. भारतीय शासक को अपने दरबार में एक अंग्रेज अफसर को भी रखना होता था, जो भारतीय शासन के कार्यों में हस्तक्षेप किया करता था।

यह व्यवस्था भारतीय राज्यों को सुरक्षा देने के नाम पर की गई थी, जबकि यह उनकी स्वतंत्रता का हनन करती थी। यह एक मकड़जाल था, जो इसको स्वीकार करता था वह सदैव के लिए ब्रिटिश जाल में फस जाता था। सहायक संधि स्वीकार करने वाले भारतीय राज्यों में हैदराबाद और अवध प्रमुख थे। 1803 ई. में पेशवा ने और फिर सिंधिया तथा भोंसले ने भी इस संधि को स्वीकार कर लिया।

लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार

लॉर्ड हेस्टिंग्स 1813 ई. में गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। वह 1823 तक इस पद पर रहा, उसने नेपाल के साथ युद्ध करके उसे सुगौली की संधि करने के लिए मजबूर किया। मराठों को अंतिम रूप से पराजित कर उसने मराठा संघ को भंग कर दिया।

लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति

भारतीय राज्यों को प्रत्यक्ष रूप से कंपनी के अधीन करने के लिए गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने विलय नीति ( हड़प नीति) का अनुसरण किया। सर्वप्रथम उसने भारतीय राजाओं द्वारा दत्तक पुत्र लेने की प्रथा पर रोक लगा दी। जो शासक बिना पुत्र के मर गए, उनके राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया। ऐसे राज्यों में झाँसी, नागपुर और सतारा प्रमुख थे। मैसूर और पंजाब के विस्तृत राज्यों को युद्ध द्वारा ब्रिटिश शासन का अंग बना लिया गया।

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1856 ई. अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध को ब्रिटिश शासन का अंग बना लिया गया।

1757 ई. से 1857 ई. तक लगभग संपूर्ण भारत ब्रिटिश राज्य के अधीन आ चुका था। भारत को अपने अधीन करने के लिए कंपनी शासन के द्वारा जो नीतियाँ अपनाई गई थी, उन्हीं के कारण विरोध की चिंगारियाँ भड़की और 1857 ई. का स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ।

व्यापारिक एवं राजनीतिक प्रतिद्वंदिता में अंग्रेजों की सफलता

कर्नाटक युद्ध में मिली सफलता ने अंग्रेजो को व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में विजयी बना दिया और प्लासी तथा बक्सर के युद्धों ने अंग्रेज कंपनी को भारतीय राजनैतिक सत्ता पर अधिकार दे दिया। प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे कौन से कारण थे? जिन्होंने अल्पकाल में ही ब्रिटिश कंपनी को भारत का भाग्य विधाता बना दिया। ब्रिटिश कंपनी ने न केवल व्यापारिक प्रतिस्पर्धा फ्रांसीसी, पुर्तगाली और डच कंपनी को अपने रास्ते से हटाया वरन भारत की राजनैतिक सत्ता को प्राप्त करने का मार्ग साफ कर दिया। उन्होंने प्लासी और बक्सर के युद्ध में विजय प्राप्त करके बंगाल, बिहार, उड़ीसा, अवध के नवाब तथा मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को अपने आश्रित कर लिया।

ब्रिटिश कंपनी की विजय में भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति भी जिम्मेदार थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत में राजनीतिक बिखराव का दौर प्रारंभ हुआ। भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई, जीनकी सैनिक शक्ति कम थी। राजा प्रायः विलासिता और अहंकार में डूबे रहते थे। उन्हें न तो अपने पड़ोसी राज्यों की गतिविधियों की चिंता थी और न ही अपनी प्रजा के दुखों की। उनकी सेनाएँ कमजोर, पथभ्रष्ट और अनुशासन थी। भारत की प्रमुख सैनिक शक्तियाँ अफगान, सिख, रुहेले, जाट, राजपूत आदि एक-दूसरे के विरोधी गुटों में सम्मिलित थे। नाम मात्र के मुगल सम्राट शक्तिहीन, वैभवहींन, कमजोर और साधनहीन थे। ब्रिटिश कंपनी ने भारतीयों की इन्हीं दुर्बलताओं का फायदा उठाया और अपनी सफलता का मार्ग प्रशस्त किया।

ब्रिटिश कंपनी ने भारतीय राजाओं नवाबों की राजनीतिक उदासीनता और आपसी प्रतिस्पर्धा का लाभ अपने पक्ष में उठाया। किसी एक राज्य को सैनिक और धन की सहायता देकर दूसरे को कमजोर किया। आगे चलकर दोनों पर ही अधिकार स्थापित कर लिया। फूट डालो और राज करो की नीति उनके लिए वरदान बन गई।

अंग्रेजों की सफलता का कारण उनके हल्के और छोटे हथियार तथा प्रशिक्षित सेनाएँ थी। अंग्रेजों के पास एक अच्छा तोपखाना भी था जो उनकी विजय का कारण बना।

18वीं शताब्दी में भारत में राजनीतिक अराजकता, राजनीतिक बिखराव, केंद्र का कमजोर होना आदि ऐसे तत्व थे जिन्हें ब्रिटिश कंपनी को सफलता प्रदान की। मराठे जिनसे अपेक्षा थी कि तत्कालीन अराजकता के दौर में राजनीतिक स्थिरता कायम कर पाएंगे आपसी संघर्ष में उलझे थे अतः वे अपेक्षा को पूरा नहीं कर सके।

अंत में इतना कहा जा सकता है कि ब्रिटिश कंपनी को मिली सफलता उनकी अपनी योग्यता में नहीं वरन भारत की राजनीतिक कमजोरियों में थी।

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अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1. निम्नलिखित प्रश्नों के सही विकल्प चुनकर लिखिए-
1. इलाहाबाद की संधि निम्न में से किसके साथ की गई?
(क) मीर कासिम
(ख) नवा नजमुद्दौला
(ग) शुजाउद्दौला
(घ) बहादुरशाह जफर
उत्तर-(ग) शुजाउद्दौला
2. निम्नलिखित में से कौन सी व्यापारी कंपनी भारत नहीं आई थी?
(क) पुर्तगाली
(ख) डच
(ग) शुजाउद्दौला
(घ) अमेरिकन
उत्तर-(घ) अमेरिकन
3. डचों द्वारा भारत में बनाई गई प्रमुख फैक्ट्री कहां थी?
(क) गोवा
(ख) दमन
(ग) पुलीकट
(घ) दीव
उत्तर-(ग) पुलीकट
4. 1615 ई. में सर टामस रो को राजदूत बनाकर कहाँ भेजा गया था?
(क) इंग्लैंड
(ख) अमेरिका
(ग) भारत
(घ) फ्रांस
उत्तर-(ग) भारत
5. प्रथम कर्नाटक युद्ध के समय भारत में फ्रांसीसी गवर्नर कौन था?
(क) डूप्ले
(ख) क्लाइव
(ग) कार्नवालिस
(घ) कोल्बार्ट
उत्तर- (क) डूप्ले

प्रश्न 2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-
1. भारत में सर्वप्रथम पुर्तगाली यूरोपीय जाति का आगमन हुआ।
2. 1498 ई. में भारत आने वाला यूरोपीय वास्कोडिगामा था।
3. पुर्तगालियों का गोवा, दमन और दीव पर अधिकार था।
4. ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना व्यापार के लिए की गई।
5. प्लासी के युद्ध के समय बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला था।
6. वेलेजली की सहायक संधि द्वारा मैसूर और हैदराबाद को कंपनी के अधीन लाया गया।
7. लॉर्ड डलहौजी ने फूट डालो और राज्य करो नीति का अनुसरण किया।

प्रश्न 3. अति लघु उत्तरीय प्रश्न-
1. भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों का आगमन क्यों हुआ?
उत्तर- भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों का आगमन भारत के साथ व्यापार करने के लिए हुआ।
2. पुर्तगाल की व्यापारिक कंपनी ने भारत में कहाँ-कहाँ अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए?
उत्तर- पुर्तगाल की व्यापारिक कंपनी ने भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के किनारे अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए।
3. भारत में डचों ने किस नाम की स्वर्ण मुद्रा चलाई थी?
उत्तर- भारत में डचों ने 'पगोडा' नामक की स्वर्ण मुद्रा चलाई थी।
4. सहायक संधि की नीति किस गवर्नर जनरल द्वारा अपनाई गई?
उत्तर- सहायक संधि की नीति लार्ड वेलेजली गवर्नर जनरल द्वारा अपनाई गई।
5. भारत में अंग्रेजों की विजय के दो कारण लिखिए।
उत्तर- (i) उस समय भारत में राजनीतिक, अराजकता, राजनीतिक, बिखराव व केंद्र का कमजोर होना।
(ii) अंग्रेजों पर हल्के और छोटे हथियार तथा प्रशिक्षित सेंकना का होना।

प्रश्न 4. लघु उत्तरीय प्रश्न
(1) डच कंपनी के द्वारा भारत में किए गए व्यापारिक कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- डचों ने गुजरात में कोरोमंडल समुद्र तट, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। इन्होंने अपना पहला कारखाना मछलीपट्टनम में खोला। डचों ने भारत के साथ मुख्यतः मसालों, नील, कच्चे रेशम, शीशा, चावल एवं अफीम का व्यापार किया। डचों की प्रमुख फैक्ट्रियाँ पुलिकट में थी, जहाँ वे स्वर्ण मुद्रा 'पगोडा' को ढालते थे।

(2) यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने मध्य प्रतिस्पर्धा के क्या कारण थे?
उत्तर- यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के मध्य प्रतिस्पर्धा के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(i) अधिक मुनाफा अर्जित करना और राजनीतिक प्रभुत्व में वृद्धि करने की नीति।
(ii) एक-दूसरे को मात देने के लिए कम से कम मूल्य पर भारतीय माल क्रय करने का प्रयास करना।
(iii) बाजार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की इच्छा।
(iv) व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का सपना देखना।

(3) सहायक संधि की शर्ते लिखिए।
उत्तर- सहायक संधि की शर्ते इस प्रकार थीं-
(i) सहायक संधि अपनाने वाले भारतीय राज्य को अपनी सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी को अपने राज्य की सीमाओं में रखना होता था।
(ii) ब्रिटिश सेना के खर्चे के लिए संधि स्वीकार करने वाले राज्य को एक निश्चित धनराशि अथवा अपने राज्य का एक भू-भाग कंपनी को देना होता था।
(iii) भारतीय शासक को अपने दरबार में एक अंग्रेज अफसर को भी रखना होता था, जो भारतीय शासक के कार्यों में हस्तक्षेप किया करता था।

प्रश्न 5. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-
(1) कर्नाटक युद्धों के कारण लिखिए।
उत्तर- कर्नाटक युद्धों के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(i) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांसीसी कंपनी में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा थी।
(ii) दोनों ही अधिक बाजार तथा सुविधाएंँ पाने के लिए व्यापार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थीं।
(iii) फ्रांसीसी कंपनी का प्रधान कार्यालय दक्षिण पूर्वी समुद्र तट पर पांडिचेरी में था, जबकि ब्रिटिश कंपनी का प्रमुख केंद्र, फोर्ट सेण्ट जॉर्ज (मद्रास) में था, जो कि पांडिचेरी से अधिक दूध नहीं था।
(iv) दोनों ही कंपनियाँ अति महत्वाकांक्षी थीं।
(v) दोनों का ही कार्य क्षेत्र (पश्चिमी और पूर्वी भारत) लगभग एक ही था।

(2) प्लासी युद्ध के कारण लिखिए।
उत्तर- प्लासी युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(i) अंग्रेज समस्त बंगाल पर अपना अधिकार करना चाहते थे यद्यपि अंग्रेजों को पहले से ही काफी सुविधाएँ प्राप्त थी।
(ii) क्लाइव ने फ्रांसीसी बस्ती चंद्रनगर पर अपना अधिकार कर लिया तथा वहां का नवाब सिराजुद्दौला इसके खिलाफ कुछ न कर सका।
(iii) क्लाइव ने नवाब के दुश्मनों को अपना संरक्षण दे रखा था।
(iv) क्लाइव ने सेनापति मीर जाफर और राय दुर्लभ आदि के साथ एक गुप्त समझौता कर नवाब को गद्दी से हटाने के लिए एक षड्यंत्र रचा था।
(v) क्लाइव सिराजुद्दौला को गद्दी से हटाकर अपने समर्थक मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाना चाहता था।
(vi) युद्ध करने के लिए क्लाइव ने नवाब सिराजुद्दौला पर अलीनगर की संधि भंग करने का आरोप लगाया।

(3) इलाहाबाद की संधि की शर्तें लिखिए।
उत्तर- मुगल सम्राट शाह आलम, नवाब मीर कासिम व सिराजुद्दौला अंग्रेजों से युद्ध में पराजित हो गये। अतः 1765 ई. में सिराजुद्दौला तथा शाह आलम को राबर्ट क्लाइव से संधि करनी पड़ी। यही संधि इलाहाबाद की संधि कहलाती है। इसकी शर्तें इस प्रकार थी-
(i) अवध के नवाब से ₹5000000 युद्ध में हर्जाने के रूप में लेकर अंग्रेज उसे अवध का राज लौटा देंगे।
(ii) कड़ा और इलाहाबाद तथा उसके आस-पास का क्षेत्र अवध से अलग कर मुगल बादशाह शाह आलम को दिया जाएगा।
(iii) रनार का दुर्ग अंग्रेजों को मिलेगा।
(iv) अंग्रेजों को अवध की सीमाओं के भीतर बिना कर दिये व्यापार की सुविधा मिलेगी।

(4) लॉर्ड डलहौजी कि विलय नीति को समझाइए।
उत्तर- भारतीय राज्यों को प्रत्यक्ष रूप से कंपनी के अधीन करने के लिए गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी में विलय नीति (हड़प नीति) का अनुसरण किया। सबसे पहले उसके भारतीय राजाओं द्वारा दत्तक पुत्र लेने की प्रथा पर रोक लगा दी। जो शासक बिना पुत्र के मर गये उसके राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया। ऐसे राज्यों में झांसी नागपुर और सतारा प्रमुख थे। मैसूर और पंजाब के विस्तृत राज्यों को युद्ध द्वारा ब्रिटिश शासन का अंग बना लिया गया। 1856 ई. में अवध के नवाब का कुशासन का आरोप लगाकर अवध को ब्रिटिश शासन का अंग बना लिया गया।

(5) व्यापारिक एवं राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में अंग्रेजों की सफलता के कारण लिखिए।
उत्तर- अंग्रेजों की सफलता के प्रमुख कारण इस प्रकार थे-
(i) भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे जिनकी सैनिक शक्ति भी अधिक नहीं थी।
(ii) उस समय के शासट विलासिता और अहंकार का जीवन जी रहे थे तथा उनकी सेनाएँ कमजोर पथ भ्रष्ट और अनुशासनहीन थी।
(iii) नाम मात्र के मुगल सम्राट शक्तिहीन, वैभवहीन, कमजोर और साधनहीन थे।
(iv) उस समय के अराजकता के माहौल में मराठे भी (जो एक शक्तिशाली संगठन था) आपसी संघर्ष में उलझे थे।
(v) अंग्रेजों के पास हल्के और छोटे हथियार तथा प्रशिक्षित एवं अनुशासित सेनाएं थीं।
(vi) सर्वोपरि उनकी फूट डालो और राज्य करो की नीति सफल रही।

(6) अंग्रेज और मराठों के बीच हुए विभिन्न युद्ध का वर्णन कीजिए।
उत्तर- अंग्रेज और मराठों के बीच मुख्यतः तीन युद्ध हुए। जिनका वर्णन इस प्रकार है-
(i) अंग्रेजों-मराठों के बीच पहला युद्ध सन 1775 ई. में शुरू हुआ। इस युद्ध में मराठा सरदार एक साथ होने के कारण युद्ध अनिर्णित रहा और आने वाले लगभग 20 वर्ष तक दोनों में ही शांति बनी रही।
(ii) दूसरा अंग्रेज-मराठा युद्ध लार्ड वेलेजली के समय में लड़ा गया। शक्तिशाली मराठा सरदारों भोंसले तथा सिंधिया ने मराठा राज्य की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध सन 1803 में युद्ध छोड़ दिया। एक होकर महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गये किंतु अंग्रेजी सेना के सामने कोई टिक न सके।
(iii) तीसरा और अंतिम अंग्रेज-मराठा युद्ध सन् 1717 से 1718 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्ज के शासन काल में हुआ। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के निरंतर हस्तक्षेप से क्रोधित होकर युद्ध शुरू कर दिया। भोंसले तथा होल्कर ने भी युद्ध की घोषणा कर दी। भिन्न-भिन्न लड़ाईयों में अंग्रेजों की सेना ने भोंसले, होलकर और पेशवा को पराजित किया।
इस प्रकार, मराठा शक्ति को नष्ट करके अंग्रेज भारत के प्रमुख सत्ताधारी बन गए।

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