'ब्रिटिश प्रशासन नीतियाँ और प्रभाव' | 'British Administration Policies and Influence | Chapter 2 Social Science 8th
कर्नाटक युद्धों के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने प्रतिद्वंदी फ्रांसीसी कंपनी को भारत से बाहर का रास्ता दिखा दिया। प्लासी और बक्सर के युद्धों द्वारा बंगाल, बिहार, उड़ीसा, अवध और मुगल सम्राट पर अपना दबदबा स्थापित कर लिया। इलाहाबाद की संधि द्वारा कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में दीवानी के अधिकार मिल गए। अब वे व्यापारी से प्रशासक बने गये। कंपनी के महत्वाकांक्षा में वृद्धि होती गई और दक्षिण भारत में मैसूर के साथ युद्ध करके दक्षिण भारत को अपने अधिकार में ले लिया, दूसरी तरफ उत्तर भारत में मराठों को युद्ध में पराजित करके संपूर्ण उत्तर भारत को अपने झण्डे के नीचे ले लिया। जिन राज्यों को कंपनी द्वारा अपने अधिकार में नहीं लिया गया था उनके साथ संधि करके अपने वर्चस्व में ले लिया गया अर्थात सन् 1857 ई. तक संपूर्ण भारत प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के अधिकार में था।
इस प्रकार लाभ कमाने वाली व्यापारिक कंपनी ने भारत की राजनैतिक स्थिति का लाभ उठाकर सत्ता प्राप्त कर ली, किंतु सत्ता प्राप्त इस कंपनी के कर्मचारियों का मूल चरित्र वही एक व्यापारी तथा दलाल का बना रहा जो प्रशासन के लिए अक्षम ही नहीं बल्कि प्रशासनिक योग्यताओं से भी दूर थे। कंपनी द्वारा नियुक्त अब तक कर्मचारी अर्द्धशिक्षित, अदूरदर्शी, बेईमान और धन के लालची थे। उनका उद्देश्य धन प्राप्त करना था। इसके लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते थे। अतः व्यापारी, दलाल तथा क्लर्क के रूप में भर्ती होकर आए इन कर्मचारियों के लिए व्यवहार में दक्षता, चरित्र में शासक का व्यवहार तथा स्थायित्व के लिए दूरदर्शी एवं नीति कुशल बनाना आवश्यक हो गया। ईस्ट इण्डिया कंपनी को अपने इन्हीं कर्मचारियों से प्रशासक का कार्य लेना था जिसके लिए समय-समय नियम पारित किए गए।
कर्मचारियों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाने के प्रयास किए गए। उनको प्रशासक का व्यवहार सिखाया गया। इंग्लैड से कुछ पढ़े- लिखे अफसर और कर्मचारी भेजे गये। इतना सब कुछ करने के उपरांत भी कंपनी के कर्मचारियों का मूल चरित्र व्यापारिक ही बना रहा, वे अपनी आदतों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे जिसका नुकसान भारतीय जनता को उठाना पड़ा। कंपनी के कर्मचारियों ने भारतीय व्यापारियों, किसानों, दस्तकारों, राजा- महाराजाओं आदि सभी को लूटा ।
बंगाल में दोहरा शासन प्रबंध
बक्सर के युद्ध के बाद कंपनी ने मुगल सम्राट शाह आलम के साथ इलाहाबाद की संधि कर ली जिसके अनुसार बंगाल,बिहार और उड़ीसा में दीवानी के अधिकार कंपनी को मिल गए थे।
दीवानी के अधिकार मिल जाने से कंपनी का बंगाल के समस्त राजस्व पर अधिकार हो गया। बंगाल के नवाब नजमुदौला ने बंगाल के निजामत के अधिकार भी कंपनी को सौंप दिए, किंतु कंपनी इतना बड़ा उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेने के लिए तैयार नहीं थी। वह केवल सेना तथा कोष पर अपना अधिकार रखना चाहती थी। इस समय बंगाल का गवर्नर राबर्ट क्लाइव था। वह जानता था कि कंपनी के पास अभी इतनी शक्ति नहीं है की वह एक साथ दीवानी तथा निजामत के कार्य देख सके।
क्लाइव ने काफी सोच-विचार के बाद निजामत का कार्य बंगाल के नवाब पर छोड़ दिया और दीवानी का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। निजामत अर्थात शासन करना (शांति व्यवस्था तथा बाह्य आक्रमण से सुरक्षा) और फौजदारी का कार्य बंगाल के नवाब के पास रहा। राजस्व (भूमि पर) वसूल करने के लिए कंपनी ने रजा खाँ और सिताब राय को नियुक्त किया। रजा खाँ को बंगाल का और सिताब राय को बिहार का नायब दीवान नियुक्त किया गया। प्राप्त राजस्व में से निजामत का व्यय, बंगाल के नवाब का खर्च और मुगल सम्राट के पेंशन देने के बाद शेष राशि कंपनी के कोष में जमा की जाती थी। इस प्रकार बंगाल की शक्ति कंपनी तथा नवाब के बीच विभक्त हो गई। इसी को बंगाल का दोहरा शासन प्रबंध कहा जाता है।
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1. भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना और विस्तार - अध्याय- 1
दोहरे शासन के दुष्परिणाम
बंगाल की समस्त शक्ति कंपनी के हाथों में थी, किन्तु वह अपने उत्तरदायित्वों से मुक्त थी। नवाब के पास शासन का संपूर्ण दायित्व था, परंतु उसके पास न तो शक्ति थी और न ही धन था। कंपनी के पास सेना और कोष दोनों थे, किंतु शासन और सुरक्षा के प्रति उसकी जिम्मेदारी नहीं थी। परिणाम स्वरूप बंगाल के दोहरे शासन प्रबंध ने बंगाल की जनता को अपार कष्टों में डाल दिया।
दोहरे शासन के कारण बंगाल की कृषि, उद्योग और व्यापार सभी कुछ नष्ट होते गए। साधारण जनता दरिद्रता और कंपनी के अत्याचारों से पीड़ित थी। ऐसी स्थिति में हा-हा-कार मच गया। सन् 1772 ई. में कंपनी द्वारा वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। उसने दोहरे शासन प्रबंध की कुप्रथा को 1772 ई. में समाप्त कर दिया और निजामत तथा दीवानी के अधिकार प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में ले लिए। बंगाल के नवाब का पद पूरी तरह से पेंशन का बना दिया गया।
रेग्यूलेटिंग एंटरटेनमेंट(1773ई.)
ईस्ट इंडिया कंपनी एक स्वतंत्र व्यापारिक संस्था थी। कंपनी के कार्यों का संपूर्ण प्रबंध एक संचालन समिति (Court of Directors) कराती थी। यही समिति कंपनी के कर्मचारियों को नियुक्त और पदच्युत कराती थी। कंपनी ही व्यापारिक नीति निर्धारित करती, सेनाओं की व्यवस्था करती और विदेश नीति को निर्धारित करती थी। परंतु सन् 1757 ई. के बाद कंपनी का मूल चरित्र बदल चुका था। अब मात्र व्यापारिक कंपनी न रहकर प्रशासनिक कंपनी बन चुकी थी। इंग्लैंड की सरकार कंपनी के कार्यों से अनभिज्ञ बनी नहीं रह सकी थी। बंगाल लूट, वहाँ की कानून व्यवस्था और कर्मचारियों के अत्याचारों से पीड़ित बंगाल की जनता की जानकारी उसको थी, बंगाल के दोहरे शासन प्रबंध ने किस प्रकार बंगाल की व्यवस्था को तहस-नहस किया था, इसकी भी उनको जानकारी थी। अपार धन संपदा जमा करने के बाद भी कंपनी की वित्तीय स्थिति संकट में थी, इससे ब्रिटिश शासन को लगा की भारत में कंपनी की गतिविधियों पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। इसलिए ब्रिटिश संसद ने सन् 1773 ई. में रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया। इस एक्ट के दो प्रमुख उद्देश्य थे।
1. कंपनी के संगठन के दोषों को दूर करना, और
2. भारत में कंपनी के शासन के दोषों का निराकरण करना।
रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित करने के कुछ और भी कारण थे। ईस्ट इंडिया कंपनी अब केवल व्यापारिक संस्था ही नहीं थी अपितु वह एक राजनीतिक संस्था भी बन चुकी थी। उसके कार्य एवं अधिकारों में परिवर्तन आ चुका था। कंपनी को अब युद्ध एवं संधि के दायित्व भी निभाने थे। न्याय, सुरक्षा और राजस्व के कार्य भी उसके पास थे। कंपनी के शासनकाल में भारतीय प्रांतों की आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति में तीव्र गति के गिरावट आई थी। कंपनी के कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त थे। वे कंपनी के हितों को पूरा करने के स्थान पर स्वयं की स्वार्थपूर्ति में लगे थे। इन सभी बातों पर विचार करने के बाद ब्रिटिश संसद ने कंपनी के ऊपर अंकुश लगाने के लिए सन् 1773 ई. में रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया तथा इसे 1774 ई. में लागू किया गया।
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रेग्यूलेटिंग एक्ट के प्रावधान
रेग्यूलेटिंग एक्ट में अनेक प्रावधान किए गए थे। इस एक्ट के द्वारा एक नया प्रशासनिक ढाँचा खड़ा किया गया। अभी तक बंगाल, मद्रास एवं समरसता बम्बई की प्रेसीडेंसी स्वतंत्र थी। इस अधिनियम द्वारा उनकी स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। बंगाल का गवर्नर मुंबई तथा मद्रास का भी गवर्नर जनरल बना दिया गया। गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद (council) बनाई गई। गवर्नर को सैनिक तथा असैनिक शासन का स्वामी बनाया गया। इसे युद्ध एवं संधि करने के लिए अधिकार दे दिए गए। गवर्नर जनरल और उसकी परिषद पर संचालक मंडल का नियंत्रण रखा गया। इस अधिनियम के द्वारा कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यालय की स्थापना की गई। एक्ट के अनुसार कंपनी के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को ऊँचा वेतन दिया जाने लगा और उनके द्वारा उपहार, भेंट आदि लेने तथा व्यक्तिगत व्यापार करने पर रोग लगा दी गई।
एक्ट में कमियाँ
ब्रिटिश संसद द्वारा कंपनी के मामलों में यह प्रथम हस्तक्षेप था। इसके द्वारा कंपनी की कार्य प्रणाली में सुधार की संभावना थी, परंतु जल्दी ही इसके कई दोष सामने आने लगे। गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद में सदैव झगड़े होते रहे। कोई भी निर्णय लेना आसान नहीं था। गवर्नर जनरल की स्वतंत्रता बाधित हो गई। सर्वोच्च न्यायालय तो स्थापित कर दिया गया मगर उसका अधिकार क्षेत्र निश्चित नहीं किया गया। प्रशासनिक तथा न्यायिक विभाग के अधिकार क्षेत्र अस्पष्ट थे। गवर्नर जनरल को अन्य प्रेसीडेंसीयों पर पूर्ण अधिकार नहीं दिए गए थे।
विलियम पिट का इंडिया एक्ट(1784 ई.)
रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने, कंपनी के भारतीय क्षेत्रों में प्रशासन को कुशल तथा उत्तरदायित्व पूर्ण बनाने एवं भारत स्थित कंपनी के कार्य क्षेत्र व कार्य प्रणाली को नियंत्रित करने के उद्देश्य से सन् 1784 ई. में ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट ने ‘पिट इंडिया एक्ट’ पारित कराया।
भारत स्थित कंपनी के कार्य क्षेत्र तथा कार्य प्रणाली आदि पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ब्रिटेन को प्रधानमंत्री विलियम पिट ने सन् 1784 ई. में एक कानून पारित कराया जिसको पिट इंडिया एक्ट कहा जाता है।
पिट इंडिया एक्ट की विशेषताएँ
इस एक्ट ने कंपनी के मामलों और भारत में उसके प्रशासन पर ब्रिटिश सरकार को अधिकाधिक नियंत्रण का अधिकार दे दिया था। नवीन कानून के अनुसार छः सदस्यीय नियंत्रण मण्डल की स्थापना की गई थी। इसका कार्य निदेशक मण्डल और भारत सरकार को आवश्यक परामर्श देना था तथा उनकी कार्य प्रणाली पर नियंत्रण रखना था। भारत के शासन, सेना तथा लगान सम्बन्धी मामलों पर इस छः सदस्यीय नियंत्रण मण्डल (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) का नियंत्रण कायम किया गया। बोर्ड को भारतीय प्रशासन के संबंध में निरीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण संबंधी विस्तृत अधिकार दिए गए। इस अधिनियम की महत्वपूर्ण बात यह थी की इसके द्वारा भारत में कंपनी के आक्रामक युद्धों को नियंत्रित कर दिया गया था। इस एक्ट में कहा गया कि भारत में साम्राज्य का विस्तार इस राष्ट्र की इच्छा, सम्मान तथा नीति के विरुद्ध है, लेकिन इसका पालन अंग्रेजों ने नहीं किया। 1784 ई. के एक्ट से गवर्नर जनरल एक शासक की भूमिका में आ गया था। वह सेना, पुलिस, सरकारी कर्मचारियों तथा न्यायपालिका के माध्यम से शासन चलता था ।
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सिविल सर्विस का गठन
वारेन हेस्टिंग्ज के पश्चात सन 1786 में लार्ड कार्नवालिस भारत में गवर्नर जनरल बनकर आया। लार्ड कार्नवालिस को भारत में सिविल सर्विस की स्थापना का जनक कहा जाता है। उसका शासन काल कंपनी के सीमा विस्तार से अधिक प्रशासनिक सुधारों के लिए महत्वपूर्ण है। उसने शासन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक सुधार किये। उसके प्रयासों के परिणामस्वरूप न्याय, पुलिस और प्रशासन, कर तथा व्यापार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए तथा कंपनी के कर्मचारियों के बीच व्याप्त भ्रष्टाचार में कमी आई थी।
लार्ड कार्नवालिस ने शासन से भारतीयों को विधिवत दूर रखने की नीति अपनाई थी। ब्रिटेन के युवा सिविल सर्विस की ओर अधिक आकर्षित थे।
सिविल सर्विस सदस्यों की नियुक्ति सन् 1833 ई. तक निदेशकों द्वारा की जाती थी। उसके बाद प्रतियोगी परीक्षाएँ शुरू की गई। कंपनी पर शासन करने का दायित्व बढ़ता जा रहा था। साथ ही उनका भारतीय रीति- रिवाज और संस्कृति से परिचित होना भी जरूरी हो गया था। अतः कोलकाता में फोर्ट- विलियम कॉलेज की स्थापना सन् 1801 में की गई थी। इसके माध्यम से सिविल सर्विस के सदस्यों को प्रशिक्षण दिया जाता था। कुछ समय बाद प्रशिक्षण के लिए ब्रिटेन में ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना हुई ।
न्याय एवं कानून व्यवस्था
किसी भी देश में शासन संचालन के लिए नियम कानूनों का होना आवश्यक है जिनका अनुपालन सरकार एवं जनता द्वारा किया जाना जरूरी है। ब्रिटिश शासनकाल में सरकार द्वारा न्यायालयों की स्थापना की गई। न्यायालययों द्वारा कानूनों का उल्लंघन करने वाले लोगो पर कठोर दण्डात्मक कार्रवाई की जाति थी। प्रारंभ में अंग्रेजों ने भारत में प्रचलित कानूनों के साथ छेड़छाड़ नहीं की और विवाह, उत्तराधिकार संबंधी कानून, रीति-रिवाज और धर्म- ग्रंथों पर आधारित पुरातन कानूनों को यथावत चलने दिया, किंतु अंग्रेज और भारतीयों में विवाद होने पर उसका निराकरण अंग्रेजी कानून से होता था।
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लार्ड कार्नवालिस ने न्याय व्यवस्था में जितने सुधार किए उन्हें एकत्र कर सन् 1793 ई. में कार्नवालिस संहिता का नाम दिया गया। यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित था।
सन् 1793 ई. में बनाये गये बंगाल रेग्युलेशन एक्ट के तहत न्यायालयों में भारतीयों के निजी एवं मालिकाना अधिकारों के लिए फैसले होने लगे थे । इस एक्ट में हिंदुओं और मुसलमानों के निजी कानूनों को शामिल किया गया था। इससे भारत में लिखित कानूनों का चलन आरंभ हुआ था। ब्रिटिश भारत के अन्य प्रदेशों में भी इस प्रकार के कानून बानाये गये थे।
कंपनी के शासन पर नियंत्रण
समय-समय पर नवीन कानून बनाकर ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में विधि का शासन प्रारंभ किया गया। विधि के शासन का अर्थ था कि कानून की दृष्टि से सभी व्यक्ति समान है ,परंतु अंग्रेज और भारतीयों पर एक जैसे कानून लागू नहीं होते थे।
भारत में अंग्रेजी शासन की जडे़ं मजबूत होती जा रही थी। सन् 1784 ई. में बने पिट्स इंडिया एक्ट ने भारत द्वैध शासन स्थापित किया। इसमें शासकीय कार्यों को कंपनी तथा ब्रिटिश सम्राट चलता था। सन् 1793 ई. में कंपनी के में व्यापार करने का विशेषाधिकार 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया था। सन् 1813 ई. यह कंपनी का व्यापारिक विशेषाधिकार समाप्त कर दिया गया। अब कोई भी अंग्रेज भारत में व्यापार करता था।
अंग्रेजी सरकार भारत पर अपना नियंत्रण बढ़ाना चाहती थी, जिसके लिए कंपनी का शासन पर से नियंत्रण को कम करना जरूरी था। इसलिए भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था का केंद्रीयकरण किया गया था। शासन संचालन की इस नवीन व्यवस्था में भारतीयों को कम स्थान प्राप्त हुए। ऊँचे एवं महत्व वाले पदों पर भारत भारतीयों को नियुक्त नहीं किया जाता था।
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ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियाँ
भारत में कंपनी के शासन की स्थापना के साथ ही अंग्रेजों ने समय- समय पर नई-नई आर्थिक नीतियाँ अपनाई थी। आर्थिक नीतियों के कारण व्यापार- वाणिज्य, उद्योग - धंधों तथा भू- राजस्व प्रणाली और कृषि व्यवस्था में अनेक बदलाव आए थे। अंग्रेजों ने अपने हितों में जो नीतियाँ अपनाई थी, उनसे भारतीय अर्थव्यवस्था का परम्परागत ढाँचा चरमरा गया। भारतीय कृषि, उद्योग तथा व्यापार ब्रिटिश की आर्थिक नीतियों का अत्यंत बुरा प्रभाव पड़ा।
भारत में अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती थी। जनता स्वयं अपनी आजीविका पर निर्भर थी। ग्रामीण लोग अधिकांशतः खेती-किसानी का काम किया करते थे। किसान अपनी फसल का एक निश्चित भाग लगान के रूप में अपने स्वामी (जमींदार) या शासक (ब्रिटिश कलेक्टर) को देते थे। राज्य सामान्यतया गाँव के पटेल या प्रधान के माध्यम से लगान वसूलते थे। ग्रामीणों के निश्चित अधिकार थे, जिसके तहत उन्हें भूमि से बेदखल नहीं किया जाता था। भारत में कंपनी के शासन की स्थापना के साथ ही अंग्रेजों ने अपने अधिकारियों और भारतीय लगान वसूल कर्ताओं के माध्यम से पुरानी व्यवस्था को जारी रखा। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लगान वसूलते समय किसानों को प्रताड़ित भी किया जाता था।
भू राजस्व व्यवस्था
सन् 1783 ई. में कार्नवालिस ने कम्पनी की आय बढ़ाने तथा उसमें स्थिरता लाने के लिए बंगाल, उड़ीसा व बिहार में स्थाई बंदोबस्त लागू किया। इस व्यवस्था में जमींदारों को भू-स्वामी मान लिया गया। भूमि पर उनका वंशानुगत अधिकार हो गया था। चेन्नई और मुंबई क्षेत्र में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई। इसमें भूमि जोतने वाले को भू-स्वामी माना गया। इनसे कंपनी सीधे कर (tax) लेती थी। लगान न देने पर किसानों का भूमि से अधिकार समाप्त कर दिया जाता था। इस व्यवस्था से कृषि का उत्पादन बहुत घट गया, किसानों पर अत्याचार बढ़ गए, किंतु सरकारी राजस्व में भारी वृद्धि हुई। अवध क्षेत्र में महालवाड़ी व्यवस्था लागू की गई -यह जमींदारी व्यवस्था का सुधार रूप था -इस व्यवस्था में प्रत्येक महाल (गाँव) के लिए कर (tax) निश्चित किया गया।
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स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था से अंग्रेजी सरकार को हानी भी उठानी पड़ी क्योंकि जमींदार किसानों से मनमाना लगान वसूल करते थे, किंतु में एक निश्चित मात्रा में ही ब्रिटिश शासन को लगान की राशि देते थे। रैयतवाड़ी व्यवस्था में प्रत्येक कृषक ,जो जमीन जोत रहा था , उसे उस जमीन का भू-स्वामी मानकर उसके साथ लगाने की शर्तें तय की जाती थीं । महालवाड़ी व्यवस्था में किसान का भूमि पर अधिकार नहीं रहता था।
अंग्रेजी भू-राजस्व नीति के परिणाम स्वरूप जमीन पर आसानी से एक व्यक्ति के हाथों से दूसरे व्यक्ति के हाथों में बेची जा सकती थी। जमीन पर स्वामित्व प्राप्त होने से लोगों का आकर्षण जमीन की ओर बढ़ने लगा। कुटीर उद्योग विनाश के कगार पर थे। किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ गया था। सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से चलते किसानों की दशा और भी सोचनीय हो जाती थी। जमीन को हस्तान्तरण योग बनाकर और उसका बँटवारा करके विखंडित कर दिया गया था।
सरकारी नीतियों का घाताक परिणाम यह निकला कि इसके चलते कुटीर उद्योग, दस्तकार और शिल्पकार पतन के गर्त में चले गये। प्रारंभिक तौर पर इन शिल्पकारों और दस्तकारों द्वारा तैयार किये गये माल को वे विदेशों में बेचकर लाभ कमाते थे। इनकी माँग ब्रिटिश बाजारों में बढ़ती गई, जिसका असर अंग्रेजी उद्योगों पर पड़ने लगा। के समक्ष अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया। इसी पर चलते ब्रिटिश सरकार ने भारतीय वस्त्रों के प्रयोग एवं व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया।
सन् 1813 ई. के चार्टर एक्ट के पास होने के समय तक इंग्लैंड को विशाल विदेशी और औपनिवेशक बाजार उपलब्ध हो चुका था। इन बाजारों में इंग्लैंड में बनी हुई वस्तुओं को बेहतर लाभ कमाया जा सकता था। चार्टर एक्ट के द्वारा इंडिया कंपनी के व्यापारिक अधिकार समाप्त कर दिए गए और मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई। परिणामस्वरूप ब्रिटिश सामान नाम मात्र के सीमा शुल्क पर भारत आने लगा। भारत में यह सामान देशी दस्त कारों द्वारा तैयार किये गए सामान से सस्ता पड़ता था। इसलिए भारतीय बाजारों में देशी वस्तुओं की माँग घटी और देशी उद्योग मंदा पड़ता चला गया। विशिष्ट वस्तुओं में सूती कपड़ों पर विशेष महत्व था। इनका उत्पादन देश के अनेक भागों में होता था। उत्पादन के प्रमुख केंद्र- ढ़ाका, आगरा, कृष्णनगर, वाराणसी लखनऊ, मुल्तान, बुरहानपुर, लाहौर, सूरत, भड़ौंच, अहमदाबाद और मदुरई आदि महत्वपूर्ण थे।
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4. चक्रवर्ती सम्राट राजा भोज
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6. सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका शासनकाल
सन् 1700 ई. और सन् 1720 ई. में इंग्लैंड में कानून बनाकर भारतीय कपड़े के आयात पर रोक लगा दी गई। जिसका भारतीय कपड़ा उद्योग पर बुरा प्रभाव पड़ा। इंग्लैंड के कपड़ा उद्योग ने भारतीय कपड़ा उद्योग की स्थिति खराब कर दी। कंपनी का लाभ बढ़ाने के लिए एजेंन्टों ने कपड़ा तथा अन्य वस्तुओं के भारतीय उत्पादकों को विवश किया कि वे उनको बाजार दर से 20 से 40% कम कीमत पर माल दें। मशीनों से निर्मित सस्ते सूती कपड़ों के आने से भारतीय कपड़ा उद्योग को सबसे ज्यादा क्षति पहुँची। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों को भारतीय कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया।
रेल एवं संचार व्यवस्था
यातायात व्यवस्था को सुगम बनाने के लिए रेल एवं सड़क मार्गों का विकास किया गया। साथ ही डाक-तार (संचार) सुविधाओं का भी विकास किया गया। विलियम बेंटिक और डलहौजी ने अनेक सड़कों की मरम्मत का कार्य कराया ।भारत के प्रमुख व्यापारिक केंद्र सड़कों एवं बंदरगाह से जोड़े गए। नदियों के माध्यम से यातायात एवं व्यापार बढ़ने के लिए नावें चलाई गई।
डलहौजी ने आधुनिक डाक तार (संचार) व्यवस्था को शुरू कराया। उसने पहली बार डाक टिकट जारी कराए। उसी के प्रयासों से पहली बार टेलीग्राफ लाइन कलकत्ता से आगरा तक डाली गई थी। इस व्यवस्था का लाभ अंग्रेजी सरकार को अत्यधिक बल मिला ।परिवहन और संचार के साधनों में हुए सुधारों से भारत को ब्रिटिश वस्तुओं का बाजार और ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल को प्राप्त करने, सैनिक सामग्री व सैनिकों को कम समय में एक स्थान से दूसरे स्थान में भेजने में आसानी हुई।
परिवहन के क्षेत्र में रेल व्यवस्था के भी क्रांतिकारी परिणाम निकले। भारत में पहली रेलगाड़ी सन् 1853 ई. में मुंबई और थाना के बीच चलाई गई।
18 वीं व 19 वीं शताब्दी में भारतीय समाज
18 वीं व 19 वीं शताब्दी में भारतीय समाज में व्याप्त अशिक्षा और अज्ञानता के कारण अनेक प्रकार की रूढ़ियों और बुराइयों ने घर कर लिया था। अपने आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति में लगी अंग्रेजी हुकूमत ने प्रारंभिक तौर पर इस ओर ध्यान नहीं दिया, परंतु कुछ सुधारवादी प्रशासकों ने भारतीय समाज में प्रचलित अमानवीय एवं कुरीतिपूर्ण रूढ़ियों को दूर करने के लिए अपने स्तर पर प्रयास किए।
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3. आर्य समाज - प्रमुख सिद्धांत एवं कार्य
तत्कालीन समय में कन्यावध की कुप्रथा कुछ क्षेत्रों में प्रचलित थी। कन्या को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। इन कुरितियों पर रोक लगाने के लिए सरकार ने अनेक कानूनों का निर्माण किया। भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति भी दयनीय थी। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, स्त्री अशिक्षा आदि के कारण स्त्रियों की स्थिति सोचनीय होती गई। सन् 1829 ई. के एक कानून द्वारा सती प्रथा पर रोक लगाई गई। इस तरह की तमाम कुप्रथाओं के विरोध राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे समाज सुधारकों ने महत्वपूर्ण कार्य किए।
समाज में दास प्रथा के रूप में एक अन्य कुरीति पनप रही थी। गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बेचने पर विवश थे। सरकार ने सन 1840 ई. में कानून बनाकर दास प्रथा पर भी प्रभावी रोक लगाई।
भारत में शिक्षा की व्यवस्था
भारत में आधुनिक शिक्षा के आरंभ होने से पहले पाठशालाएँ, मकतब और उच्च शिक्षा के लिए टोल (गुरु आश्रम) तथा मदरसा होते थे। प्रारंभिक स्तर पर विद्यार्थियों को स्थानीय भाषाओं में लिखे गए धार्मिक ग्रंथों पर लेखन और गणित पढ़ाए जाते थे। उच्च शिक्षा में मुख्यतः व्याकरण, भाषा-साहित्य, धर्म शास्त्र, तर्क शास्त्र, विधि शास्त्र, शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र का विशेष अध्ययन होता था। ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रारंभिक समय में इसी प्रकार की शिक्षा व्यवस्था प्रचलन थी।
अंग्रेजों ने आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में अपने स्तर पर शुरुआत की। कुछ भारतीयों ने इस प्रयास में उनका सहयोग भी किया। इसी समय ईसाई मशीनरियों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में प्रयास किए किंतु उन्होंने ईसाईयत और उससे संबंधित शिक्षा पर ही अधिक बल दिया। सन् 1781 ई. में कोलकाता मदरसा की स्थापना की गई। इससे अरबी और फारसी की शिक्षा दी जाती थी। इसी क्रम में सन 1784 ई. में सर विलियम जोंस ने एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना की। इसके माध्यम से प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए गए। सन 1791 ई. वाराणसी में हिंदू विधि (कानून ) और दर्शन के लिए संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई। शिक्षा के क्षेत्र में कंपनी द्वारा भी बाद में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए।
सन् 1835 में सरकार में भारतीयों को यूरोपीय साहित्य और ज्ञान- विज्ञान की शिक्षा देने का निर्णय लिया। इसके तहत अंग्रेजी सरकार द्वारा खोले गए कुछ स्कूलों में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। धीरे-धीरे शिक्षा का प्रसार भारत में बढ़ता गया । कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। पश्चिमी शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप भारत में शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय हुआ। इस कारण कंपनी की नौकरियों में और अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों का अवसर मिला।
अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त भारतीयों और शेष भारतीयों के बीच दूरियाँ बढ़ती गई। अंग्रेजी के संपर्क में आने से भारतीय आधुनिक शिक्षा ज्ञान -विज्ञान स्वतंत्रता, समानता जनतंत्र, राष्ट्रीयता विशिष्ट क्रांतियाँ और आधुनिक विचारों के संपर्क में आए। छापाखाना और संचार माध्यमों में आए परिवर्तन के चलते उन्हें विश्व में हो रहे प्रमुख घटनाक्रमों, अविष्कारों एवं जनविकास की योजनाओं से परिचित होने के अवसर मिले।
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अभ्यास प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों के सही विकल्प चुनकर लिखिए-
1. ब्रिटिश संसद रेग्यूलेटिंग एक्ट कब पारित किया था-
क. 1750 ई.
ख. 1773 ई.
ग.1857 ई.
घ. 1940 ई.
उत्तर- 1773 ई.
2. एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना कब हुई थी?
क.1784 ई. में
ख.1790 ई. में
ग.1801 ई. में
घ.1901 ई. में
उत्तर- 1784 ई. में
3. सन 1793 ई. में स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था किसके द्वारा लागू की गई थी-
क. विलियम पिट के द्वारा
ख. राबर्ट क्लाइव के द्वारा
ग. वारेन हेस्टिंग्ज के द्वारा
घ. लार्ड कार्नवालिस द्वारा
उत्तर- लार्ड कार्नवालिस द्वारा
4. सन 1813 ई. में कौन सा एक्ट पारित किया गया-
क. चार्टर एक्ट
ख. पिट इंडिया एक्ट
ग. रेग्यूलेटिंग एक्ट
घ. सिविल सर्विस एक्ट
उत्तर- चार्टर एक्ट
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-
1. लाइव ने निजामत का कार्य बंगाल के नवाब पर छोड़ दिया था।
2. सन 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया था।
3. भारत में सिविल सर्विस की स्थापना लार्ड कॉर्नवालिस ने की थी।
4. रैयतवाड़ी व्यवस्था सर्वप्रथम चेन्नई और बम्बई में शुरू की गई।
5. आधुनिक डाकतार (संचार)) व्यवस्था को डलहौजी ने शुरू किया था।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न-
1. भूमिकर वसूल करने के लिए कंपनी द्वारा किसे नियुक्त किया गया था?
उत्तर- भूमिकर वसूल करने के लिए कंपनी द्वारा जमींदारों को नियुक्त किया गया था।
2. कार्नवालिस द्वारा किए गए सुधारों को किस पुस्तक में संग्रहित किया गया है?
उत्तर- कार्नवालिस द्वारा किए गए सुधारों को ‘कॉर्नवालिस संहिता’ नामक पुस्तक में संग्रहित किया गया है।
3. किसान का भूमि पर अधिकार किस व्यवस्था के अंतर्गत समाप्त कर दिया गया था।
उत्तर- महालवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत किसान का भूमि पर अधिकार समाप्त कर दिया गया था।
लघु उत्तरीय प्रश्न-
1. दोहरी शासन व्यवस्था का बंगाल की जनता पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर- बंगाल के नवाब के पास शासन का संपूर्ण दायित्व था, परंतु उसके पास न तो शक्ति थी और न ही धन था। कंपनी के पास सेना और कोष दोनों थे, किंतु शासन और सुरक्षा के प्रति उसकी जिम्मेदारी नहीं थी। परिणामस्वरूप बंगाल की दोहरी शासन व्यवस्था ने बंगाल की जनता को अपार कष्टों में डाल दिया।
उत्तर- कंपनी की गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए ब्रिटिश संसद ने सन् 1777 ई. में रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया। इस एक्ट के दो प्रमुख उद्देश्य थे-
1. कंपनी के संगठन के दोषों को दूर करना और
2. 2. भारत में कंपनी के शासन के दोषों का निराकरण करना। 3. पिट इंडिया एक्ट की मुख्य विशेषताएँ क्या थी?
उत्तर- इस एक्ट ने कंपनी के मामलों और भारत में उसके प्रशासन पर ब्रिटिश सरकार को अधिकाधिक नियंत्रण का अधिकार दे दिया था। इस एक्ट की विशेष बात यह थी कि इसके द्वारा भारत में कंपनी के आक्रामक युद्धों को नियंत्रित कर दिया तथा गवर्नर जनरल एक शासक की भूमिका में आ गया था। इस एक्ट में कहा गया कि भारत में साम्राज्य का विस्तार इस राष्ट्र की इच्छा, सम्मान तथा नीति के विरुद्ध है।
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न-
1. ब्रिटिश शासन को आर्थिक नीतियों का भारतीय उद्योगों पर क्या प्रभाव पड़ा? समझाइए ।
उत्तर- भारत में कंपनी की आर्थिक नीतियों के कारण व्यापार- वाणिज्य, उद्योग-धंधों तथा भू -राजस्व प्राणाली और कृषि व्यवस्था में अनेक बदलाव आए थे। अंग्रेजों ने अपने हितों में जो नीतियाँ अपनाई थी, उनसे भारतीय अर्थव्यवस्था का परंपरागत ढाँचा चरमरा गया ।भारतीय कृषि, उद्योग तथा व्यापार पर ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों का अत्यंत बुरा प्रभाव पड़ा।
2. स्थाई बंदोबस्त से क्या तात्पर्य है, उसके क्या दुष्परिणाम हुए।
उत्तर- इस व्यवस्था में जमींदारों को भू-स्वामी मान लिया गया। भूमि पर उनका वंशानुगत अधिकार हो गया था। चेन्नई और मुंबई क्षेत्र में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई। इसमें भूमि जोतने वाले को भू - स्वामी को भी माना गया। इनसे कंपनी सीधे कर लेती थी। लगान न देने पर किसानों का भूमि पर से अधिकार समाप्त कर दिया जाता था। इस व्यवस्था से कृषि का उत्पादन बहुत घट गया, किसानों पर अत्याचार बढ़ गए, किंतु सरकारी राजस्व में भी भारी वृद्धि हुई। इसके चलते कुटीर उद्योग, दस्तकार और शिल्पकार पतन के ग्रस्त में चले गये।
3. 18 वीं सदी में भारतीय समाज में कौन-कौन सी कुरीतियाँ व्याप्त थी एवं सरकार द्वारा उनके सुधार हेतु क्या प्रयास किए गए?
उत्तर- 18 वीं सदी में भारतीय समाज में कन्यावध की कुप्रथा कुछ क्षेत्रों में प्रचलित थी। कन्या को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। इन कुरीतियों पर रोक लगाने के लिए सरकार ने अनेक कानूनों का निर्माण किया। भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति भी दयनीय थी। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, स्त्री अशिक्षा आदि के कारण स्त्रियों की स्थिति शोचनीय होती गई। सरकार ने, सन् 1829 ई. के एक कानून द्वारा सती प्रथा पर रोक लगाई।
समाज में दास प्रथा के रूप में एक अन्य कुरीति पनप रही थी। गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बेचने पर विवश थे। सरकार ने सन् 1843 ई. में कानून बनाकर दास प्रथा पर रोक लगाई।
4. ब्रिटिश प्रशासन द्वारा शिक्षा व्यवस्था में क्या सुधार किए गए और उसके क्या परिणाम हुए?
उत्तर- ब्रिटिश प्रशासन द्वारा आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में अपने स्तर पर शुरुआत की गई।कुछ भारतीयों ने इस प्रयास में उनका सहयोग भी किया। सन् 1781 ई. में कलकत्ता मदरसा की स्थापना की गई। इसमें अरबी और फारसी की शिक्षा दी जाती थी। इसी क्रम में सन् 1784 ई.में. सर विलियम जोश ने एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना की। इसके माध्यम से प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए गए। सन् 1791 ई.में वाराणसी में हिन्दू विधि (कानून) और दर्शन के लिए संस्कृत कॉलेज की स्थापना की गई। इसी तरह सन् 1800 ई.में कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई। सरकार द्वारा खोले गए स्कूलों में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। धीरे- धीरे शिक्षा का प्रसार भारत में बढ़ता गया। अंग्रेजी के संपर्क में आने से भारतीय आधुनिक शिक्षा ज्ञान विज्ञान, स्वतंत्रता, समानता, जनतन्त्र, राष्ट्रीयता, विशिष्ट क्रान्तियाँ ऑल आधुनिक विचारों के संपर्क में आने से उनमें जागृति पैदा हुई।
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आशा है, उपरोक्त जानकारी परीक्षार्थियों / विद्यार्थियों के लिए ज्ञानवर्धक एवं परीक्षापयोगी होगी।
धन्यवाद।
RF Temre
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(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
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R F Temre
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