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नाटक (गद्य विधा) - नाटक के तत्व || नाटक के विकास युग - भारतेंदु, प्रसाद, प्रसादोत्तर युगीन नाटक

नाटक एक दृश्य काव्य है। यह अभिनेय होता है। अभिनय देखकर जिस काव्य के आनंद का उपयोग किया जा सके उसे दृश्य काव्य कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि दृश्य काव्य, श्रव्य काव्य की भाँति सुने या पढ़े नहीं जा सकते। इनको भी पढ़ या सुन सकते हैं, किन्तु पूर्णानंदानुभूति अभिनय देखकर ही की जा सकती है।

नट किसी अन्य व्यक्ति विशेष की विभिन्न अवस्थाओं का अपने अभिनय द्वारा अनुकरण करता है। यह अनुकृति ही नाट्य है और अभिनय कार्य ही नाटक है। नाटक 'नट' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है अवस्कंदन अर्थात् शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का परिचालन। यह परिचालनकर्ता नट तथा उसका कार्य नाटक कहलाता है।

आत्माभिव्यक्ति करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, क्योंकि उससे उसे आत्मतुष्टि होती है। अनुकरण प्रवृत्ति भी स्वाभाविक है। मनुष्य जाने अनजाने अनुकरण करता ही रहता है अर्थात् दूसरों की व्यवस्था विशेष का अनुकरण करता है। यही रूप है इसीलिए धनंजय ने 'दश-रूपक' में अनुकरण को ही नाट्य का मूलाधार माना है। इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि इसी अनुकरण को जब आपसी वार्तालाप, संगीत, नृत्य, वेषभूषा एवं भाव-भंगिमा से समन्वित कर देने पर नाटक हो जाता है। भरतमुनि के अनुसार नाटक के चार तत्त्व हैं -
1. संवाद
2. संगीत
3. अभिनय और
4. रस।

नाटक के प्रारंभ होने के विषय में अनेक मत है। पाश्चात्य समीक्षक मृतात्माओं को प्रसन्न करने के प्रयत्नों से इसे प्रारंभ होना मानते हैं, जबकि भारतीय समीक्षक इसके श्रीगणेश को राम जन्म, कृष्ण जन्म, दशहरा स्वांग तथा कठपुतली आदि के संबंधित मानते हैं। इसका आशय यह है कि नाटक के प्रारंभ का बीजारोपण तो अनुकरण क्रिया के साथ ही साथ प्रारंभ हो गया था। अतः उसके प्रारंभ का समय निश्चित नहीं किया जा सकता।

संस्कृत साहित्य में नाटक साहित्य का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। हिन्दी नाट्य परम्परा संस्कृत की नाट्य परम्परा से अधिक प्रभावित रही है। अंग्रेज शासन काल में थियेटर तथा 'थियोसोफिकल सोसाइटीज' का हिन्दी रंगमंच पर अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ा और भारतेन्दु जी ने समन्वित रूप का अनुकरण कर हिन्दी नाट्य परम्परा को पुनर्जीवन दे, नए युग का सूत्रपात किया।

नाटक के तत्व

संस्कृत नाट्य परम्परा के अनुसार नाटक में प्रसिद्ध कथावस्तु - पंचसंधियाँ, कार्यावस्थाएँ तथा अर्थ प्रकृतियों का यथा संभव यथोचित प्रयोग होना चाहिए, तथा उसमें चारों वृत्तियों का समावेश के साथ ही राजपुरुष अथवा दिव्य पुरुष नायक हो और वीर या श्रृंगार रस की प्रधानता हो, संपूर्ण नाटक को अंकों में और अंकों को दृश्यों में विभाजित किया गया हो।
पाश्चात्य समीक्षक अरस्तु ने नाटक के छः तत्व माने थे-
1. कथावस्तु
2. चरित्र-चित्रण
3. शैली
4. संवाद (कथोपकथन)
5. अभिनेयता
6. गीतात्मकता।

1. कथावस्तु - नाटक का कथानक ही कथावस्तु कहलाता है। कथानक का वह अंश जो नायक नायिका से संबद्ध होता है, अधिकारिक और वह अंश जो अन्य पात्रों से संबंधित होता है, प्रासांगिक कथावस्तु माना जाता है। फलप्राप्ति एवं कार्यव्यापार के आधार पर कथावस्तु 5 प्रकार की मानी जाती है, जिन्हें संधि कहते हैं। फल की प्राप्ति के लिए उपाय करना आवश्यक होता है। अतः इन उपायों को भी 5 भागों में विभक्त कर उन्हें 5 अर्थ प्रकृतियाँ कहा जाता है, जबकि नायक के कार्यव्यापार को कार्यावस्थाएँ कहा जाता है। नीचे संधियाँ, अर्थ प्रकृतियाँ, कार्यावस्थाएँ के प्रकार बताये गये हैं।
संधियाँ -
1. मुख संधि
2. प्रति-मुख संधि
3. गर्भ संधि
4. अवमार्श संधि
5. निर्वहन संधि।
अर्थ प्रकृतियाँ -
1. बीज
2. बिन्दु
3. पताका
4. प्रकरी
5. कार्य।
कार्यावस्थाएँ -
1. आरंभ
2. यत्न
3. प्रत्याशा
4. नियताप्ति
5. फलागम।

संवाद या कथोपकथन

संवाद नाटक के प्राण है। नाटक में कथावस्तु को संवाद शैली में ही प्रस्तुत किया जाता है। कभी-कभी कोई बात सबको सुनने के लिए या किसी विशिष्ट व्यक्तियों को सुनाने के लिए कही जाती है तो कभी-कभी किसी को सुनाने के लिए नहीं केवल चिंतन, मनन या संगत ही होती है। इसी आधार पर संवाद तीन प्रकार के होते हैं -
1. सर्व श्रव्य
2. नियत श्रव्य
3. अश्रव्य।

पात्र और चरित्र-चित्रण

नाटक में अनेक पात्र होते हैं। उन्हीं के आधार पर कथावस्तु का विस्तार होता है और उन्हीं के कथोपकथन कथावस्तु को गति प्रदान करते हैं और आगे बढ़ाते हैं। कथावस्तु को गति देकर फल प्राप्ति की ओर ले जाने वाले प्रधान पात्र को नायक कहा जाता है। पहले नायक राजपुत्र या दिव्य पुरुष ही होता था किन्तु अब मान्यताएँ बदल गई है। अतः किसी भी वर्ग का नायक मान्य है फिर भी उसे उच्च प्रतिष्ठित, जनप्रिय, सत्य परायण रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है। अतः नायक चार श्रेणियों के माने जाते हैं -
1. धीरोदास
2. धीरोदत्त
3. धीर-ललित
4. धीर-प्रशांत

प्रति नायक (खलनायक) नायक के प्रतिद्वंदी को प्रतिनायक कहते हैं। यह धीरोदत्त होता है किन्तु उसके गुण नायक से विपरीत होते हैं वह ली, लोभी, हठी तथा पापाचारी होता है। शेष पात्र नायक अथवा प्रतिनायक के सहायक होते हैं।

पाश्चात्य समीक्षकों के अनुसार संकलन त्रय का ध्यान रखना आवश्यक तत्व समझा जाता है। इसमें स्थान-संकलन, काल-संकलन और वस्तु-संकलन होता है। नाटक में यदि अनेक स्थानों, विभिन्न कालों और विविध वस्तुओं के प्रदर्शन की चेष्टा की जाती है तो अभिनय संतुलित एवं सुविधाजनक नहीं रह पाता। भारतीय चिंतक भी इन बातों से अनभिज्ञ नहीं हैं। अंकों और दृश्यों को सीमा निश्चित करने का प्रयास इसका प्रमाण है। आधुनिक युग में नाटककार इनको पूर्णतः मान्य कर चुके हैं और ध्यान रखते हैं।

संगीतात्मकता - आजकल संगीतात्मकता को विशेष महत्व नहीं दिया जाता लेकिन उसको छोड़ा भी नहीं जा सकता, क्योंकि संगीतात्मकता द्वारा प्रदर्शन रोचक तथा भावपूर्ण हो जाता है।

प्रेक्षागृह और रंगमंच

अभिनय प्रदर्शन हेतु विशिष्ट स्थान को आवश्यकता होती है, दो भागों में विभक्त किया जाता है - एक वह स्थान है जहाँ पर अभिनय किया जाता है और दूसरा वह जहाँ बैठकर दर्शक अभिनय देखते हैं। उनमें प्रथम को रंगमंच एवं द्वितीय को प्रेक्षागृह कहते हैं। आधुनिक सुविधाओं के आधार पर रंगमंच की बनावट और सज्जा में बहुत सुधार हुआ है।

हिन्दी नाट्य परंपरा का विकास

आधुनिक युग में नाट्य परम्परा का विकास भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से हुआ है। उन्होंने ही सर्वप्रथम नाट्य को रंगमंचीय रूप प्रदान किया। उन्होंने मौलिक नाटकों की रचना के साथ ही साथ संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी के नाटकों का भी अनुवाद किया तथा व्यक्तिगत रुचि लेकर उन्हें रंगमंच पर प्रदर्शित किया। उन्होंने पूर्व परम्पराओं से हटकर नाटक को नया रूप दिया। यही कारण है कि विकासक्रम में प्रथम युग उन्हीं के नाम से स्वीकार किया गया। अध्ययन की दृष्टि से नाटक के विकास युग को निम्नलिखित शीर्षकों में बाँटा जा सकता है -
1. भारतेंदु युगीन नाटक
2. प्रसाद युगीन नाटक
3. प्रसादोत्तर नाटक

1. भारतेंदु युगीन नाटक

भारतेंदु जी ने समाज सुधार एवं देशप्रेंम की भावना से ओतप्रोत प्रभावशाली नाटक लिखे। इनके मौलिक नाटक - 'वैदिकी हिंसा', 'हिंसा न भवति', 'विषय विषमौषधम्', 'अंधेर नगरी', 'भारत दुर्दशा', 'नील देवी', 'प्रेंम जोगिनी', 'चंद्रावती' हैं।

कुछ ऐतिहासिक नाटक भी लिखे गए। जगन्नाथ चतुर्वेदी का 'तुलसीदास', वियोगी हरि का 'प्रबुद्ध यामने' तथा मिश्र बंधुओं का 'शिवाजी' आदि अधिक ख्याति पा सके। अनुवाद के क्षेत्र में बाबू सीताराम का 'नामानंद मृच्छकटिप', "मालती माधव" सफल रहे। अन्य अनुवादक हैं - विजेंद्र लाल राय, रूप नारायण पाण्डेय, रामकृष्ण वर्मा, और गंगाप्रसाद पाण्डेय।

इसी समयावधि में पारसी नाट्य शैली का प्रभूत प्रभाव परिलक्षित हुआ। राधेश्याम कथावाचक, ना. प्रा. बेताब और हरिकृष्ण 'प्रेंमी' की कृतियों में देखा जा सकता है। कुछ नाटकों में श्रव्यत्व का आधिक्य मिलता है। इनमें मिश्र बंधु का 'नेत्रोते चीन' बद्रीनाथ भट्ट के 'चंद्रगुप्त', 'वेन चरित्र', 'दुर्गावती' आदि प्रमुख हैं।

इस समय के पाश्चात्य शैली के प्रभाव के कारण प्रस्तावना, विष्कम्मक सुखांत, दुखान्त की परंपरा तोड़कर, नाटकों, अंकों और दृश्यों में विभाजित किया गया।

2. प्रसाद युगीन नाटक

प्रसाद जी ने नाटक साहित्य में युगांतकारी परिवर्तन किया। उनके नाटकों में ऐतिहासिकता के साथ ही साथ प्रबल राष्ट्रीय भावना एवं उदात्त सांस्कृतिक चेतना परिव्याप्त है। प्रसाद जी के नाटक (1910 से 1933) तक को समयावधि में लिखे गए। उनकी भाषा में अद्भुत ओज एवं प्रवाह है। उनके वार्तालाप लम्बे एवं काव्यमय हो गए हैं। अतः उनमें दृश्य काव्य के साथ श्रव्य-काव्य की भी विशेषताएँ आती है। उनके प्रमुख नाटक - 'सज्जन', 'कल्याणी', 'परिणय', 'वरुणालय', 'प्रायश्चित', 'राज्य श्री', 'विशाखा', 'अजात शत्रु', 'जनमेजय का नागयज्ञ', 'स्कंद गुप्त', 'चन्द्रगुप्त', 'ध्रुवस्वामिनी' आदि हैं।

इस युग में नाटककारों की संख्या में अभिवृद्धि नहीं हुई, फिर भी राय देवीप्रसाद, मिश्र बंधु, सत्यनारायण कविरत्न, बदरीनाथ 'भट्ट', आचार्य विशंभरनाथ शर्मा 'कौशिक', चतुरसेन शास्त्री आदि ने प्रशंसनीय कार्य किया। इनके अतिरिक्त गोविंद वल्लभ पंत और जी. पी. श्रीवास्तव ने भी अपना योगदान दिया। श्रीवास्तव साहब एक श्रेष्ठ हास्य नाटककार हैं। उन्होंने 'उलटफेर' और 'गड़बड़ झाला' नाटक लिखकर समाज की रुचि का परिष्कार किया। गोविंद वल्लभ पंत ने ऐतिहासिक, सामाजिक एवं पौराणिक क्षेत्र को महत्व दिया और 'कंजूस की झोपड़ी', 'वरमाला', 'राजमुकुट', 'अंगूर की बेटी', 'अंतःपुर का छिद्र', 'सिंदूर की बेटी' तथा 'ययाति' इत्यादि नाटक लिखे। पंत जी की कृतियों में स्वाभाविकता के साथ भाषा की सरलता और प्रवाह-मयता है। उनके पात्र गतिशील और संवाद नाटकीय हैं।

3. प्रसादोत्तर नाटक (प्रसादोत्तर नाट्य साहित्य)

प्रसाद जी के पश्चात नाट्य साहित्य के क्षेत्र में बहुत परिवर्तन आया जो प्रमुखतः विषयवस्तु प्रकार एवं रचनाशैली में दृष्टिगत होता है। नाटक की अन्य विधाओं में रचना करना विशेष उल्लेखनीय है क्योंकि एकांकी, गीतनाट्य, रेडियो रूपक प्रहसन, काव्य रूपक आदि भी प्रभूत मात्रा में लिखे जाने लगे। आकाश वाणी के प्रसार, प्रचार ने नाटककारों को विशेषरूप से आकृष्ट किया और एकपात्री नाटक, संगीत-रूपक तथा झलकियाँ आदि का सृजन बढ़ा। इस युग में युगीन चेतना एवं विचार धारा का प्रभाव विशेष रूप से नाट्य साहित्य में देखा जा सकता है। पाश्चात्य सभ्यता एवं विचारधारा का भी समावेश होता रहा जिसकी यत्र-तत्र झलकियाँ फैली पड़ी हैं। इस युग में विशेषतः पुरानी परम्पराओं और रूढ़ियों का खण्डन किया गया तथा नए समाज के निर्माण का संकेत दिया गया। इसके अतिरिक्त सामाजिक तथा राजनैतिक समस्याओं के साथ व्यक्तिगत समस्याओं को भी स्थान दिया गया। अंतर्द्वंद्व और मानसिक उलझनों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इस युग के प्रमुख नाटककार - हरिकृष्ण प्रेंमी, सेठ गोविंददास, उदय शंकर भट्ट, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, लक्ष्मी नारायण मिश्र, डॉ. रामकुमार वर्मा, वृंदावनलाल वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, जगदीशचंद्र माथुर, विष्णु प्रभाकर, लक्ष्मीनारायण लाल, मोहन राकेश और विनोद रस्तोगी आदि हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -

हरिकृष्ण प्रेंमी - 'स्वर्ण विहंग', 'पाताल विजय', 'प्रतिशोध', 'आहुति', 'स्वप्न भंग', 'विषपान', 'रक्त बंधन', 'शिव साधना' आदि।
सेठ गोविंद दास - 'हर्ष', 'प्रकाश', 'कर्तव्य', 'शशिगुप्त', 'कर्ण', 'विकास', 'महत्व किसे?' 'बड़ा पापी कौन?', 'दलित कुसुम', 'नवरत्न', 'पाकिस्तान' आदि।
वृन्दावनलाल वर्मा - 'राखी की लाज', 'बाँस की फाँस', 'फूलों की बोली', 'झाँसी की रानी', 'पायल', 'मंगल-सूत्र', 'बीरबल', 'पूर्व की ओर', 'काश्मीर का काँटा' आदि।
उदय शंकर भट्ट - 'विक्रमादित्य', 'दाहर', 'मत्स्यगंधा', 'विश्वामित्र', 'मुक्ति पथ', 'मेघदूत', 'विक्रमोर्वशी'।
लक्ष्मीनारायण मिश्र - 'सन्यासी', 'मुक्ति का रहस्य', 'अपराजित', 'नारद'।
उपेंद्रनाथ अश्क - 'जय-पराजय', 'स्वर्ग की मलिका', 'छठा बेटा', 'पैतरे' आदि।
मोहन राकेश - 'आषाढ़ का एक दिन', 'लहरों का राजहंस'।
लक्ष्मी नारायण शर्मा - 'अंधा कुआँ', 'मादा केक्ट्स', 'सुन्दर रस', 'सगुन पंछी', 'रक्त कमल', 'रात रानी', 'दर्पण', 'सूखा सरोवर' आदि।

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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com

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