रीतिकाल (सन् 1643 से 1843 ई० तक) हिन्दी साहित्य का इतिहास || Ritikal (Padya Sahitya)
भारत में सन् 1643 तक मुस्लिम राज्य पूरी तरह से अपनी जड़ें जमा चुका था देशी राजा संघर्ष से विमुख होकर अपने-अपने राजमहलों में विलास में लिप्त रहने लगे। दरबारी कवि अपने आश्रयदाताओं की रुचि के अनुसार उनकी विलासिता को उभारने वाली श्रृंगारिक रचनाएँ करने लगे। इस काल में विलासिता और समृद्धि हो जीवन का साम्य बन गई। कविता जनता के बीच में पुनः दरबारों में उच्चवर्ग के आश्रय में जा पहुँची। दरबार में रहने वाले कवियों ने मौलिक उद्भावना के अभाव में संस्कृत के रीति ग्रन्थों के अनुकरण पर हिन्दी में भी लक्षण ग्रंथ लिखे। इन रीति ग्रन्थों की बहुलता के कारण हिन्दी साहित्य के विकास के इस काल को 'रीतिकाल' नाम दिया गया। इस काल के कवियों ने राजाओं से पुरस्कार पाने के उद्देश्य से अलंकारों के चमत्कार से पूर्ण अति श्रृंगार पूर्ण द्वारा गागर में सागर भरकर अपनी विद्वत्ता एवं आचार्यत्व को सिद्ध किया। श्रृंगार रस की प्रधानता के कारण इस काल को "श्रृंगार-काल" और कलापक्ष की प्रधानता के कारण "कलाकाल" भी कहा गया है। इस काव्य कला से भक्ति काल के लोक-हित का आदर्श इस काल में विलुप्त हो गया और उसके स्थान पर काव्य में सुख-श्रृंगार लिप्सा का प्रतिबिंब दृष्टिगोचर होने लगा। भक्तिकाल के आराध्य राधा-कृष्ण सामान्य नायिका और नायक के रूप में चित्रित किए गए। नायक और नायिका के श्रृंगारपूर्ण हाव-भाव, लौकिक वासना के रंग-बिरंगे चित्र, नवशिख वर्णन, नायक, नायिका के वियोग में विरह की विकलता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन, ऋतु-वर्णन, वियोग की स्थिति में प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण आदि की प्रमुखता इस काल में रही। भाषा का श्रृंगार जीवन में श्रृंगार- वृत्ति व वासना-विलास की भाँति ही हुआ। अतः कविता कला के बोझ से दब गई। इस काल की प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित हैं–
1. लक्षण ग्रंथी की प्रधानता।
2. कला पक्ष की प्रधानता।
3. लौकिक श्रृंगार व्यंजना।
4. प्रकृति का उद्दीपन के रूप में चित्रण।
5. ऋतु-वर्णन की अधिकता।
6. मुक्तक रचनाएँ।
7. नायिका के नखशिख वर्णन की अधिकता।
8. भाषा की दृष्टि से ब्रज भाषा का प्राधान्य।
9. श्रृंगार के अतिरिक्त भक्ति और वीर रस-परक रचनाएँ।
इस काल के प्रमुख कवियों में बिहारी, देव, घनानन्द, केशव दास, चितामणि, भिखारीदास, मतिराम, पद्माकर, भूषण, लाल, मान, आलम, बोधा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। घनानंद रीति भुक्त तथा बिहारी रीतिसिद्ध कवि हैं। इनके अतिरिक्त लगभग सभी कवि रीति-बद्ध हैं।
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