विषय हिन्दी पाठ 2 राम लक्ष्मण परशुराम संवाद काव्य खंड
पाठ सारांश-
कक्षा 11राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद 'रामचरितमानस' के बाल काण्ड से लिया गया है। 'सीता स्वयंवर' के अवसर पर जब राम शिव धनुष को भंग कर देते हैं तो शिव भक्त परशुराम क्रोधित होकर आ जाते हैं। वे शिव-धनुष को खंडित देखकर आपा खो बैठते हैं। राम विनम्र रूप में उन्हें बताते हैं कि आपके सेवक ने यह धनुष तोड़ा है। परशुराम का क्रोध और बढ़ जाता है। लक्ष्मण उन्हें बताते हैं कि हमने बचपन में ऐसे कितने ही धनुष तोड़े हैं तब तो आप कभी नाराज नहीं हुए, आज इस धनुष में क्या विशेष बात है। यह सुनकर परशुराम उत्तेजित होकर कहते हैं-मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ, अत्यन्त क्रोधी हूँ तथा क्षत्रियों का विरोधी हूँ। मैंने धरती को अनेक बार राजाओं से रहित कर दिया है और ब्राह्मणों को दे दिया है। मेरे फरसे की भयंकर गर्जना से गर्भ के बच्चे भी नष्ट हो जाते हैं। परशुराम की उक्तियों से लक्ष्मण उग्र हो उठते हैं और व्यंग्योक्तियों में कहते हैं कि हमने आपका यश सुन रखा है। वस्तुतः शूरवीर युद्ध के मैदान में कर्तब दिखाते हैं और कायर अपने बल का प्रलाप करते रहते हैं। परशुराम भड़क जाते हैं और विश्वामित्र से कहते हैं कि तुम्हारे कारण मैं शान्त हूँ अन्यथा यह बालक वध के योग्य है। लक्ष्मण ने व्यंग्योक्ति में कहा कि तुम्हारे चरित्र के बारे में सारा संसार जानता है। आप माता-पिता से भली प्रकार उऋण हो गए हैं, गुरु ऋण लगता है, हमारे मत्थे मढ़ा है। उसको मैं चुकाने को तैयार हूँ। इस पर क्रुद्ध परशुराम ने फरसा सँभाल लिया तो सभा हाहाकार कर उठी। राम के शीतल वचनों और विश्वामित्र के समझाने पर परशुराम का क्रोध शान्त होता है। लक्ष्मण की वीर रस पूर्ण व्यंग्योक्तियों का सौन्दर्य अनूठा है।
कवि परिचय
तुलसीदास
जीवन परिचय - तुलसीदास का जन्म सन् 1532 में बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म स्थान सोरों (उ. प्र.) को मानते हैं। इनकी माता का नाम हुलसी तथा पिता का नाम आत्माराम दुबे था। बचपन में तुलसी के माता-पिता का निधन हो गया था। अतः अनाथ तुलसीदास का पालन-पोषण गुरु नरहरिदास ने किया। इनका विवाह रत्नावली से हुआ था। पत्नी की दुत्कार तथा गुरु की कृपा से वे राम भक्ति के प्रति प्रेरित हुए। सन् 1623 में इनका देहावसान हो गया।
रचनाएँ -
1. 'रामचरितमानस',
2. 'विनय पत्रिका',
3. 'कवितावली',
4. 'गीतावली',
5. 'दोहावली',
6. 'जानकी मंगल',
7. 'कृष्ण गीतावली',
8. 'पार्वती मंगल' आदि तुलसीदास जी की प्रमुख रचनाएँ हैं।
काव्यगत विशेषताएँ - तुलसी के काव्य की अनेक विशेषताएँ हैं।
(अ) भावपक्ष- बहुमुखी प्रतिभा के धनी तुलसी के साहित्य में अनेक भाव व्यक्त हैं-
(i) भक्ति भावना-तुलसी राम के एकनिष्ठ भक्त हैं। उनके काव्य में भगवान राम के महान चरित्र का गुणगान हुआ है।
(ii) लोक मंगल का विधान-तुलसी के काव्य में लोक मंगल का विधान हुआ है। उन्होंने भारतीय समाज के प्रत्येक पक्ष के हित पर ध्यान दिया। भील, कोल, किरात आदि के प्रति उनकी सहानुभूति है। उन्होंने पारिवारिक जीवन का सटीक चित्रण किया है।
(iii) समन्वय की भावना-तुलसी के काव्य में समन्वय की भावना की प्रधानता है। उन्होंने समाज, धर्म, राजनीति, दर्शन आदि सभी में सामंजस्य स्थापित किया है।
(iv) रस-तुलसीदास के काव्य में सभी रस मिलते हैं। उनके काव्य का प्रमुख रस शान्त रस है।
(ब) कलापक्ष-
(i) भाषा-तुलसी ने ब्रजभाषा और अवधी में काव्य रचना की है। उनका दोनों भाषाओं पर पूरा अधिकार है। उन्होंने संस्कृत, अरबी-फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। उन्होंने भाव के अनुरूप भाषा को अपनाया है।
(ii) शैली-तुलसी ने प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों शैलियों में काव्य रचना की है।
(iii) छंद-तुलसीदास ने चौपाई, दोहा, पद, सवैया, कवित्त आदि छंदों में काव्य रचना की है।
(iv) अलंकार - तुलसी ने रूपक, उपमा, अनुप्रास आदि सभी अलंकारों का सहज प्रयोग किया है।
साहित्य में स्थान- मनुष्य के जीवन को सुखी एवं शान्त बनाने वाले काव्य की रचना तुलसी ने की है। उनके लिए कहा है कि 'कविता करिकै तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।' उनका साहित्य विश्वस्तरीय है। वे हिंदी के अमर कवि हैं।
पदों के प्रसंग संदर्भ सहित व्याख्या
पद 1. नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥ आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥ सेवकु सो जो करें सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥ सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥ सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥ सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसु धरहि अवमाने॥ बहु धनुही तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाई॥ येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥ रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँभार॥ धनुही सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार॥
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' नामक पाठ से लिया गया है। इसके कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग - सीता स्वयंवर में शिव धनुष टूटने के समाचार से क्रोधित परशुराम को राम विनम्र उत्तर देते हैं तथा लक्ष्मण मुस्कराते हुए उन पर व्यंग्य प्रहार करते हैं।
भावार्थ - परशुराम के क्रोध को देखकर श्रीराम कहते हैं- हे स्वामी, शिव के धनुष को तोड़ने वाला कोई एक तुम्हारा सेवक ही होगा। आपकी क्या आज्ञा है, आप मुझसे क्यों नहीं कहते हैं। यह सुनकर मुनि परशुराम क्रोधित होकर बोले कि सेवक तो वह होता है जो सेवा करने का काम करता है। शत्रुता के काम करने के बाद तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम ! तुम स्पष्ट सुन लो जिसने इस शिवजी के धनुष को तोड़ा है वह सहस्रबाहु की तरह मेरा शत्रु है। वह या तो इस समाज को छोड़कर गायब हो जाए अन्यथा यहाँ उपस्थित सभी राजा मारे जाएँगे।
मुनि परशुराम के ये वचन सुनकर लक्ष्मण मुस्करा दिए और परशुराम का अपमान करते हुए बोले, हमने बचपन में इस प्रकार के छोटे धनुष बहुत तोड़े थे किन्तु आपने इस प्रकार क्रोध कभी नहीं किया। इस धनुष से आपका विशेष लगाव किस कारण से है ? यह सुनकर भृगुकुल के ध्वज श्री परशुराम क्रोधित होकर बोले- अरे राजा के पुत्र ! काल के वशीभूत होकर भी तुम सँभलकर नहीं बोल रहे हो। समस्त संसार जानता है कि यह शिव का धनुष क्या छोटे धनुषों के समान हो सकता है?
विशेष (सौंदर्य बोध)— (1) परशुराम के धनुष भंग पर क्रोधपूर्ण वाक्यों का राम ने विनम्र उत्तर दिया है। (2) लक्ष्मण ने परशुराम के प्रति व्यंग्य बाण छोड़े हैं। (3) अनुप्रास, उपमा अलंकार। (4) अवधी भाषा का सौन्दर्य दर्शनीय है। (5) चौपाई एवं दोहा छंद।
पद 2.लखन कहा हंसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥ का छति लाभु जून धनु तोरे। देखा राम नयन के भोरें॥ छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु बाज करिअ कत रोसू॥ बोले चितै परशु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥ बालकु बोलि बधौं नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥ बाल ब्रह्मचारी अति कोही ! बिस्वविदित क्षत्रियकुल दोही॥ भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्हीं। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्हीं॥ सहस्त्रबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥ मातु पितहिं जनि सोचबस करसि महीसकिसोर॥ गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' नामक पाठ से लिया गया है। इसके कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग - लक्ष्मण की व्यंग्योक्तियाँ तथा परशुराम जी के क्रोधपूर्ण कथनों के माध्यम से संवादों का क्रम इस अंश में प्रस्तुत किया गया है।
भावार्थ - परशुराम के कथन पर लक्ष्मण ने मुस्कराते हुए कहा कि हे देव ! आप सुनिए हमारे ज्ञान के अनुसार तो सभी धनुष समान ही हैं। इस पुराने धनुष को टूटने से क्या लाभ-हानि है। राम ने तो इसे नये के भ्रम से देखा था। यह तो राम के छूते ही टूट गया। इसमें रघुकुल के स्वामी राम का कोई दोष नहीं है। हे मुनि! बिना किसी कारण के आप क्रोध क्यों कर रहे हैं। लक्ष्मण के इन वचनों को सुनकर परशुराम जी अपने फरसे की ओर देखते हुए बोले, अरे मूर्ख तुमने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। मैं तुमको बालक मानकर नहीं मारता हूँ। तुम मुझे मात्र मुनि ही मत मानो। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और अत्यन्त क्रोधी स्वभाव का हूँ। सारा संसार जानता है कि मैं क्षत्रिय कुल का विरोधी हूँ। मैंने अपनी भुजाओं के बल से पृथ्वी को अनेक बार राजाओं से रहित किया और इसे ब्राह्मणों को दिया है। मैं सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाला हूँ। हे राजकुमार ! तुम मेरे इस फरसे को ध्यान से देख लो।
हे राजकुमार ! तुम अपने माता-पिता को दुखी मत करो। मेरा फरसा बहुत भयंकर है, यह गर्भ के बच्चों को भी नष्ट करने वाला है।
विशेष (सौंदर्य बोध)— (1) लक्ष्मण के तीखे व्यंग्य बाणों से व्याकुल क्रोधी परशुराम की गर्वोक्तियों का सौन्दर्य आकर्षक है। (2) अनुप्रास अलंकार तथा पदमैत्री की छटा दर्शनीय है। (3) अवधी का साहित्यिक रूप अपनाया गया है। (4) चौपाई एवं दोहा छंद।
पद 3. बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी॥ पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूंकि पहारू॥ इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मर जाहीं॥ देखि कुठारू सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥ भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहों रिस रोकी॥ सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥ बधें पापु अपकीरति हारे। मारतहू पा परिअ तुम्हारे॥ कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥ जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर। सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर॥
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' नामक पाठ से लिया गया है। इसके कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग - यहाँ लक्ष्मण ने मुस्कराते हुए परशुराम की गर्वोक्तियों का करारा उत्तर दिया है।
भावार्थ - लक्ष्मण ने मुस्कराते हुए मीठी वाणी में कहा, अहो मुनीश्वर आप अपने को महान योद्धा मानते हैं। आप मुझे बार-बार फरसा दिखाकर डराना चाहते हैं। आपका यह प्रयास फूँक से पहाड़ को उड़ाने जैसा है। यहाँ पर कोई काशीफल का छोटा-सा फल नहीं है जो तरजनी उँगली के देखते ही मर जाता है। आपके फरसा और धनुष बाण देखकर ही मैंने अभिमानपूर्वक कुछ कहा था। आपको भृगुवंश का समझकर तथा आपके जनेऊ को देखकर आप जो कुछ भी कहते हैं उसे अपना क्रोध रोककर मैं सहन कर लेता हूँ। हमारे कुल में देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्तों और गाय पर वीरता नहीं दिखाई जाती है। इनका वध करने पर पाप लगता है तथा इनसे हारने पर बदनामी होती है। इसलिए आपके मारने पर भी मैं आपके पैरों में पड़ता हूँ। आपके वचन ही करोड़ों कठोर प्रहारों के समान हैं, आप धनुष, बाण तथा फरसा तो बेकार रखते हैं। इनको देखकर यदि मैंने कुछ गलत कह दिया हो तो हे महामुनि ! उसे क्षमा कर दीजिए। यह सुनकर भृगुकुल की मणि परशुराम अत्यन्त गम्भीर वाणी में बोले।
विशेष (सौंदर्य बोध)— (1) इसमें लक्ष्मण ने हँसते हुए मधुर शब्दों में परशुराम पर तीखे प्रहार किए हैं जिनसे उनका क्रोध और बढ़ जाता है। (2) संवादों में ओज का भाव व्यक्त है। (3) अनुप्रास, उपमा अलंकार तथा चौपाई एवं दोहा छंद । (4) मुहावरे युक्त अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।
प्रश्न अभ्यास
प्र.1. परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए?
उत्तर - परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष टूट जाने के लिए कई तर्क दिए-
(i) लक्ष्मण ने कहा कि राम का धनुष के टूटने में कोई दोष नहीं है। उन्होंने इसे जैसे ही छुआ वैसे ही टूट गया।
(ii) राम ने इस धनुष को नया समझा था किन्तु यह पुराना तथा जर्जर था इसलिए टूट गया।
(iii) लक्ष्मण ने कहा कि बचपन में हमने ऐसी अनेक धनुहियाँ तोड़ी थीं तब तो आप नाराज नहीं हुए थे।
(iv) लक्ष्मण ने तर्क दिया कि इस धनुष के टूटने से कोई लाभ या हानि नहीं है इसलिए इस पर नाराज की आवश्यकता नहीं है।
प्र.2. परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर - परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं हैं उनके आधार पर दोनों का स्वभाव अलग-अलग है। राम विनम्र, धैर्यवान तथा मधुर वाणी में उत्तर देते हैं। वे परशुराम से कहते हैं कि धनुष को तोड़ने वाला कोई आपका दास ही होगा। वे परशुराम को अधिक उत्तेजित देखकर संकेत से लक्ष्मण को रोकते हैं और परशुराम जी के क्रोध को शान्त करने का प्रयास करते हैं। किन्तु लक्ष्मण का स्वभाव उग्र तथा तीखा है। वे धनुष के टूटने को सामान्य बात मानते हैं तथा परशुराम के क्रोधित होने को निरर्थक। वे परशुराम को उत्तेजित करने वाले व्यंग्यात्मक उत्तर देते हैं। उनके कथन सभा के लोगों को भी अनुचित लगते हैं।
प्र.3. लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताईं?
अथवा
लक्ष्मण द्वारा वीर योद्धा के सम्बन्ध में बताई गई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर - लक्ष्मण ने वीर योद्धा की कई विशेषताएँ बताई हैं-
(i) वीर कभी भी स्वयं अपनी वीरता का वर्णन नहीं करते, दूसरे लोग उनकी वीरता का वर्णन करते हैं।
(ii) वीर योद्धा युद्ध स्थल में अपनी वीरता का प्रमाण देते हैं।
(iii) वीर योद्धा विनम्र, धैर्यवान तथा गम्भीर होते हैं।
(iv) वीर कभी भी अपने ऊपर अभिमान नहीं करते हैं।
(v) वीरों का दूसरों के प्रति आदर, सम्मान का भाव होता है।
प्र.4. साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर - वीर पुरुष में साहस और शक्ति का होना आवश्यक है। यदि उनके साथ विनम्रता भी हो तो सोने पर सुहागा है। विनम्रता, धैर्य, संयम तथा गम्भीरता का परिचय देती है। विनम्र व्यवहार दूसरों को प्रसन्न करने के साथ-साथ स्वयं को भी आनन्द की अनुभूति कराता है। इससे कटु विरोधी भी झुक जाते हैं। विनम्रता व्यक्ति के कार्यों को सरल तथा सहज बनाती है। इसलिए साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है।
प्र.5. राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद में व्यंग्य का अनूठा सौन्दर्य है। उदाहरण के साथ लिखिए।
उत्तर - तुलसीदास के रामचरितमानस के बालकाण्ड में राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद आया है। इस अंश में व्यंग्य काव्य का अद्भुत सौन्दर्य विद्यमान है। धनुष टूटने पर क्रोधित परशुराम से लक्ष्मण व्यंग्य में कहते हैं-
बहु धनुही तोरी लरिकाई।
कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
इसके उत्तर में परशुराम उग्र हो उठते हैं और कहते हैं-
रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥
इन व्यंग्यों में चुटीलापन, तीखापन तथा आकर्षण भरा है। ये व्यंग्य पाठक के हृदय को चमत्कृत करने के साथ-साथ आनन्दित कर देते हैं।
प्र.6. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लिखिए-
(क) बालकु बोलि बधाँ नहिं तोही।
(ख) कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
उत्तर - (क) इस पंक्ति में 'ब' वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति है इसलिए अनुप्रास अलंकार है।
(ख) 'क' वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है तथा कोटि कुलिस सम में उपमा अलंकार है क्योंकि वचनों की तुलना वज्र से की गई है।
रचना और अभिव्यक्ति
प्र.1 "सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।"
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।
उत्तर - क्रोध के सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों भाव होते हैं।
सकारात्मक पक्ष- व्यक्ति को क्रोध तब आता है जब कोई अनुचित कार्य करता है। अनुचित कार्यों को चुपचाप सहन कर लेना व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए हानिकारक है। क्योंकि इससे गलत प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है। इसलिए अनुचित के प्रति क्रोध आना स्वाभाविक है। क्रोध के द्वारा उसे उचित पर लाना चाहिए। अनुचित का विरोध होगा तो गलत कार्य रुकेंगे तथा समाज का हित होगा। सात्विक क्रोध सकारात्मक होता है।
नकारात्मक पक्ष- क्रोध आने से व्यक्ति अपना संयम खो बैठता है। उसमें अभिमान तथा गर्व का भाव जाग उठता है। क्रोध से विवेकहीन हो जाने पर उचित-अनुचित का भी ज्ञान नहीं रहता है। क्रोध से व्यक्ति की बुद्धि विकृत हो जाती है। उसमें नकारात्मकता आ जाती है। क्रोध से कार्यक्षमता क्षीण होती है।
प्र.2 उन घटनाओं को याद करके लिखिए जब आपने अन्याय का प्रतिकार किया हो।
उत्तर - विद्यार्थी अपने जीवन की घटनाओं का उल्लेख करें। नमूने के लिए एक घटना का उल्लेख प्रस्तुत है।
मैं विद्यालय आ रहा था। रास्ते में एक व्यक्ति राहगीर को लूट रहा था। उसने उसे धमकाकर उसके रुपये निकलवा लिए थे। तमंचा ताने खड़ा था और राहगीर से कह रहा था कि लाओ जो कुछ हो निकाल दो। मुझसे यह नहीं देखा गया मैं पहुँच गया और उसके हाथ में झटका देकर तमंचा कब्जे में कर लिया। अब वह भागने लगा तो मैंने दौड़कर उसे पकड़ लिया और खींचकर राहगीर के पास ले आया। उससे सभी सामान तथा रुपये लौटवाए और पुलिस को फोन कर उसे पकड़वा दिया।
प्र.3 अवधी भाषा आज किन-किन क्षेत्रों में बोली जाती है?
उत्तर - अवधी भाषा आज भी उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में बोली जाती है। अयोध्या, उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली, सुल्तानपुर, प्रयागराज, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, कौशाम्बी, प्रतापगढ़, गोंडा, बस्ती, श्रावस्ती आदि जिलों में अवधी बोली जाती है।
पाठेत्तर सक्रियता
प्र.1 दोहा और चौपाई के वाचन का एक पारम्परिक ढंग है। लय सहित इनके वाचन का अभ्यास कीजिए।
उत्तर - रामचरितमानस का पाठ जगह-जगह होता है। वहाँ उसका वाचन पारम्परिक लय में ही किया जाता है। विद्यार्थियों को जहाँ अवसर मिले वहाँ पाठ में भाग लेकर लय तथा गाने के ढंग को सीख सकते हैं। बहुत से मन्दिरों में भी पाठ होते रहते हैं वहाँ से भी सीखा जा सकता है।
प्र.2 कभी आपको पारम्परिक रामलीला अथवा रामकथा की नाट्य प्रस्तुति देखने का अवसर मिला होगा। उस अनुभव को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर - मेरे घर से थोड़ी दूरी पर रामलीला हो रही थी। मेरे घर के लोग सीता स्वयंवर की रामलीला देखने गए थे। उनके साथ मैं भी चला गया, हम पहुँचे तो आरती हो रही थी। हमने आरती में भाग लिया तथा अपने स्थान पर जाकर बैठ गए। सीता स्वयंवर का मंच सजा था। मंच पर एक सुसज्जित धनुष रखा था। राजकुमारों के बैठने को सिंहासन लगे थे। दर्शकों से सारा क्षेत्र खचाखच भरा था।
रामलीला प्रारम्भ हुई। विभिन्न देशों के राजकुमार मंच पर अपनी-अपनी वेशभूषा में आए। सभी के बैठने पर राजा जनक ने अपनी प्रतिज्ञा बताई कि 'आज मेरी पुत्री सीता का स्वयंवर आयोजित है जो राजकुमार इस शिव-धनुष को तोड़ेगा, सीता का विवाह उसी के साथ कर दिया जाएगा। क्रमशः राजकुमार धनुष भंग के लिए आने लगे। राजकुमार आते धनुष उठाने का प्रयत्न करते। जब धनुष न उठता तो लौटकर अपने स्थान पर लौट जाते। यह क्रम चलता रहा, विभिन्न देशों के राजा-राजकुमार आते रहे। किन्तु कोई धनुष टूटना तो अलग उस धनुष को टस-से-मस भी नहीं कर सका। सभी तरफ निराशा छा गई। राजा जनक दुःखी हो गए। उन्होंने कहा लगता है ब्रह्मा ने सीता विवाह ही नहीं लिखा है। उनकी दृष्टि विश्वामित्र की ओर गई जो स्वयंवर देखने के लिए राम और लक्ष्मण के साथ आए थे। विश्वामित्र जनक जी की दशा देखकर द्रवित हो उठे और उन्होंने राम की ओर धनुष-भंग का इशारा किया। मुनि की आज्ञा पाकर राम मंच की ओर बढ़े। सभी की दृष्टि उन पर लगी थी। सभी मन-ही-मन प्रार्थना कर रहे थे कि धनुष भंग हो जाए। राम और सीता की नजरें मिलीं। राम धनुष के पास गए और अति सरलता से धनुष को उठा लिया और उसे खण्डित कर दिया। सभी के चेहरे खिल उठे। सीता जी जयमाला लेकर राम की ओर बढ़ीं। उन्होंने राम के गले में जयमाला डाल दी। उसी के साथ भगवान राम की जय-जयकार करते हुए रामलीला का समापन हो गया।
परशुराम सहस्त्रबाहु की कथा- एक बार सहस्रबाहु शिकार करते हुए जमदग्नि जी के आश्रम में पहुँच गए। जमदग्नि के पास कामधेनु गाय थी जो सभी इच्छाओं की पूर्ति करती थी। सहस्रबाहु ने जमदग्नि से कामधेनु गाय माँगी। ऋषि जमदग्नि ने मना किया तो वह उस गाय का बलपूर्वक अपहरण कर ले गया। जमदग्नि के पुत्र परशुराम को इस पर क्रोध आ गया और उन्होंने सहस्रबाहु का वध कर दिया। ऋषि जमदग्नि को कार्य अच्छा न लगा, उन्होंने परशुराम से प्रायश्चित करने को कहा। जब सहस्रबाहु के पुत्रों को पिता के वध का पता लगा तो उन्होंने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया। इससे परशुराम क्रोधित हो गए और उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करने की प्रतिज्ञा की।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
(I hope the above information will be useful and important. )
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
infosrf.com
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