गद्य साहित्य की प्रकीर्ण (गौण) विधाएँ - जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, संस्मरण, गद्य काव्य, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी, भेंटवार्ता, पत्र साहित्य
गद्य साहित्य की प्रकीर्ण (गौण) विधाओं में जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी, भेंटवार्ता, पत्र साहित्य आदि मुख्य हैं। आधुनिक युग को जटिलताओं, विषमताओं प्रयोगधर्मिता एवं गतिशील दृष्टि के दबाब से इन गद्य विधाओं का जन्म हुआ।
(1) जीवनी
जीवनी का तात्पर्य है किसी महान व्यक्ति के जीवन का समग्र चित्रण अर्थात् उस व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक को घटनाओं को कालक्रम से इस प्रकार प्रस्तुत करना जिससे उसके व्यक्तित्व के सभी पक्ष उद्घाटित हो उठे। इसमें व्यक्ति विशेष के जीवन को छोटी से छोटी बात तथा बड़ी से बड़ी बात का इस प्रकार वर्णन किया जाता है कि पाठक उसके अंतरंग जीवन से परिचित ही नहीं होता, वरन तादात्म्य स्थापित कर लेता है। जीवनीकार जीवनी में प्रायः उन स्थलों पर विशेष बल देता है जिनके द्वारा पाठक प्रेरणा ग्रहण कर अपने जीवन को अधिक उन्नत बनाने में समर्थ हो सके। जीवनी का प्रामाणिक होना आवश्यक है। जीवनी लेखक तटस्थ रहता है। वह अपनी प्रतिक्रियायें व्यक्त नहीं करता।
साहित्यिक विधा के रूप में आधुनिक जीवनी लेखन का प्रारंभ भारतेंदु युग से ही मानना उचित है। साहित्यिक कही जाने वाली जीवनियों के लेखकों में भारतेंदु हरिश्चन्द्र, कार्तिक प्रसाद खत्री, राम कृष्णदास और मुंशी देवीप्रसाद विशेष उल्लेखनीय हैं। इस युग में मुख्य रूप से प्राचीन संतों, कवियों, महापुरुषों और समकालीन साहित्यकारों की जीवनियाँ लिखी गई।
दुद्विवेदी युग में यात्रा एवं कलात्मकता प्रायः दोनों ही दृष्टियों से जीवनी साहित्य का संवर्धन हुआ। इस युग में मुख्य रूप से महापुरुषों, क्रांतिकारियों, समाज सुधारकों और साहित्यकारों की जीवनियाँ लिखी गई, जिनका मुख्य स्वर राष्ट्रीय एवं सुधारवादी था। इस युग के जीवनी लेखकों में लक्ष्मीधर वाजपेयी, संपूर्णानंद, नाथूराम 'प्रेंमी' मुकुन्दीलाल वर्मा उल्लेखनीय हैं।
छायावादी युग में राष्ट्र महापुरुषों में लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू आदि की जीवनियाँ अधिक लिखी गई। इस युग के प्रमुख जीवनी लेखक रामनरेश त्रिपाठी, गणेश शंकर विद्यार्थी, मन्मथनाथ गुप्त, डॉ. राजेन्द्रप्रसाद और मुंशी प्रेंमचंद उल्लेखनीय हैं।
छायावादोत्तर युग में लोकप्रिय नेताओं, संत महात्माओं, विदेशी महापुरुषों, वैज्ञानिकों खिलाड़ियों और साहित्यकारों की जीवनियाँ लिखी गयीं। इस युग के जीवनी लेखकों में काका कालेलकर, जैनेन्द्रकुमार, राहुल सांकृत्यायन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हिन्दी की प्रमुख जीवनियाँ इस प्रकार हैं - कलम का सिपाही अमृतराय, सुमित्रानंदन पंत जीवनी और साहित्य - शांति जोशी, निराला की साहित्य साधना, डॉ. रामविलास शर्मा एवं 'आवारा मसीहा' विष्णु प्रभाकर।
(2) आत्मकथा
भाषा के माध्यम से स्वयं अपने जीवन को प्रस्तुत करना ही आत्मकथा लेखन कहलाता है। इसमें लेखक स्वयं अपने जीवन की कथा को पाठकों के समक्ष आत्मीयता के साथ रखता है। यह संस्मरणात्मक होती है। लेखक अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों तथा दशाओं में वर्णित उसके जीवन काल की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में होता है। वह अपने जीवन में घटी हुई महत्वपूर्ण तथा मार्मिक घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण ही प्रस्तुत नहीं करता, वरन् अपने जीवन पर पढ़े हुए विभिन्न प्रभावों का भी उल्लेख करता चलता है। महापुरुषों द्वारा लिखी हुई आत्मकथाएँ पाठकों का मार्ग-दर्शन करती हैं तथा उन्हें प्रेरणा देती हैं। जीवनी और आत्मकथा में यही अन्तर है कि जीवनी में लेखक किसी अन्य पुरुष की कथा लिखता है और आत्मकथा में स्वयं अपनी कहता है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की "कुछ आप बीती कुछ जग बीती" के प्रकाशन से ही हिन्दी में नियमित रूप से आत्मकथा का लेखन प्रारंभ हुआ। हिन्दी की आदर्श आत्मकथाएँ छायावाद और छायावादोत्तर युग में लिखी गई हैं। इस क्षेत्र में बाबू श्याम सुन्दर दास कृत "मेरी आत्म कहानी", वियोगी हरि कृत "मेरा जीवन प्रवाह" यशपाल कृत "सिंहावलोकन", पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' कृत "अपनी खबर" बाबू गुलाब राय कृत "मेरी असफलताएँ" आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की "आत्म कथा" का प्रकाशन हिन्दी की एक महत्वपूर्ण घटना है। यह हिन्दी की श्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक है। हिन्दी में राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा "मेरी जीवन यात्रा" का विशिष्ट महत्व है। इसमें लेखक की जीवन गाथा के साथ उनकी यात्राएँ, ऐतिहासिक सांस्कृतिक खोजों आदि से संबंधित उपयोगी सामग्री भरी पड़ी हैं। आचार्य चतुरसेन शास्त्री की "मेरी आत्म कहानी", सेठ गोविंददास की "आत्म निरीक्षण" और हरिवंश राय बच्चन की "क्या भूलूँ क्या याद करूँ" और "नीड़ का निर्माण फिर-फिर" आत्म कथाएँ उल्लेखनीय उपलब्धियाँ मानी जाती हैं। प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल की "मेरी कहानी" आत्म कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती है।
(3) यात्रा वृत्त
यह साहित्य की एक रोचक तथा मनोरंजन विधा है। इसमें लेखक विशेष स्थलों की यात्रा का सरस तथा सुन्दर वर्णन इस दृष्टि से करता है कि जो पाठक उन स्थानों की यात्रा करने में असमर्थ हों वे उसका मानसिक आनंद उठा सकें और घर बैठे हो उन स्थलों के प्राकृतिक दृश्यों, वहाँ के निवासियों के आचार-विचार, खान-पान, रहन सहन आदि से परिचित हो सकें। इस विधा का यह लक्ष्य रहता है कि लेखक अपनी यात्रा में प्राप्त किए हुए आनंद तथा ज्ञान को पाठकों तक पहुँचा सके। यह विधा आत्मकथात्मक, अनौपचारिक, संस्मरणात्मक तथा मनोरंजक होती है। इसकी सफलता लेखक के सूक्ष्म निरीक्षण तथा उसकी वर्णन शैली के सौष्ठव एवं सौंदर्य पर अधिक निर्भर रहती है। यात्रा वृत्त में "आत्म कथा", "संस्मरण" और "रिपोर्ताज" तीनों के तत्व पाये जाते हैं।
हिन्दी में यात्रा साहित्य का प्रारंभ आधुनिक काल में हुआ। इस साहित्य के जन्मदाता और इसे पराकाष्ठा पर पहुँचाने वाले "घुमक्कड़ शास्त्र" के प्रणेता शb>राहुल कृत्यायन हैं। हिन्दी के आधुनिक साहित्यकारों द्वारा लिखे गए यात्रावृत्त विशेष कलात्मक एवं सुन्दर हैं। इनमें रामाधारी सिंह 'दिनकर' लिखित "देश-विदेश", यशपाल की "लोहे की दीवार के दोनों ओर", यशवंत शरण उपाध्याय लिखित "मैंने देखी वो दुनियाँ", अमृतराय की "सुबह के रंग" विशेष उल्लेखनीय हैं। यात्रावृत्तों को अभिनव दिशा दी है देवेन्द्र सत्यार्थी ने "चाँद सूरज के बीरन" में तथा अज्ञेय ने "अरे यायावर रहेगा याद" में यात्रावृत्तों की इस कला का और भी विकसित रूप देखने को मिलता है। मोहन राकेश की पुस्तक "आखिरी चट्टान तक" में इस प्रकार हिन्दी का यात्रा साहित्य मात्रा और गुण की दृष्टि से पर्याप्त संपन्न है।
(4) संस्मरण
जीवन की मार्मिक अनुभूतियों को स्मृति के आधार पर प्रभावशाली भाषा में चित्रण करना ही संस्मरण लेखन है। यह जीवन की वास्तविकता की अनुभूतिमय अभिव्यक्ति है। संस्मरण का अर्थ है "सम्यक स्मरण" अर्थात् संस्मरण में लेखक स्वयं अपनी अनुभूत किसी वस्तु, व्यक्ति तथा घटना का आत्मीयता तथा कलात्मकता के साथ विवरण प्रस्तुत करता है। इसका संबंध प्रायः महापुरुषों से होता है। इसमें लेखक अपनी अपेक्षा उस व्यक्ति को अधिक महत्व देता है जिसका वह संस्मरण लिखता है। इसमें किसी विशिष्ट व्यक्ति का स्वरूप, आकार-प्रकार, रंगरूप, स्वभाव, भाव-भंगिमा, व्यवहार, जीवन के प्रति दृष्टिकोण, अन्य व्यक्तियों के साथ संबंध आदि सभी बातों का विश्वसनीय रूप में आत्मीयता के साथ वर्णन होता है। संस्मरण में व्यक्तिपरकता का तत्व मूलतः समाहित रहता है।
हिन्दी में संस्मरण लेखन प्रारंभ करने का श्रेय पद्मसिंह शर्मा को है। इन्होंने साहित्यकारों और साहित्य-रसिकों के संबंध में बड़े ही रोचक और आकर्षक संस्मरण लिखे हैं। यात्रा के संस्मरणों की रचना की दृष्टि से राहुल सांकृत्यायन, बनारसी दान चतुर्वेदी, अशेष, देवेन्द्र सत्यार्थी, डॉ. नगेन्द्र यशपाल और विनय मोहन शर्मा के नाम उल्लेखनीय है। पाल मन्मथनाथ गुप्त, मनमोहन गुप्त, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि क्रांतिकारियों ने अपने क्रांतिकारी जीवन एवं बंदी जीवन की रोमांचक स्वानुभूत स्मृतियाँ प्रस्तुत की है। शिवरानी जी की "प्रेमचंद घर में" संस्मरण साहित्य की अनूठी कृति है। उपेन्द्रनाथ अश्क लिखित "मंटो मेरा दुश्मन", "ज्यादा अपनी कम पराई", "रेखाएँ और चित्र" का साहित्यिक महत्व है। श्री नारायण चतुर्वेदी ने "मनोरंजक संस्मरण" में प्राचीन एवं आधुनिक साहित्यकारों के रोचक संस्मरण प्रस्तुत किए हैं।
(5) रेखा-चित्र
"रेखा-चित्र" शब्द अंग्रेजी के "स्केच" (Sketch) शब्द का अनुवाद है तथा दो शब्दों, रेखा और चित्र के योग से बना है। इसमें शब्दों की कलात्मक रेखाओं के द्वारा किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना के बाह्य तथा आंतरिक स्वरूप का चित्र इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि मानों पाठक के हृदय में उसकी सजीव तथा यथार्थ मूर्ति अंकित हो जाती है। रेखाचित्र में चित्रकला तथा साहित्य का सुंदर सामञ्जस्य दिखाई पड़ता है। जिस प्रकार चित्रकार तूलिका तथा रंगों के माध्यम से किसी जीव चित्र का निर्माण करता है, उसी प्रकार रेखा-चित्रकार शब्दों द्वारा ऐसा भावपूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है, जो उसकी वास्तविक संवेदना को मूर्त रूप प्रदान करने में सफल होता है। रेखा-चित्रकार शब्द शिल्पी होता है, तथा चुने हुए शब्दों एवं विशिष्ट वादों के द्वारा एक काल्पनिक किन्तु सजीव चित्र प्रस्तुत करता है। इसमें लेखक की निजी अनुभूति यथार्थ रूप से अभिव्यक्त होती है। सफल रेखाचित्रों की रचना के लिए सूक्ष्म पर्यवेक्षण, विचार तत्व तथा भावना और कल्पना की आवश्यकता होती है।
रेखाचित्र में सांकेतिकता अधिक रहती है। लेखक कम से कम शब्दों का प्रयोग करके किसी व्यक्ति या वस्तु की मूलभूत विशेषता को उभार देता है। रेखाचित्र में लेखक का पूर्णतः तटस्थ होना आवश्यक है। संस्मरण अभिधामूलक होता है, किंतु रेखाचित्र सांकेतिक और व्यंजक होता है। वस्तुतः रेखाचित्र संस्मरण का कलात्मक विकास है।
हिन्दी के रेखाचित्रकारों में महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी अग्रगम्य है। "अतीत के चलचित्र" और "स्मृति की रेखाएँ" में अत्यंत साधारण कोटि के व्यक्ति रेखांकित है, जो सेवक, कुली छात्र आदि के रूप में महादेवी जी के संपर्क में आए बेनीपुरी जी ने रेखाचित्र की शैली का वास्तव में एक प्रतिमान उपस्थित किया है। "माटी की मूरत" में "मील के पत्थर" में बेनीपुरी जी ने महात्मा गाँधी, जयप्रकाश नारायण, राजेन्द्र प्रसाद, प्रेमचंद, विनोबा भावे आदि महापुरुषों के रेखाचित्र लिखे हैं। इनके रेखाचित्रों में कथा और संस्मरण का आनंद मिलता है। बनारसीदास चतुर्वेदी ने अपने रेखाचित्र में मुख्यतया राजनीति एवं साहित्य-क्षेत्र में महान व्यक्तियों के रेखाचित्र प्रस्तुत किए हैं। रेखाचित्र के क्षेत्र में देवेन्द्र सत्यार्थी और कन्हैयालाल मिश्र "प्रभाकर" ने उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं। सत्यार्थी के रेखाचित्र "रेखाएँ बोल उठी" तथा "एक युग एक प्रतीक" में निबंधात्मकता पाई जाती है। यह एक नया प्रयोग है। प्रभाकर जी के रेखाचित्रों में गाँधीवादी विचार को सजीव एवं रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है जिनमें पत्रकारिता का पुट है। रेखाचित्र के विकास में शमशेर बहादुरसिंह एवं जगदीशचंद्र माथुर ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
(6) गद्य काव्य
गद्य काव्य गद्य और पद्म के बीच की विधा है। इसमें गद्य के माध्यम से किसी भावपूर्ण विषय को काव्यात्मक अभिव्यक्ति होती है। इसका गद्य भी सामान्य गद्य से अधिक सरस, भावात्मक, अलंकृत, संवेदना की अभिव्यक्ति इस प्रकार करता है कि पाठक उसे पढ़कर रसमय हो जाता है। इसमें विचारों की अभिव्यक्ति की अपेक्षा भावों की सरस अभिव्यक्ति की प्रधानता रहती है। यह निबंध की अपेक्षा संक्षिप्त तथा वैयक्तिक होता है। इसमें केवल एक ही केन्द्रीय भाव की प्रधानता होती है। इसकी शैली प्रायः चमत्कारपूर्ण एवं कवित्वपूर्ण होती है। तथा विचारों का समावेश भी भावों के ही रूप में होता है।
गद्य-काव्य या गद्य-गीत में प्रेंम, करुणा आदि भावनाएँ छोटे-छोटे कल्पना चित्रों के माध्यम से अन्योक्ति या प्रतीक पद्धति पर व्यक्त की जाती है। अनुभूति की प्रधानता, भावानुकूलता, संक्षिप्तता, रहस्यमयता तथा सांकेतिकता श्रेष्ठ गद्य काव्य की विशेषताएँ हैं।
हिन्दी में गद्य काव्य का आरंभ राय कृष्णदास के "साधना" संग्रह हुआ। "साधना", "छाया पथ", "पगला", "संलाप", "प्रवाल" आदि रामकृष्णदास प्रकाशन से के श्रेष्ठ गद्य-काव्यों के संग्रह हैं। "साहित्य देवता" में माखनलाल चतुर्वेदी के कुछ विचारात्मक निबंधों को छोड़कर अधिकांश गद्य-काव्य संग्रहीत हैं। गद्य-काव्य के लेखकों में वियोगी हरि का स्थान महत्वपूर्ण है। "विश्वधर्म", "अंतर्नाद", "भावना", "प्रार्थना", "श्रद्धाकण", "तरंगिणी" आदि संग्रहों में वियोगी हरि जी की भावविह्वल रचनाएँ पाठकों को पढ़ने के लिए मौन निमन्त्रण देती हैं। हिन्दी गद्य काव्य के रचनाकारों में चंडीप्रसाद 'हृदयेश', रामकुमार वर्मा, सुदर्शन, मोहनलाल मेहता 'वियोगी', लक्ष्मीनारायण 'सुधांशु', डॉ. रघुवीरसिंह आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। किन्तु गद्य-काव्य को नई दिशा का उन्मेष करने वाले हैं - "रामवृक्ष बेनीपुरी"। उनके गद्य काव्य ललक एवं ताजगी से ओतप्रोत है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने भी गद्य गीतों के क्षेत्र में अच्छे प्रयोग किए। छायावादोत्तर युग में दिनेशनंदिनी डालमियाँ, डॉ. रघुवीरसिंह, तेज नारायण काक आदि का योगदान सराहनीय है। डॉ. रघुवीरसिंह के गय-काव्यों का संकलन, शेष स्मृतियों हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं।
(7) रिपोर्ताज
"रिपोर्ताज" शब्द की व्युत्पत्ति फ्रांसीसी शब्द 'रिपोर्ट' से तैयार हुई है। रिपोर्ताज का तात्पर्य होता है - घटना विवरण। इसलिए किसी घटना के वास्तविक वर्णन या विवरण को रिपोर्ताज कहा जाता है। रिपोर्ताज को समाचार और विचार तथा दृश्य का संगम कहा जा सकता है। रिपोर्ताज के लेखक को अपने वर्ण्य-विषय का पूर्ण ज्ञान होता है। वह इस प्रकार लिखता है कि वह जो कुछ लिख रहा है वह मानो उसका आँखों देखा ही हो। इसमें कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का निजी सूक्ष्म निरीक्षण के आधार पर मनोवैज्ञानिक विवेचन तथा विश्लेषण होता है।
रिपोर्ताज हिन्दी की ही नहीं, अपितु पाश्चात्य साहित्य की भी नवीनतम विधा है। इसका जन्म वास्तव में पत्रकारिता के साथ साहित्यिकता के संयोग से हुआ । इसका प्रादुर्भाव द्वितीय विश्व युद्ध के समय हुआ, जब साहित्यकारों ने युद्ध में राष्ट्रीयता एवं मानवीयता की भावना से भाग लिया और युद्ध भूमि के दृश्यों, घटनाओं आदि का कलात्मक एवं रोचक प्रतिवेदन समाचार-पत्रों को भेजा । ये प्रतिवेदन निश्चित रूप से युद्ध के समाचारों से भिन्न थे, जिनका पाठकों में खूब स्वागत हुआ । इस प्रकार इस नई विधा का जन्म हुआ।
इसकी शैली विवरणात्मक तथा वर्णनात्मक होती है, जिसमें सरलता, रोचकता, आत्मीयता तथा प्रभावपूर्णता का विशेष महत्व होता है। इसमें लेखक प्रतिपाद्य विषय को सरसता तथा सरलता से पाठक को हृदयंगम कराने में सफल होता है। पत्रकारिता के गुणों से संपन्न रिपोर्ताज का लेखक इसमें अधिक सफल होता है।
हिन्दी में रिपोर्ताज की विधा अभी शैशवावस्था में है। हिन्दी के जिन बड़े से लेखकों ने रिपोर्ताज लिखे हैं, उनमें प्रकाशचंद्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर, कुबेरनाथ राय, निर्मल वर्मा, धर्मबीर भारती एवं कमलेश्वर विशेष उल्लेख्य हैं। बंगलादेश के स्वतन्त्रता संग्राम को निकट से देखकर धर्मवीर भारती एवं कमलेश्वर ने बड़े सजीव रूप में रोमांचक रिपोर्ताज लिखकर इस विधा के उत्कर्ष को बढ़ाया है।
(8) डायरी
डायरी मूलतः लेखक की निजी वस्तु होती है। डायरी विधा में लेखक तिथि विशेष में घटित घटनाचक्र को यथातथ्य रूप में अपनी संक्षिप्त प्रतिक्रिया या टिप्पणी के साथ प्रस्तुत करता है। डायरी कुछ महत्वपूर्ण तिथियों में घटित घटनाओं को लेकर भी लिखी जा सकती है और क्रमबद्ध रूप में रोजनामचा के रूप में भी लिखी जा सकती है उसका आकार कुछ पंक्तियों तक हो सीमित हो सकता है और कई पृष्ठों तक विस्तृत भी। वह स्वतन्त्र रूप से भी लिखी जा सकती है और कहानी, उपन्यास या यात्रावृत्त के अंग के रूप में भी। इसमें लेखक अपने निजी विचार, दृष्टि, उद्भावना और प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है।
हिन्दी में डायरी विधा में लेखन को आरंभ करने का श्रेय डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को "मेरी कालेज डायरी" नामक रचना को है। डायरी विधा के लेखकों में श्री इलाचंद्र जोशी, रामवारी सिंह दिनकर, शमशेर बहादुरसिंह, सुन्दरलाल त्रिपाठी एवं मोहन राकेश के नाम महत्वपूर्ण हैं।
(9) भेंटवार्ता
किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से निर्धारित किसी विशिष्ट विषय पर कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न किये जाते हैं और उनसे प्राप्त उत्तरों को व्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध कर लिया जाता है तो "भेंटवार्ता" की सृष्टि होतो है भेंटवार्ता में नाटकीयता आवश्यक है। यह सामान्यतः प्रश्नोत्तर शैली में लिखी जाती है। भेंटवार्ताओं में जिस व्यक्ति से भेंट की जाती है उसके स्वभावरुचि, कार्य कुशलता, बुद्धिमत्ता तथा अपनी उत्सुकता का उल्लेख करके लेखक भेंटवार्ताओं को अधिक रुचिकर बना सकता है।
हिन्दी में वास्तविक और कालनिक दोनों ही प्रकार को भेंटवार्ताएँ लिखी गयी हैं। पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश' और रणवीर रांगा ने वास्तविक भेंटवार्ताएँ लिखी हैं, जबकि राजेन्द्र यादव (चैखव : एक इण्टरव्यू) और श्री लक्ष्मीचंद जैन (भगवान महावीर : एक इण्टरब्यू) ने कल्पना के आधार पर भेंटवार्ताएँ लिखी हैं।
(10) पत्र साहित्य
पत्र-साहित्य दो प्रकार का होता है। निजी और सार्वजनिक। पत्र-साहित्य के अन्तर्गत उन पत्रों को लिया जा सकता है जो किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति या सार्वजनिक समस्या को लेकर दो व्यक्तियों के मध्य एक-दूसरे को लिखे जाते हैं। जब लेखक अपने किसी मित्र या परिचित व्यक्ति को अपने संबंध में या किसी महत्वपूर्ण समस्या के संबंध में उसकी और अपनी सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर उचित आदर या स्नेह का भाव प्रकट करते हुए निजी तौर पर मात्र सूचना, जिज्ञासा या समाधान लिखकर भेजता है और उत्तर की अपेक्षा रखता है तो वह पत्र-साहित्य का सृजन करता है।
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजे जाने वाले पत्र प्रायः सार्वजनिक प्रश्नों को लेकर लिखे जाते हैं। साहित्यिक दृष्टि से वे पत्र अधिक महत्वपूर्ण होते हैं जो प्रकाशनार्थ नहीं लिखे जाते और मात्र दो व्यक्तियों के बीच की वस्तु होते हैं।
हिन्दी के पत्र साहित्य का आरंभ द्विवेदी युग में सन् 1904 में स्वामी दयानंद सरस्वती के पत्रों के प्रकाशन से हुआ। छायावाद-युग में रामकृष्ण आश्रम देहरादून से 'विवेकानंद पत्रावली' का प्रकाशन किया गया। छायावादोत्तर युग में पत्र साहित्य के संकलन और प्रकाशन की दिशा में कई महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं। इस क्षेत्र में बैजनाथसिंह 'विनोद' द्वारा संकलित "द्विवेदी पत्रावली", बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा संकलित " पदमसिंह शर्मा के पत्र", वियोगी हरि द्वारा संकलित "बड़ों के प्रेरणादायक कुछ पत्र" और हरिवंशराय बच्चन द्वारा संकलित "पंत के दो सौ पत्र बच्चन के नाम" आदि उल्लेखनीय पत्र संकलन हैं।
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