शारीरिक विकास - विभिन्न शारीरिक अंगों का विकास, अभिवृद्धि चक्र || शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक || Physical Development
शारीरिक विकास - व्यक्ति के शारीरिक विकास में उसके शरीर के बाह्य एवं आन्तरिक अंगों (अवयवों) का विकास शामिल होता है। जन्म से लेकर युवावस्था तक शरीर का वजन एवं ऊँचाई बढ़ती है और यह कभी बहुत तेजी से या कभी धीमी गति से होती रहती है। पैदा होने के समय से अपने पहले जन्मदिन तक, किसी बच्चे की ऊँचाई। 1½ गुना हो जाती है। इसरे सालगिरह तक 75% वृद्धि हो जाती है। इसी दौरान शरीर का वजन चार गुना बढ़ जाता है। शैशवावस्था में यह वृद्धि तेज, बाल्यावस्था में कुछ धीमी हो जाती है। यह गति पुन: किशोरावस्था में तेज हो जाती है। शारीरिक विकास के प्रमुख पक्ष इस प्रकार हैं।
(i) शरीर रचना - शारीरिक विकास प्रक्रिया में अनेक आन्तरिक बाह्य अंगों एवं मांसपेशियों का विकास होता है। परिपक्वता की विभिन्न अवस्थाओं में अभिवृद्धि की गति में अन्तर होता है। शरीर की रचना - स्नायु प्रणाली, श्वसन प्रणाली, पाचन संस्थान आदि की अभिवृद्धि तथा परिपक्वता एक- दूसरे से सम्बंधित है।
सामान्य शारीरिक विकास - शारीरिक विकास सामान्यतः एक सा होना चाहिए। मानसिक विकास से इसका घनिष्ट सम्बंध है। सामान्य रूप से शारीरिक विकास चार क्षेत्रों में होता है -
(अ) स्नायु प्रणाली
(ब) मांस-पेशियाँ
(स) इन्ड्रोसिल ग्रन्थियाँ
(द) शरीर का आकार।
भिन्न शारीरिक विकास - शारीरिक विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न रूप से होता है। यह भिन्नता शरीर के कद के रूप में पाई जाती है। इन्ड्रोसिन ग्रन्थियों के ठीक से कार्य न करने पर इसका सीध-प्रभाव शरीर की रचना, कद-काठी आदि पर पड़ता है।
अभिवृद्धि चक्र - अभिवृद्धिचक्र से आशय गतिशील के साथ विकास की दर से होता है। अभिवृद्धि का चक्र सदैव किसी एक नियम से नहीं चलता। किसी वर्ष विकास की गति तेज तो किसी वर्ष धीमी होती है।
(i) शरीर का कद - शरीर के कद से आशय शारीरिक ऊँचाई एवं भार से है। ये दोनों मिलकर विकास को निश्चित स्वरूप प्रदान करते हैं।
(ii) ऊँचाई - जन्म के समय बालक की लम्बाई लगभग 20 इंच होती है। लड़कों की लम्बाई तड़कियों की अपेक्षा के जन्म समय आधा इंच अधिक होती है। परिपक्वता की स्थिति तक बालक की ऊँचाई की गति में धीमापन आ जाता है। 12 वर्ष की अवस्था में सामान्य बालक 55 इंच लम्बा हो जाता है। 10 से 14 वर्ष की आयु में लड़कियों का शारीरिक विकास लड़कों की तुलना में तीव्र होता है। 1 वर्ष की आयु तक लड़कों की अधिकतम सीमा तक ऊँचाई बढ़ जाती है। बच्चों की ऊँचाई को निर्धारित करने में वंशक्रम, प्रजाति, सामाजिक-आर्थिक स्थिति तथा रहन-सहन का प्रभाव पड़ता है।
(iii) वजन (भार) - जन्म के समय शिशु का भार लगभग 5 से 8 पौण्ड (लगभग 2 से 4 kg) तक होता है। पहले वर्ष के अन्त में बालक का भार जन्म के भार से 5 गुना अधिक होता है। परिपक्वता आने पर बालक का भार सामान्यतः 70 से 90 पौण्ड तक हो जाता है। बालक का भार उसके शरीर की प्रकृति पर निर्भर करता है।
आकार के प्रकार - सामान्यत: बालकों के आकार तीन तरह के होते है -
(क) सामान्य
(ख) मोटे
(ग) दुबले
व्यक्ति का भार तीनों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
(iv) शारीरिक आकार में भिन्नता - बालक जन्म से ही शरीर के आकार की मिन्नता लिये होती है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसमें यह भिन्नता अधिक प्रकट होने लगती है। जन्म का भार विकास के वर्षों में आनुपातिक रूप धारण करता है।
(v) शारीरिक अनुपात - जन्म के समय शरीर, प्रौढ़ शरीर के अनुपात में बहुत अंशों में भिन्न होता है। भुजाओं तथा टांगों में सर्वाधिक परिवर्तन तथा अनुपात पाया जाता है। शरीर का यह अनुपात निम्नानुसार प्रकट कर सकते हैं।
(अ) सिर - जन्म के बाद बालक का सिर आनुपातिक रूप से बढ़ता है। जन्म से परिपक्वता तक बालक के सिर की लम्बाई दो गुनी हो जाती है। सिर का क्षेत्र पाँच वर्ष की अवस्था से बढ़ते बढ़ते 10 वर्ष की अवस्था तक प्रौद के सिर का 95% हो जाता है। सिर की लम्बाई तथा चौड़ाई का अनुपात लड़के लड़कियों के समान पाया जाता है।
(ब) चेहरा - आठ वर्ष की आयु तक चेहरे का ढाँचा जन्म की तुलना में बहुत बड़ा हो जाता है। परिपक्वता तथा स्थायी दाँत निकलने लगते है और इसी प्रक्रिया में ठोढ़ी, जबड़ा, मुँह, नाक तथा इसके आन्तरिक अंग तुलनात्मक रूप से विकसित होते हैं। मस्तिष्क का विकास द्रुतगति से होता है। आयु के विकास के साथ-साथ माथा भी चौड़ा हो जाता है।
(स) धड़ - हाथों तथा अंगों के विकास से ही उसके धड़ का अनुपात व्यक्त होता है। धड़ के विकसित होते समय छाती तथा गुर्दों की हड्डियों का भी मजबूत होने का समय होता है।
(द) भुजाएँ व टाँगे - नवजात के हाथ-पैर, अंगुलियाँ छेटी होती हैं। 14-16 वर्षों तक इनका विकास पूर्ण हो जाता है। इसी आयु तक भुजाओं का भी विकास होता रहता है। बालक को लम्बाई तथा पैरों के आकार के अनुपात में एक निश्चिताता रहती है।
(इ) हड्डियाँ - बालक की हड्डियाँ, प्रौढ़ से छोटी व कोमल होती हैं। धीरे-धीरे उनके आकार में परिवर्तन होता रहता है और अनेक नई हड्डियों का विकास होता है। जन्म के समय शिशु में 270 हड्डियाँ होती है। पूर्णता अपने पर उसमें 350 हड्डियाँ हो जाती हैं। फिर कुछ हड्डियाँ समाप्त हो जाती है एवं पूर्व परिपक्व अवस्था तक इस इनकी संख्या 206 रह जाती है।
(फ) मांसपेशियाँ व वसा - आरंभ से वसा तन्तुओं की वृद्धि मांसपेशियों के तन्तुओं से अधिक तीव्र होती है। शरीर का भार मासपेशियों द्वारा विकसित होता है। बाल्यावस्था में मांसपेशियों में जल अधिक होता है। धीरे-धीरे जल की मात्रा कम होने लगती है और ठोस तंतुओं का विकास होने लगता है, उसमें दृढ़ता आने लगती है। वसा-युक्त भोज्य पदार्थों के सेवन से चर्बी बढ़ने लगती है।
(ग) दाँत - बच्चों के अस्थायी तथा स्थायी दाँत पाये जाते हैं। अस्थायी दाँतों की संख्या 30 तथा स्थायी दाँवों की संख्या 32 होती है। अस्थायी दाँत तीसरे मास से लेकर छटवें मास तक अवश्य आ जाते हैं। पाँच से छः वर्ष तक ये दाँत पूर्णतः आ जाते हैं। अस्थायी दाँत के गिर जाने पर स्थायी दाँत उनका स्थान ले लेते हैं। 25 वर्ष की अवस्था तक स्थायी दाँत निकलते रहते हैं।
(vi) आन्तरिक अवयव - शरीर के आन्तरिक अवयवों का विकास भी अनेक रूपों में होता है। यह विकास रक्त संचार, पाचन संस्थान तथा श्वसन प्रणाली में होता है। बचपन मे पाचन अंग कोमल होते हैं। प्रौढ़ावस्था में वे कठोर हो जाते हैं। स्नायु संस्थान का आकार भी आयु के विकास के साथ-साथ होता है। आंतरिक विकास के अन्तर्गत स्नायु मण्डल का संगठन, कार्य, चेतना तथा गामक क्रियाओं का संतुलन, श्वास प्रणाली तथा मुत्राशय व जनन अंगों का विकास भी होता है। मस्तिष्क का विकास भी आंतरिक अवयवों के विकास अन्तर्गत ही होता है।
शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
बालक के स्वास्थ्य का उसके शारीरिक का विकास से घनिष्ट सम्बंध है। उचित या अनुचित ढंग से आयोजित मनोरंजन, विश्राम, अपौष्टिक भोजन, कम हवादार निवास, दोषपूर्ण वंशानुक्रम इत्यादि शारीरिक विकास के बाधक तत्व हैं। शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्व निम्न है।
[1] वंशानुक्रम - (Heredity) बालक का विकास वंशानुक्रम में उपलब्ध गुण एवं क्षमताओं पर निर्भर रहता है। गर्भधारण करने के साथ ही बालक में पैतृक कोषों का आरंभ हो जाता है तथा यहीं से बालक की वृद्धि एवं विकास की सीमाएँ सुनिश्चित हो जाती हैं। ये पैतृक गुण पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं। बालक के कद, आकृति, बुद्धि चरित्र आदि को वंशानुक्रम संबंधी विशेषताएँ प्रभावित करती हैं।
डिंकमेयर (Saikmoyer, 1965) के अनुसार - "वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से ही पायी जाती हैं। प्राणी के विकास में वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्व होने के कारण प्राणी के मौलिक स्वभाव और उनके जीवन चक्र की गति को नियंत्रित करती हैं।"
विशेष बिंदु - (i) प्राणी का रंग, रूप, लम्बाई, अन्य शारीरिक विशेषताएँ बुद्धि, तर्क, स्मृति तथा अन्य मानसिक योग्यताओं का निर्धारण वंशानुक्रम गरा होता है।
(ii) माता के रंग तथा पिता के वीर्य रूणों में बालक का वंशानुक्रम निहित होता है। गर्भाधान के समय genes भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त होते हैं। ये जीन्स ही वंशानुक्रम के वाहक हैं। अत: एक ही माता पिता की संतानों में भिन्नता दिखाई देती है, यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) कहलाता है।
(iii) प्रतिगमन का नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता-पिता की संताने कम वृद्धि वाली भी हो जाती है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए वंश परम्परा के लिए निम्न बातें प्रधानतः आती है।
(i) मूल प्रवृत्तियाँ
(ii) सामान्य जन्मजात प्रवृत्तियाँ
(iii) अभिप्रेरक तत्व
(iv) संवेग
(v) स्नायुमण्डल
(vi) प्रतिक्षेप क्रियाएँ
(vii) ज्ञानेन्द्रियाँ
(viii) स्वभाव
(ix) मानसिक क्षमता
(x) शारीरिक डील-डौल (कद)
वंशानुक्रम का विकास पर पड़ने वाले प्रभावों का मनोवैज्ञानिकों द्वारा विश्लेषण -
(i) गोडार्ड के अनुसार- "मंद बुद्धि माता पिता की संतान मंदबुद्धि और तीव्र बुद्धि माता पिता की संतान तीव्र बुद्धि वाली होती है।"
(ii) डगडेल अनुसार - "माता पिता के चरित्र का प्रभाव भी उनके बच्चे पर पड़ता है। व्यक्ति के चरित्र में उसके वंशानुगत कारकों का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।"
[2] वातावरण (Atmosphere) - बालक के स्वाभाविक विकास में वातावरण के तत्व सहायक या बाधक होते हैं। वातावरण के मुख्य तत्व शुद्ध वायु, पर्याप्त धूप, स्वच्छता, पास-पड़ौस, निवास आदि हैं।
वातावरण में शामिल प्रत्येक घटक
व्यक्ति के जीवन को आरंभ से ही प्रभावित करते हैं। गर्भावस्था से लेकर जीवन पर्यन्त अनेक प्रकार की घटनाएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं उसके विकास को प्रभावित करते हैं। गर्भावस्था के दौरान एक एक स्त्री को मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य बनाये रखने की सलाह इसलिए दी जाती है कि उससे न केवल गर्भ के अन्दर पल रहे बालक पर असर पड़ता है बल्कि आगे की विकास की बुनियाद भी मजबूत होती है।
जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना किसी न किसी रूप में बालक के जीवन को प्रभावित करती है। यदि बालक के साथ सहज और ठीक व्यवहार हुआ तो उसके विकास को गति सही होती है अन्यथा उसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि बालक तंग गलियों और बन्द मकानों में रहते हैं तो किसी न किसी रोग का शिकार बनकर अपने स्वास्थ्य को खो देते हैं और विकास पर गहरा असर पड़ता है। कुल मिलाकर देखें तो वातावरण अर्थात उसका सम्पूर्ण परिवेश, रहन सहन इत्यादि का प्रभाव विकास पर पड़ता है।
[3] सामाजिक व आर्थिक कारक - बालक के विकास, अर्थात शारीरिक विकास पर उसके सामाजिक एवं आर्थिक कारकों का भी प्रभाव पड़ता है। गरीब परिवार के बच्चों को विकास के सीमित अवसर उपलब्ध हो राते हैं। उनकी आर्थिक दुर्बलता उन्हें अच्छे शिक्षा एवं अच्छे परिवेश एवं उचित पौष्टिक भोजन प्रदान करने में असमर्थ होती है । जिससे अन्य विकासों के साथ-साथ बालक का शारीरिक विकास अवरूद्ध हो जाता है।
[4] पौष्टिक भोजन का अभाव - बालक के शारीरिक विकास पर असर डालने वाला यह एक प्रभावी कारक है। भारत में अधिकांश हिस्सों में बच्चों को पर्याप्त पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता जिससे वे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं एवं उनका शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
[5] नियमित दिनचर्या - नियमित दिनचर्या उत्तम स्वास्थ्य की आधारशिला है। बालक के खाने, सोने, खेलने, अध्ययन करने आदि का समय निश्चित होना चाहिए। इस सब कार्यों में नियमित दिनचर्या होने पर बालकों के स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है अन्यथा विपरित प्रभाव होने की दशा में बालक शारीरिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है।
[6] निद्रा एवं विश्राम - शरीर के स्वस्थ विकास के लिए निद्रा एवं विश्राम अनिवार्य तत्व हैं। शिशु के लिए 12 घंटे से 18 घंटे एवं बाल्यावस्था और किशोरावस्था में क्रमश: 8 व 10 घंटे की निद्रा पर्याप्त होती है।
[7] प्रेंम, सहानुभूति एवं सुरक्षा - बालक के उचित शारीरिक विकास का आधार प्रेंम है। यदि उसे अपने माता-पिता का आवश्यक प्रेंम नहीं मिला तो वह दुखी रहने लगता है। यदि बालक के माता पिता की अल्पायु में मृत्यु हो जाती है तो उसे असह्य कष्टों का सामना करना पड़ता है। उसके शरीर का विकास रुक सा जाता है। इसी के साथ बालक को पर्याप्त सहानुभूति की आवश्यकता भी होती है। यदि उसे प्रेंम के साथ-साथ समय-समय पर सहानुभूति प्राप्त होती है तो वह बालक शारीरिक रूप से सबल बनने लगता है।
शिशु या बालक के सम्यक विकास के लिए के लिए उसमें सुरक्षा की भावना होनी चाहिए। इस सम्भावना के अभाव में वह भय का अनुभव करने लगता है और आत्मविश्वास खो देता है। उपरोक्त बातें उसके विकास के मार्ग के अवरूद्ध कर देती है।
[8] खेल व व्यायाम - बालक के शारीरिक विकास हेतु खेल व व्यायाम विशेष महत्व रखते हैं। हम देखते हैं कि एक शिशु पलंग या पालने में लेटे रहते हुए भी अपने हाथ- -पैरों को चलाकर अपना व्यायाम पूर्ण कर लेता है। बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में खेल व व्यायाम बालक के शारीरिक विकास में अपनी महती भूमिका निभाते हैं। अत: इनके अभाव में पर्याप्त शारीरिक विकास नहीं हो पाता।
[9] रोग व दुर्घटना - बालक के शारीरिक विकास में बाधक तत्व के में किसी भी प्रकार का रोग शारीरिक विकास को अवरुद्ध कर देता है। किसी बालक की लम्बे समय तक की बीमारी उसके शारीरिक विकास का अवरुद्ध कर देती है। इसी तरह किसी दुर्घटना के कारण लम्बे समय तक बिस्तर में पड़े रहने से बालकों ना शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
[10] जलवायु - किसी स्थान की जलवायु बालविकास पर प्रभाव डालती है। यदि जलवायु उत्तम है तो शारीरिक गठन उन उत्तम कोटि का होता है। हम देखते हैं कि अलग-अलग देशों या क्षेत्रों में रहने वाले लोग वहाँ की जलवायु के अनुरूप ही कद-काठी वाले होते हैं।
[11] कुरीतियाँ व परम्पराएँ - समाज में फैली कुछेक कुरीरियँ व परम्पराएँ जैसे बाल-विवाह, विधवा-मुंडन आदि बालविकास में बाधक होते है। कम आयु में विवाह बालविकास पर प्रतिकूल प्रभाव जलती हैं। कभी-कभी कुछेक परम्पराओं की वजह से बिमारियों का शिकार भी होना पड़ता है।
[12] अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ - (Indocrine glands) बालक के शरीर में अनेक अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं जिनमें से विशेष प्रकार के रसों का स्राव होता है। ये ही रस बालक के विकास को प्रभावित करते हैं। यदि ये ग्रंथियाँ रस का स्राव ठीक प्रकार से न करें तो बालक का विकास अवरुद्ध हो जाता है। उदाहरण के लिए गलग्रन्थि से थाइरॉक्सिन रस बालक के कद को प्रभावित करता है यदि यह रस उचित रूप से स्रावित न हुआ तो बालक बौना रह जाता है। पैराथाइराइड ग्रन्थि के स्राव से हड्डियों तथा दाँतों का विकास होता है एवं संवेशात्मक विकास की एवं व्यवहार भी इसी स्राव पर निर्भर होता है। जनन ग्रंथियों (Gonad Glands) पर पुरुषत्व जैसे दाढ़ी-मूँछ भारी आवाज तथा स्त्रीत्व के लक्षणों का प्रकटीकरण इसी से होता है।
[13] लिंग - बालक के शारीरिक एवं मानसिक विकास में लिंग भेद का भी प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय बालकों का आकार बड़ा होता है। किंतु बाद में बालिकाओं का शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है। इसी प्रकार बालिकाओं में मानसिक एवं यौन परिपक्वता बालिकाओं में बालकों से पहले आ जाती है।
[14] प्रजाति - जैसा कि जलवायु के बिन्दु में वर्णन किया जा चुका है कि अलग अलग क्षेत्रों या देशों में रहने वाले लोगों का शारीरिक गठन अलग-अलग तरह का होता है। अर्थात प्रजातीय प्रभाव के कारण बालकों के विकास में भिन्नताएँ पाई जाती है। अध्ययन से पता चल है कि उत्तरी यूरोप की अपेक्षा भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के बच्चों का विकास तीव्र गति से होता है।
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