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विषयवस्तु विवरण

ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष || British Shasan ke viruddh Sangharsh || Class 8th Social Science

भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ ही उसका विरोध आरंभ हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की राजनीतिक एवं आर्थिक नीतियों के परिणामों से असंतुष्ट समाज के अनेक वर्गों , पदच्युत शासकों, जमींदारों, धार्मिक नेताओं, फकीरों, सन्यासियों, सैनिकों, किसानों एवं जनजातियों ने अनेक बार विद्ऱू किए। अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध सबसे बड़ा संघर्ष 1857 में हुआ, इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है।

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के 100 वर्षों के भीतर तथा 1857 ईस्वी के लिए स्वतंत्रता संग्राम से पहले भारत में अनेक विद्रोह हो चुके थे। जिसमें बंगाल के गिरी संप्रदाय के सन्यासियों का विद्रोह,अहोम विद्रोह, असम और सिलहट में खासी विद्रोह ,मद्रास में विजयनगम् के राजा का विद्रोह ,किसान आंदोलन में रंगपुर का विद्रोह ,करैजी आंदोलन वहाबी आंदोलन प्रमुख थे। इसी प्रकार आदिवासियों के आंदोलन में चुआर‌ और हो विद्रोह ,कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह प्रमुख थे।

सैनिक विद्रोह में 1806ई. में बैल्लौर का विद्रोह, 1824ई. में बैरकपुर विद्रोह, 1825ई. में असम के तोपखाने में विद्रोह, 1838 ई. का सोलापुर विद्रोह, और 1849 -50 गोविंदगढ़ रेजीमेन्ट का विद्रोह प्रमुख थे।

बंगाल में कंपनी के शासन की स्थापना के साथ ही जनता के शोषण की जो प्रक्रिया आरंभ हुई थी, उसका प्रभाव पुराने जमींदारों ,किसानों ,कारीगरों और सैनिकों पर पड़ा। कंपनी की सरकार ने इनका आर्थिक शोषण किया, जिसके फलस्वरूप अपने हितों की सुरक्षा के लिए शासकों एवं बड़े ताल्लुकदारों ने विद्रोह का सहारा लिया।

किसान आंदोलन को भारत के इतिहास में व्यापक महत्व प्राप्त हैं। सरकार की आर्थिक नीतियों एवं नई भू - राजस्व व्यवस्था की हानि सबसे अधिक किसानों को उठानी पड़ी थी । उन्हें कंपनी तथा जमींदार दोनों के अत्याचारों का सामना करना पड़ा था। भूख ,दरिद्रता और शोषण से पीड़ित किसानों ने अनेकों बार विद्रोह कये थे। इन विद्रोह के प्रमुख केन्द्र पूर्वी बंगाल, मद्रास ,महाराष्ट्र गुजरात आदि थे। इन विद्रोह का मुख्य उद्देश्य आर्थिक शोषण से छुटकारा एवं लगान में रियायत पाना था।

कक्षा - 8 के इन 👇सामाजिक विज्ञान के अध्यायों को भी पढ़ें।
1. भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना और विस्तार - अध्याय- 1
2. अध्याय 2 'ब्रिटिश प्रशासन नीतियाँ और प्रभाव'

सन्यासी विद्रोह

नागरिक विद्रोह में सबसे महत्वपूर्ण बंगाल के सन्यासियों का विद्रोह था ।1770 ई. में बंगाल में पड़े अकाल ने वहां की जनता को आर्थिक रूप से कंगाल कर दिया। अंग्रेजी सरकार की उदासीनता, आर्थिक लूट और तीर्थ स्थानों पर लगे प्रतिबंधों ने सदैव से शांत सन्यासियों को भी विद्रोह करने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने आम जनता के साथ मिलकर कंपनी सरकार की कोठियां ,बस्तियों और किलों पर आक्रमण कर दिया। कंपनी सरकार के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्ज के अथक प्रयासों के बाद ही सन्यासी विद्रोह को शांत किया जा सका। सन्यासी विद्रोह का उल्लेख है बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘आनंदमठ ’ में किया है।

चुनार विद्रोह

अकाल, भूमिकर में वृद्धि तथा अन्य अनेक आर्थिक संकट के कारण मिदनापुर जिले की आदिम जाति के चुआर लोगों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हथियार उठा लिए ।दलभूमि ,कैलापाल ढोतका तथा बाराभूमि के राजाओं ने मिलकर 1768 ई. में विद्रोह किया। यह क्षेत्र 18वीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक उपद्रव ग्रस्त रहा।

हो तथा मुंडा का विद्रोह

छोटा नागपुर तथा सिंहभूमि जिले में रहने वाली हो तथा मुंडा जाति के लोगों ने कंपनी सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। आदिवासियों ने अपने क्षेत्र में अंग्रेजी प्रशासन के विस्तार का विरोध किया। बंगाल के पाराहार के राजा जगन्नाथ ने विद्रोहियों का साथ दिया। एक लम्बे संघर्ष के बाद ही विद्रोह को दबाया जा सका था।

कोल विद्रोह

छोटा नागपुर के किलो ने उस समय विद्रोह किया, जब उनकी भूमि को मुस्लिम तथा सिख कृषकों को दे दिया गया। इस विद्रोह का एक अन्य कारण भूमि प्रबंध ,लगान वसूली का तारिका एवं साहूकारी व्यवस्था थी ।नाराज कोलों ने 1831 ई. के आस-पास सिंहभूमि ,रांची ,पलामू, हजारी बाग ,मानभूमि आदि स्थानों पर विद्रोह कर दिया। इस संघर्ष में आदिवासी नेता बुध्दों भगत ,उसके पुत्र एवं लगभग 150 अन्य आदिवासी मारे गए । दीर्घकालीन सैन्य अभियान के बाद ही विद्रोह को दबाया जा सका।

संथाल विद्रोह

आदिवासियों द्वारा कंपनी शासन के विरुद्ध किए गये विद्रोह में सबसे सशक्त विद्रोह संथालों का था। भागलपुर से लेकर राजमहल के बीच का क्षेत्र दामन-ए -कोह के नाम से जाना जाता था। यह संथाल बहुत क्षेत्र था। संथालो ने भूमिकर अधिकारियों के दुर्व्यवहार के विरुद्ध विद्रोह किया। यह विद्रोह संथाल नेता सीदो तथा कान्हू के नेतृत्व में आरंभ हुआ। इन्होंने अपने क्षेत्रों में कंपनी के शासन के अंत की घोषणा कर दी। एक कड़े संघर्ष के बाद 1856 ई. में ही इस विद्रोह को दबाया जा सका।

अहोम विद्रोह

1828 ई. में अंग्रेज शासन ने अहोम प्रदेश को अंग्रेजी राज में मिलाने का प्रयास किया। परिणाम स्वरूप अहोम लोगों ने गोमधर कुंवर को अपना राजा घोषित कर दिया और रंगपुर पर चढ़ाई कर दी अंग्रेजी सेनाओं के समक्ष अहोम पराजित हुए।

खासी विद्रोह

अंग्रेज प्रशासन ने खासी पहाड़ी तथा सिलहट को अपने अधिकार में लेकर सड़क बनाने का निश्चय किया,जिससे खासी जाती नाराज हो गई।उन्होंने राजा तीरथसिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। खासी नेता वारमानिक तथा मुकुन्दसिंह ने अंग्रेजी सेना का डटकर विरोध किया, मगर 1833 ई. पराजित हुए।

भील विद्रोह

भारत के पश्चिमी क्षेत्र में भील आदिम जाति निवास करती थी। अंग्रेजी शासन की कृषि नीति तथा उसके प्रशासन से उत्पन्न भय के फलस्वरुप भीलों ने विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी शासन का कहना था कि भीलो के विद्रोह को पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा त्रिम्बकजी ने प्रोत्साहित किया था। यह संघर्ष 1812 से 1846 ई. तक चला।

कच्छ का विद्रोह

कच्छ तथा काठियावाड़ के राजा भारमल्ल को हराकर अंग्रेजों ने उनेक अल्पवयस्क पुत्र सिंहासन पर बैठा दिया और अपनी इच्छा से ये राज्य का शासन चलाने लगे ।परिणामस्वरूप भारमल्ल के समर्थकों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।यह विद्रोह 1819 से 1831 ई. तक चला।

रामोसी विद्रोह

पश्चिम घाट में बसने वाली एक आदिम जाति रामोसी ने अंग्रेजी प्रशासन के विरुद्ध 1822 ई. में अपने सरदार चित्तर सिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। उन्होंने सातारा के आसपास का क्षेत्र लूट लिया।

दीवान बेला टम्पी का विद्रोह

वेलेजली ने ट्रावनकोर के महाराजा के साथ 1805ई. में सहायक संधि की थी। ट्रावनकोर का राजा सिंधी की शर्तों से असंतुष्ट था,इसलिए उसने कर देने से इंकार कर दिया।अंग्रेजों के दबाव डालने पर दीवान वेला टम्पी ने विद्रोह कर दिया, जिसे नायर बटालियन ने समर्थन दिया। इस विद्रोह को अंग्रेजों का कुचल दिया।

वहाबी आंदोलन

अंग्रेजी प्रभुसत्ता को सबसे गम्भीर चुनौती वहाबी आंदोलन से मिली ,वहावी आंदोलन 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से सातवें दशक तक चला। रायबरेली के सैय्यद अहमद इसके प्रवर्तक थे ।वह इस्लाम में किसी भी परिवर्तन एवं सुधारों के विरुद्ध थे। सैय्यद अहमद ने पंजाब में सिक्ख राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और 1849 ई. में पंजाब पर कंपनी के अधिकार से वहाबी आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया।

1857ई. के पूर्व होने वाले विद्रोह यद्यपि असफल हो गए,लेकिन इन्होंने जनता में नई चेतना जाग्रत कर दी थी। इनसे किसानों और निम्न वर्गों की दयनीय स्थिति की ओर सबका ध्यान जाग्रत हुआ था।असंतोष की भावना ने समाज के अधिकांश वर्गों में विकराल रूप धारण कर लिया ,जिसका परिणाम 1857 ई. का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था।

सन् 1857ई. का स्वतंत्रता संग्राम

भारतीय इतिहास में 1857ई. का वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस वर्ष ब्रिटिश राज के विरुद्ध सबसे बड़े सशस्त्र आंदोलन का आरंभ हुआ। दूसरे दिन वे सिपाही दिल्ली पहुंचे। दिल्ली के सिपाही भी उसने मिल गए। दिल्ली पर उनका कब्जा हो गया। बहादुरशाह जफर को भारत का बादशाह घोषित किया गया ।ब्रिटिश शासन के खिलाफ लंबे समय से जो असंतोष पनप रहा था,वह स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भड़क उठा।सिपाहियों से शुरू हुआ आंदोलन दवानल की तरह जल्दी ही देश के एक बड़े भाग में फैल गया।

सन् 1857 ई. की घटना ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे बड़ी घटना थी। अनेक दृष्टियों से भारतीय इतिहास में यह एक अभूतपूर्व घटना थी। इसमें ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से देश के विभिन्न प्रदेशों के सैनिक और विभिन्न राज्यों के शासक वर्ग सरदार लड़ाई के लिए एकजुट हुए। समाज के कई अन्य समुदाय-जमीदार, किसान, दस्तकार, विद्वान इस आंदोलन में शामिल हुए।सब इसका एक समान उद्देश्य था - ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना। यह संघर्ष व्यापक पैमाने पर हुआ, अतः इसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष माना जाता है।

ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष

जैसा कि पहले बताया जा चुका है,अंग्रेजों की राज्य- विस्तार नीति के कारण भारत के अनेक शासकों और सरदारों ने उनके प्रति असंतोष व्याप्त हो गया था।अंग्रेजों ने उनके साथ सहायक-संधि कर ली थी।मगर अंग्रेजी इन संधियों को मनमर्जी से तोड़ देते थे।सिद्ध,पंजाब और अवध को अंग्रेजों ने हथिया लिया था । इससे काफी असंतोष फैला था ।डलहौजी ने ‘विलय नीति’को कड़ाई से लागू किया, तो असंतोष और भी अधिक बढ़ गया।झांसी के निःसंतान मृत राजा के दत्तक पुत्र के डलहौजी ने उत्तराधिकारी नहीं माना और 1854ई. में झांसी के राज्य पर कब्जा कर लिया। उसके पहले 1851 ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हुई,तो उसके दस्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा के रूप में मिलने वाली पेंशन देने से अंग्रेजों ने इंकार कर दिया। खुद मुगल बादशाह को कह दिया गया कि उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों को बादशाह नहीं माना जाएगा।इस कार्रवाईयों से कमजोर हो चुके शासक- परिवारों में घबराहट और भय फैल गया।

अंग्रेजों ने उन सरदारों और जमींदारों की शक्ति को नष्ट करने की नीति अपनाई जिनके इलाकों पर उन्होंने कब्जा कर लिया था।उनमें से कइयो की जमीन छीन ली गई। अंग्रेजों ने भू-राजस्व की नई व्यवस्था लागू की, तो भूस्वामियों के पुराने परिवारों के अधिकारी खत्म हो गए। किसी भी राज्य पर कब्जा करने के बाद उसकी पुरानी प्रशासन-व्यवस्था खत्म कर दी जाती थी। तब पुरानी प्रशासन व्यवस्था से जुड़े हुए व्यक्ति बेरोजगार हो जाते थे। जिन राज्यों पर कब्जा किया गया था,उनके न केवल शासक, बल्कि सैनिक, कारीगर तथा कृषक जैसे हजारों अन्य लोग भी प्रभावित हुए थे।

किसानों और दस्तकारों की बरबादी

अंग्रेजों द्वारा लागू की गई भूमि-व्यवस्थाओं से किसानों की हालत बदतर हो गई थी। पुराने जमीदारों को हटा देने पर किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।कई मामलों में राजस्व की मांग में वृद्धि हुई,तो किसानों को कष्ट और बढ़ गए।जब इंग्लैंड में तैयार हुआ माल भारत में पहुंचने लगा,तो यहां के पुराने हस्तशिल्प बरबाद हो गए।पीड़ित किसान और कारीगर ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने की लड़ाई में कूद पड़े।

धर्म और जाति को नष्ट होने का डर

अंग्रेजों की नीति और आचरण ने जनता में यह भय पैदा कर दिया था कि ब्रिटिश शासन उनके धर्म जाति तथा रीति - रिवाजों को नष्ट कर देने पर तुला हुआ है। जनता को लगा कि ब्रिटिश सरकार उन्हें ईसाई बनाना चाहती है।कुछ ईसाई धर्म - प्रचारकों ने हिंदू और मुस्लिम धर्म की तथा जनता के पुराने रीति-रिवाजों की खुले-आम निंदा की। ब्रिटिश सरकार ने सामाजिक सुधार के कुछ कदम उठाए थे। उसने लोगों का भय और भी अधिक बढ़ गया था।अंग्रेजों ने अनेक मामलों में जाति- नियमों की अपेक्षा की थी। उदाहरण के लिए फ़ौजों जेलों और रेलयात्रियों के मामलों में। नई शिक्षण संस्थाओं को,जिसमें से अनेक की स्थापना ईसाई धर्म-प्रचारकों ने की थी, संदेह की नजर से देखा जाता था। चूंकि ये सब नई बातें अंग्रेजों ने शुरू की थीं, इसलिए यह लोगों का अमान्य थीं,अतःअनेक लोग अपने धर्म के नाम पर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह में शामिल हुए। कई मौलवियों ने पहले अंग्रेजो के खिलाफ जेहाद (धर्मयुद्ध) का नारा दिया था।ब्रिटिश सरकार ने लोगों की धार्मिक भावनाओं की अपेक्षा की। अंततः धर्म नष्ट हो जाने का भय आंदोलन भड़कने का तत्कालिक कारण बना।

भारतीय सैनिकों की शिकायतें

ब्रिटिश सरकार की भारतीय फौजों में आठ में से सात भारतीय सैनिक होते थे।देश में फैलते असंतोष का इन सैनिकों पर असर होना संभाविक।था भारत के पुराने शासक-परिवारों के साथ हुए अन्याय को उन्होंने भी अनुभव किया।आम जनता द्वारा भागे जा रहे।कष्टों से सैनिक भी सीधे प्रभावित हुए,क्योंकि वे भारतीय समाज के अभिन्न अंग थे। इसके अलावा, भारतीय सिपाहियों की अपनी भी कुछ खास शिकायतें थीं, जिनके कारण वे विद्रोह के अगुआ बने।

अंग्रेजों की फौज में भारतीय सिपाहियों के लिए पदोन्नति के रास्ते बंद थे। फौज में ऊंचे ओहदे अंग्रेज अफसरों के लिए सुरक्षित थे‌।भारतीय और अंग्रेज सैनिकों के वेतनो में बड़ा अंतर था। अंग्रेज अफसर भारतीय सिपाहियों को नफरत की निगाह से देखते थे। लड़ाई में जाने पर भारतीय सैनिकों को अतिरिक्त भक्ता मिलता था। लड़ाई खत्म होने पर और उनके सहयोग से जीते गए इलाके पर अंग्रेजो का कब्जा हो जाने के बाद भारतीय सैनिकों का भक्ता बंद कर दिया जाता था। उसी दौरान सैनिकों को एक नए प्रकार की राइफल दी गई।इसकी कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगाई जाती थी।राइफल में कारतूस भरने के पहले उस पर लगी सील को दातों से काटना पड़ता था। चर्बी वाले इन कारतूसों के इस्तेमाल से हिंदू और मुसलमान सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची। यही बात स्वतंत्रता संग्राम का तात्कालिक कारण बनी। सैनिकों ने कारतूस भरने से इंकार कर दिया, तो मेरठ में 85 भारतीय सैनिकों को जेल की लंबी सजा सुनाई गई।तब 10 मई,1857 को मेरठ के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। बैरकपुर में मंगल पांडे पर चर्बीयुक्त कारतूसो के प्रयोग का दबाव पड़ने पर उसने दो अंग्रेजों पर आक्रमण किया जिस कारण उसे मृत्युदंड दिया गया। यहीं से आंदोलन प्रारंभ हो गया।

आंदोलनकारी सेना ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया‌‌।उसने बहादुरशाह जफर को भारत का बादशाह घोषित कर दिया। उसके बाद कांति देश के अन्य भागों में भी फैल गई। जिस मुगल बादशाह की कोई साख नहीं रह गई थी वह एकाएक उन सबके लिए एकता का प्रतीक बन गया जो विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। जिन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर आंदोलन नहीं हुए वहां अशांति फैलने के कारण अंग्रेज घबरा गए। असम, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, सिंध, राजस्थान, महाराष्ट्र , हैदराबाद, पंजाब और बंगाल में आंदोलन हुए। इनमें से कुछ जगहों में आंदोलन स्थानीय या फौजी बैरकों तक सीमित रहा और उसे आसानी से दबा दिया गया। कई जगहों में अंग्रेजों ने खतरे को टालने के लिए भारतीय सिपाहियों से उनके हथियार छीन लिए।

दिल्ली,अवध रूहेलखंड ,बुंदेलखंड ,इलाहाबाद के आषपास के इलाकों, आगरा मरेठ और पश्चिमी बिहार में आंदोलन काफी व्यापक और भयंकर था। इन इलाकों में लोगों ने भारी संख्या में क्रांति में भाग लिया और भयंकर लड़ाइयां लड़ी। बिहार में आंदोलन का नेतृत्व कुंवरसिंह ने किया। वहां आंदोलनकारियों ने बिहार के कई हिस्सों को स्वतंत्र किया और वह लखनऊ तथा कानपुर में आंदोलनकारियों की सहायता के लिए आई दिल्ली में विद्रोही सेना का मुख्य सेनापति बख्त खां था। कानपुर में आंदोलनकारियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया और अजीमुल्ला खां उनके मुख्य सलाहकार बने।नाना साहब के सैनिकों का नेतृत्व तात्या टोपे कर रहे थे। वह एक बहादुर और योग्य नेता थे ।झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को शासक घोषित कर दिया गया ।उन्होंने लड़ाई में बड़ी बहादुरी से अंग्रेजों का मुकाबला किया।

लुधियाना की सीक्ख रेजीमेंट के सैनिक पूर्वी उत्तरप्रदेश के आंदोलनकारियों से जा मिले।ब्रिटिश फौज ने गोरखपुर और आजमगढ़ से पलायन किया। जुलाई के शुरू में वाजिद अली शाह के बेटे बिरजिस कादर को अवध की गद्दी पर बिठाया गया। उसकी मां हजरत महल उसकी ओर से शासन करने लगी। मौलवी अहमदुल्ला के नेतृत्व में लखनऊ की रेसिडेंसी को घेर लिया। यह घेरा कई महीनों तक रहा।

आंदोलन का दमन

आंदोलन के समय हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर लड़े। अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुस्लिमों को एक-दूसरे से लड़ाने की कोशिश की। उदाहरण के लिए उन्होंने बरेली में खान बहादुर खां नेताओं के खिलाफ हिंदुओं को लड़ाने के लिए 50,000 रुपए मंजूर किए।मगर ऐसी तमाम कोशिशें बेकार रही। आंदोलन के नेताओं ने बहादुरशाह को हिंदुस्तान का बादशाह माना।वह विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रही समस्त जनता के लिए एकता का प्रतीक बन गया। किंतु आंदोलन का व्यापक स्वरूप होने पर भी एक साल से कुछ अधिक समय बाद ही दबा दिया गया।सितंबर 1857 में अंग्रेजों ने दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया।बहादुरशाह को बंदी बनाया गया। उन पर अभियोग चला कर रंगून (म्यांमार) निर्वासित कर दिया। वहीं पर 1862 ई. में उनकी मृत्यु हुई।सितंबर 1858 ई.में लखनऊ पर ब्रिटिश सैनिकों का कब्जा हो गया।मगर बेगम हजरतमहल में समर्पण करने से इंकार कर दिया‌।वह नेपाल चली गई। झांसी की रानी ने तात्याटोपे के साथ अंग्रेजों का सामना किया,किंतु 3 अप्रैल 1858 को अंग्रेज सेनाअधिकारी हूरोज ने झांसी पर अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई व तात्याटोपे 4 अप्रैल को कालपी पहुंचे,किंतु मई 1858ई. में कालपी पर भी अंग्रेजों की सेना ने अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई व अन्य नेताओं ने ग्वालियर के किले पर अधिकार कर लिया। जून 1858 में ग्वालियर पर अंग्रेजों ने अधिकार करने का प्रयास किया। रानी लक्ष्मीबाई ने अत्यंत वीरतापूर्वक अंग्रेजों का सामना किया व वीरगति प्राप्त की। तात्या टोपे मध्यप्रदेश और राजस्थान में अंग्रेजों से दो साल तक लड़ते रहे। एक मित्र के विश्वासघात के कारण वह अंग्रेजो के कब्जे में आ गए। उन्हें फांसी दे दी गई। अप्रैल 1858 में गंभीर रूप से घायल होने के बाद कुंवरसिंह की भी मत्यु हो गई।1858ई. के अंत तक आंदोलन को नियंत्रण कर लिया गया‌।मगर पुनः शांति स्थापित करने के अंग्रेजों को कई साल लगे।

आंदोलन के दमन के दौरान और उसके बाद ब्रिटिश सैनिकों ने आंदोलनकारी नेताओं,सैनिकों और आम जनता के साथ अमानवीय व्यवहार किया। विजयी ब्रिटिश सैनिकों ने बड़े पैमाने पर अत्याचार किए और बड़ी संख्या में लोगों को मौत के घाट उतार दिया। बहुत से गांवों को मिट्टी में मिला दिया। शहरों को आंदोलनकारियों के कब्जे से मुक्त करने के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें खूब लूटा। अनुमान लगाया गया है कि अकेले अवध में करीब 1,50,000 लोगों की हत्याएं हुई। बहुत बड़ी संख्या में आंदोलनकारियों को फांसी पर चढ़ाया गया और दूसरों को अमानवीय यातनाएं दी गई।

स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के कारण

सन् 1857 के आंदोलन का भारतीय इतिहास में गौरवशाली अध्याय है। पहली बार देश के विभिन्न भागों के बीच एक ऐसे शासन के खिलाफ एकता स्थापित हुई ,जो सबका शत्रुता था ।आंदोलन में अनेक नेता और योद्धा उभरे जिनकी वीरता तथा बहादुरी ने उन्हें अमर बना दिया।रानी लक्ष्मीबाई , कुंवर सिंह, तात्या टोपे और बख्त खां- जैसे नेताओं की वीरता आगे की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा तथा देश प्रेम का स्रोत बनीं।।

लेकिन आंदोलन में कुछ बुनियादी कमजोरियां थी,जिसके कारण उसके सफल होने की कम उम्मीद थी। विद्रोह का नेतृत्व राजाओं और जमींदारों के हाथों में था। उनमें से अनेक आंदोलन में इसलिए शामिल हुए थे,क्योंकि ब्रिटिश शासन उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गया था। स्वतंत्रता संग्राम के नेता यद्यपि विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ रहे थे, मगर वे पुरानी व्यवस्थापप को पुनः स्थापित करना चाहते थे।

आंदोलन को व्यापक स्वरूप आम जनता- सैनिकों,किसानों,दस्तकारो आदि के सक्रिय सहयोग से प्राप्त हुआ था।मगर जनता एक स्वतंत्र नेतृत्व कायम नहीं कर पाई। उस समय भारत में राजनीतिक चेतना की कमी थी,साथ ही राजनीतिक एकता का अभाव था।

स्वतंत्रता संग्राम की कई अन्य कमजोरियां थीं। मुगल बादशाह को आंदोलनकारियों ने भारत का सम्राट मान लिया था और ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से सभी आंदोलनकारी एकजुट नहीं हो पाए थे।अधिकार आंदोलनकारी अपने खास इलाकों में लड़ते रहे। विभिन्न क्षेत्रों में लड़ रही शक्तियों के बीच ठीक से कोई तालमेल नहीं था। इसके अलावा जीवन राज्यों और सरदारों को अंग्रेजों की पद्धत युक्त नहीं किया था उनमें से बहुतों ने आंदोलन के दौरान का साथ दिया। ब्रिटिश शासन के प्रति सब जगह तीव्र असंतोष भी नहीं था। उदाहरण के लिए,कई साल की लड़ाई के बाद पंजाब में अंग्रेजों ने व्यवस्थित प्रशासन कायम किया था। वहां लोग उत्तर भारत के अन्य भागों की तरह असंतुष्ट नहीं थे।इसलिए आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति होते हुए भी पंजाब में बड़े पैमाने पर कोई संघर्ष नहीं हुआ।

सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के साथ भारतीय इतिहास का एक युग समाप्त हो गया। अठारहवीं सदी की भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को अंततः पूरी तरह खत्म कर दिया गया। जिन भारतीय राज्यों पर अंग्रेजो का कब्जा नहीं हुआ था उन्हें कायम रहने दिया गया, मगर उनकी स्वतंत्रता खत्म हो गई। व्यवहारिक रूप में वे ब्रिटिश राज्य के अंग बन गए ।आंदोलन के पश्चात कंपनी का शासन खत्म हो गया और ब्रिटिश सरकार ने भारतीय साम्राज्य पर सीधे शासन करना प्रारंभ कर दिया। भारत के प्रति ब्रिटिश शासकों की नीतियों तथा भावनाओं में अनेक परिवर्तन हुए।

अभ्यास प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों के सही विकल्प चुनकर लिखिए-
1. कौन सा विद्रोह आदिवासी विद्रोह नहीं था-
क. वेल्लोर विद्रोह
ख. भील विद्रोह
ग. संथाल विद्रोह
घ. मुर्गा विद्रोह
उत्तर- वेल्लोर विद्रोह
2. सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में निम्नलिखित में से किसने भाग नहीं लिया?
क. रानी लक्ष्मीबाई
ख. तात्या टोपे
ग. बहादुरशाह जफर
घ. दिलीप सिंह।
उत्तर- दिलीप सिंह
3. अंग्रेजों की किस नीति के कारण भीलो ने विद्रोह किया था?
क. उद्योग नीति
ख. कृषि नीति
ग. धार्मिक नीति
घ. राज्य में हस्तक्षेप।
उत्तर- कृषि नीति।

प्रश्न 2. अति लघु उत्तरीय प्रश्न
1. संन्यासी विद्रोह का उल्लेख किस पुस्तक में मिलता है?
उत्तर- सन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिमचंद्र चटर्जी की पुस्तक ‘आनंद मठ ’ में मिलता है।
2. संथाल विद्रोह का नेतृत्व किसने किया था?
उत्तर- स्थान विद्रोह का नेतृत्व नेता सीदो तथा कान्हू ने किया था।
3. वहाबी आंदोलन के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर- रायबरेली के सैय्यद अहमद वहाबी आंदोलन के प्रवर्तक थे।

प्रश्न 3. लघु उत्तरीय प्रश्न
1. कोल विद्रोह कब और कहां हुआ था?
उत्तर- कोल विद्रोह 1831 ई. के आस-पास सिंहभूमि रांची, पलामू, हजारी बाग,मानभूमि आदि स्थानों पर हुआ था।
2. भारत के उन क्षेत्रों का नाम बताइए जहां सन् 1857 ई. का आंदोलन काफी व्यापक था?
उत्तर- 1857ई. का आंदोलन दिल्ली, अवध,रुहेलखंड,बुंदेलखंड,इलाहाबाद के आस-पास के इलाकों,आगरा ,मेरठ और पश्चिमी बिहार में काफी व्यापक और भयंकर था।

प्रश्न 4. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. संथाल विद्रोह का वर्णन कीजिए।
उत्तर- आदिवासियों द्वारा कंपनी शासन के विरुद्ध किए गए विद्रोह में सबसे सशक्त विद्रोह संथालो का था। भागलपुर से लेकर राजमहल के बीच का क्षेत्र दमन- ए-कोह के नाम से जाना जाता था। यह संथाल बहुल क्षेत्र था। संथालो ने भूमिकर अधिकारियों के दुर्व्यवहार के विरुद्ध विद्रोह किया। यह विद्रोही संथाल नेता सीदो तथा कान्हू के नेतृत्व में आरंभ हुआ। इन्होंने अपने क्षेत्रों में कंपनी के शासन के अंत की घोषणा कर दी। एक कड़े संघर्ष के बाद 1856 ई. में ही इस विद्रोह को दबाया जा सका।
2. सेना के भारतीय सिपाहियों में असंतोष फैलने के क्या कारण थे?
उत्तर- सेना के भारतीय सिपाहियों में असंतोष फैलने के निम्नलिखित प्रमुख कारण थे-
1. ब्रिटिश फौज में भारतीय सिपाहियों की तरक्की की कोई भी गुंजाइश नहीं थी।
2. फौज के सभी उच्च पद अंग्रेज अफसरों के लिए सुरक्षित थे।
3. भारतीय सैनिकों एवं अंग्रेज सैनिकों की आमदनी में अत्यधिक अंतर था।
4. अंग्रेज भारतीय सैनिकों को हेय दृष्टि से देखते थे।
5. उस समय चर्बी वाले कारतूस से हिंदू और मुसलमान सैनिकों की धार्मिक भावनाओं का बड़ा आघात पहुंचा।
6. सैनिकों के इन कारतूसों के प्रयोग करने से मना करने पर उन्हें कठोर और लंबी सजा दे दी गई यहां तक कि मंगल पांडे को मार डाला गया।
3. सन् 1857 ई.के आंदोलन की असफलता के मुख्य कारण क्या थे?
उत्तर- सन् 1857 ई. के आंदोलन की असफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
1. तत्कालीन भारत में राजनैतिक चेतना की कमी एवं एकता का अभाव।
2. आंदोलनकारियों द्वारा मुगल बादशाह को भारत का सम्राट मान लेना।
3. विभिन्न आंदोलनकारियों में एकजुटता एवं आपसी तालमेल का अभाव।
4. ब्रिटिश शासन के प्रति सब जगह तीव्र असंतोष का अभाव एवं कुछ लोगों द्वारा शासन का साथ देना।
5. विद्रोह का नेतृत्व राजाओं और जमींदारों के हाथों में होना।
6. ब्रिटिश शासन के पास बेहतर हथियार, सेना एवं संचार व्यवस्था का होना आदि।
4. टिप्पणी लिखिए-
1. सन्यासी विद्रोह,2. वहाबी आंदोलन
उत्तर- 1. सन्यासी विद्रोह- नागरिक विद्रोह में महत्वपूर्ण बंगाल के संन्यासियों का विद्रोह था। 1770 ईस्वी में बंगाल में पड़े अकाल ने वहां की जनता को कंगाल कर दिया था।अंग्रेजी सरकार की उदासीनता,आर्थिक लूट और तीर्थ स्थानों पर लगे प्रतिबंधों ने सदैव से शांत संन्यासियों के भी विद्रोह करने पर विवश कर दिया। उन्होंने आम जनता के साथ मिलकर सरकार की कोठियों ,बस्तियों और किलो पर आक्रमण कर दिया।कंपनी सरकार के गवर्नर वारेन हेस्टिग्ज अथक् प्रयास के बाद ही सन्यासी विद्रोह को शांत किया जा सका। सन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक ‘आनंद मठ’ में किया है।
2. वहाबी आंदोलन- अंग्रेजी प्रभुता को सबसे गहरी चुनौती वहाबी आंदोलन से मिली। बहावी आंदोलन 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से सातवें दशक तक चला। रायबरेली के सैय्यद अहमद वहाबी इसके प्रवर्तक थे। वह इस्लाम में किसी भी तरह के परिवर्तन और सुधारों के विरुद्ध थे। सैयद अहमद ने पंजाब में सिक्ख राज्य के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और 1849 में पंजाब पर कंपनी के अधिकार से वहाबी आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया।

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