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रस के अंग – स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव | Ras- Sthai bhav, Vibhav, Anubhav and Sanchari bhav

जब किसी काव्य की पंक्तियों को पढ़कर मन में जो भाव जाग्रत होते हैं जिससे एक प्रकार की अनुभूति होती है तो ये मन के भाव ही रस कहलाते हैं।
संस्कृत के इस वाक्य काव्य की परिभाषा छिपी है। "वाक्यं रसात्मकं काव्यं" रस से युक्त वाक्य ही काव्य हैं। रस को काव्य की आत्मा कहा जाता है।

उदाहरण– भज मन चरण कँवल अविनासी।
जेताई दीसे धरण गगन बिच, तेताइ सब उठि जासी।
उक्त पंक्तियों को पढ़कर मन में भाव जागृत होते हैं और मन में भक्ति की अनूभूति होती है।

रस के अंग – काव्य शास्त्रियों के अनुसार रस के चार अंग होते हैं।
"विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रस निष्पत्तिः”
अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस निष्पत्ति होती है।

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चार अवयव–

1. स्थायी भाव- सहृदय के हृदय में जो भाव स्थायी रूप से निवास करते हैं, स्थायी भाव कहलाते हैं। इन्हें अनुकूल या प्रतिकूल किसी प्रकार के भाव दबा नहीं पाते।
स्थायी भाव नौ हैं। इन्हीं के आधार पर नौ रस माने गए हैं। प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव नियत होता है।
रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा (घृणा), विस्मय, शम (निर्वेद) स्थायी भाव है। इसके अतिरिक्त वात्सल्य रस माना गया हैं। इसका स्थायी भाव वत्सल है।

2. संचारी भाव – स्थायी भाव को पुष्ट करने के लिए जो भाव उत्पन्न होकर पुनः लुप्त हो जाते हैं उन्हें संचारी भाव कहते हैं। इनकी संख्या 33 मानी गई है। निर्वेद, शंका, ग्लानि, हर्ष, आवेग आदि प्रमुख संचारी भाव हैं।

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3. विभाव– स्थायी भावों को जाग्रत करने वाले कारक विभाव कहलाते हैं।
इनके दो भेद हैं- आलम्बन और उद्दीपन
(i) आलम्बन– जिसके प्रति स्थायी भाव उत्पन्न हो, वह आलम्बन कहलाता है।
(ii) उद्दीपन– स्थायी भावों को बढ़ाने या उद्दीप्त करने वाले भाव उद्दीपन कहलाते हैं।
आलम्बन के भी दो भेद हैं– आश्रय और विषय
आश्रय–
जिस व्यक्ति के मन में भाव जाग्रत हो।
विषय- जिस वस्तु या व्यक्ति के प्रति भाव उत्पन्न हों।
4. अनुभाव– आश्रय की बाह्य शारीरिक चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती है।

रस की निष्पत्ति–

हृदय में स्थित स्थायी भाव का जब अनुभाव, विभाव और संचारी भाव से संयोग होता है तब रस की निष्पत्ति होती है।
उदाहरण– "राम को रूप निहारति जानकी, कंगन के नग की परिछांही। याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेक रही पल टारत नाहीं"

उपर्युक्त उदाहरण में रस के चारों अंगों की निष्पत्ति इस प्रकार हुई है–
1. स्थायी भाव - रति
2. विभाव -
(क) आलंबन जानकी (आश्रय) राम (विषय)
(ख) उद्दीपन कंगन के नग में (प्रिय का) प्रतिबिंब
3. अनुभाव - कर टेकना, पलक न गिरना।
4. संचारी भाव - हर्ष, जड़ता, उन्माद

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वात्सल्य रस

जिन पंक्तियों को पढ़कर मन में ममता के भाव, वात्सल्य के भाव आएँ वहाँ वात्सल्य रस होता है। इसका स्थायी भाव वत्सल है।
उदाहरण–
"मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पिअत भई, यह अजहूँ है छोटी ।।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौ, ह्वै है लाँबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत ओछत, नागिनि-सी भुइँ लोटी।।"
उक्त काव्य पंक्तियों को पढ़कर बाल-सुलभ क्रीड़ाएँ तथा वात्सल्य भाव की अनुभूति होती है।
उक्त पंक्तियों में आलम्बन विभाव कृष्ण है तथा कृष्ण को बाल लीलाएँ व बाल-चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव है।

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श्रृंगार रस की उत्पत्ति

सहृदय के हृदय में विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट हुआ 'रति' स्थायी भाव जब अपनी परिपक्वता को प्राप्त कर लेता है तब श्रृंगार रस की उत्पत्ति होती है। इसे 'रसराज' भी कहा जाता है। इसके दो भेद हैं–
(i) संयोग श्रृंगार
(ii) वियोग श्रंगार।
उदाहरण–
उनका यह कुंज-कुटीर, वहीं झरना उडु, अंश अबीर जहाँ,
अलि कोकिल, कीर शिखी सब है, सुन चातक की रट पीव कहाँ?
अब भी सब साज-समान वही, तब भी सब आज अनाथ यहाँ,
सखि जा पहुँचे सुधि-संग वही, यह अंध सुगंध समीर वहाँ।

उक्त पंक्तियों में–
स्थायी भाव – रति है।
विभाव -
(क) आलंबन – यशोधरा (आश्रय) सिद्धार्थ (विषय)
(ख) उद्दीपन – कुंज-कुटीर, कोकिल, भीरे व पपीहे की ध्वनि
अनुभाव – विषाद भरे स्वर में कथन
संचारी भाव – स्मृति, मोह, विषाद

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धन्यवाद।
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