आधुनिक काल (सन् 1843 स अब तक) भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावादी युग, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता
सन् 1850 से भारत में राष्ट्रीय चेतना, स्वतन्त्रता की भावना की तहर दौड़ती हुई स्पष्ट दिखाई देती है जिनका पूरा वेग 1857 में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के रूप में दिखाई दिया। भारत में इस समय अंग्रेजी-सत्ता पूर्णतः स्थापित हो चुकी थी। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से पश्चिम के नवीन विचारों ने देश में नई चेतना फैलाई। विदेशी पूँजी से स्थापित नवीन उद्योग-धंधे, रेल, तार, डाक की नवीन व्यवस्था, मुद्रणकला के प्रचार द्वारा शिक्षा प्रसार का प्रभाव, भारत में पुनर्जागरण के रूप में सामने आया। नई-नई शिक्षण संस्थाओं द्वारा आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ। ईसाई मिशनरियों ने अपने धार्मिक प्रसार के लिए हिन्दी का प्रचार किया राष्ट्रीय चेतना स्वतन्त्रता की भावना, सामाजिकता के महत्व की भावना, आदि के रूप में देश में नूतन वैचारिक जागृति का नूतन आलोक आया जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। नव-चेतना के इस प्रभात में हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का उदय हुआ जिसके आरंभ का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चंद्र को प्राप्त हुआ।
हिन्दी साहित्य के इस आधुनिक काल की सबसे बड़ी घटना ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली का प्रयोग तथा खड़ी बोली गद्य का प्रारंभ है। आचार्य शुक्ल आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य के विकास को निम्नांकित अनुसार वर्गीकृत किया है -
1. भारतेंदु युग - सन् 1850 से 1900 ई.
2. द्विवेदी युग - सन् 1900 से 1920 ई.
3. छायावादी युग - सन् 1920 से 1936 ई.
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उसके बाद के युग को निम्न तीन विभागों में विभाजित किया है -
1. प्रगतिवादी युग
2. प्रयोग वादी युग
3. नई कविता का युग
1. भारतेंदु युग [प्रथम उत्थान]
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम उत्थान के युग का उदय भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा हुआ। भारतेंदु एवं उनके सहयोगी साहित्यकार हिन्दी काव्य में देश-प्रेंम, देशोद्धार, राष्ट्रीयता, भारतीय अतीत-गरिमा, हिन्दी-प्रेंम, आदि के रूप में नव जागरण के स्वर लेकर आए। उन्होंने ब्रजभाषा के साथ ही खड़ी बोली का भी काव्य में प्रयोग आरंभ किया। विदेशी शासन के प्रति असंतोष की अभिव्यक्ति, पराधीन जन-जीवन का चित्रण, अंग्रेजों और अंग्रेजियत के विरुद्ध जनता को चेतावनी आदि के रूप में हिन्दी काव्य के भाव-क्षेत्र में नया मोड़ आया। पहेलियाँ, मुकरियाँ, होली आदि लोक छंदों के साथ शैली के क्षेत्र में नवीनता का समावेश हुआ। किन्तु वास्तव में यह युग हिन्दी साहित्य में नवीन भाषा, नवीन विधाओं तथा नवीन भाव तथा विचारों का प्रयोग काल ही कहा जा सकता है।
द्विवेदी युग [द्वितीय उत्थान]
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के इस द्वितीय उत्थान में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी "सरस्वती" पत्रिका के संपादक के रूप में भाषा परिष्कार, वैचारिक नैतिकता के प्रयासों को लेकर क्षेत्र में आए। उनकी साहित्यिक देन एवं साहित्य सेवाओं के कारण साहित्य में विषय विविधता, तथा भावात्मक एवं वैचारिक उत्कर्ष आया। अत: उनके ही नाम पर इस युग का नामकरण द्विवेदी युग हुआ। इस युग में श्री द्विवेदी जी की प्रेरणा से नए-नए साहित्यकार सामने आए और काव्य के क्षेत्र में अनेक प्रबंध काव्यों की रचनाएँ हुई। नीतिपरक और शिक्षाप्रद काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया। खड़ी बोली को व्याकरणिक व्यवस्था तथा परिष्कार मिला और वह पूरी तरह काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हुई। इस युग के कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध", सियाराम शरण गुप्त, गोपालशरण सिंह, सत्यनारायण "कविरत्न" गयाप्रसाद शुक्ल, 'स्नेही', रामनरेश त्रिपाठी, जगन्नाथ दास, "रत्नाकर" तथा श्रीधर पाठक प्रसिद्ध हैं। प्रसिद्ध काव्य रचनाओं में भारत-भारती, साकेत, यशोधरा, पंचवटी एवं प्रिय प्रवास उल्लेखनीय हैं। प्रिय प्रवास में "हरिऔध" ने संस्कृत के अतुकांत वर्णिक छंदों तथा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का अभिनव प्रयोग किया है।
छायावादी युग [तृतीय उत्थान]
सन् 1920 के लगभग हिन्दी काव्य में भाषा, भाव, विचार, शैली आदि सभी से नवीनता की प्रवृत्ति दिखाई देती है। हिन्दी में यह प्रवृत्ति वस्तुतः द्विवेदी कालीन कविता की अति नैतिकता एवं इतिवृत्तात्मकता को प्रतिक्रिया में तथा अंग्रेजी की रोमांसवादी कविता के प्रभाव के फलस्वरूप आई द्विवेदी युग को नीरस उपदेशात्मकता स्थूल वर्णन तथा आदर्शवादी काव्य के स्थान पर हिन्दी में कवियों सूक्ष्म मनोभावों के चित्रण को स्थान दिया। प्रतीकों के माध्यम अपनी कामनाओं की अभिव्यक्ति की प्रतीक शैली के कारण अर्थ कुछ अस्पष्टता आई। अतः लोगों इसे "छायावाद" नाम दिया। इस काल काव्य में भाषा की दृष्टि से लाक्षणिक प्रयोगों को प्रधानता होने के कारण आचार्य शुक्ल ने छायावाद को लाक्षणिक प्रयोगों की शैली मात्र माना है। स्थूल वर्णन के स्थान पर सूक्ष्म मनोभावों के चित्रण की प्रवृत्ति के कारण डॉ. नगेन्द्र छायावाद को स्कूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते है। द्विवेदी युग में नैतिकता एवं सामाजिक प्रतिबंधों के कारण अपनी अनभिव्यक्त अतृप्त वासनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति प्रतीक शैली के माध्यम से की। अतः छायावादी काव्य में आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति आई। इसीलिए प्रसाद जी ने छायावाद के विषय में जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया है। छायावादी कविता में प्रकृति से प्रतीक लेकर नए प्रयोग किए गए। नूतन छंद-विधान को स्थान दिया गया। भाषा में भी लाक्षणिकता की प्रधानता आई। कवियों द्वारा अबाधित रूप से स्वानुभूति की अभिव्यक्ति की गई। अतः कुछ लोग इसे पाश्चात्य स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का ही रूप मानते हैं, किंतु वास्तव में हिन्दी में छायावाद पाश्चात्य स्वच्छंदतावाद का पर्याय नहीं कहा जा सकता। यद्यपि हिन्दी छायावादी काव्य में व्यक्ति की वैयक्तिक स्वतंत्रता, बंधनों के प्रति विद्रोह, रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास, सौन्दर्य प्रेंम, स्वानुभूतियों का उन्मुक्त प्रकाशन आदि प्रवृत्तियाँ पश्चिमी स्वच्छंदतावाद के समान ही अवश्य है किन्तु इसमें भारतीय अध्यात्मवादी, रहस्यवादी तथा मानवतावादी प्रवृत्ति भी समाहित होने के कारण इसे स्वच्छंदतावाद का पर्याय कहा जाना समीचीन नहीं। हिन्दी में छायावादी काव्य प्राकृतिक सौंदर्य से पूर्णतः अनुप्रभावित है। इसमें रहस्यवादी कविताओं का प्रणयन भी हुआ और राष्ट्रीय भावनापूर्ण रचनाओं की सृष्टि भी हुई। वस्तुतः छायावाद को भारतीय नव जागरण की ऐसी काव्यात्मक परिणति कहा जा सकता है, जिसमें मानवतावादी, राष्ट्रीयतावादी, अध्यात्मवादी, रहस्यवादी, सौन्दर्यवादी विभिन्न प्रवृत्तियों की एक साथ समन्विति है।
डॉ. रामकुमार वर्मा ने छायावाद के विषय में "आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास ही रहस्यवाद है और यही छायावाद है" कहा है, किन्तु सभी रहस्यवादी कविताएँ छायावादी नहीं और न सभी छायावादी कविताएँ रहस्यवादी ही हैं। भारती- साहित्य में वेदों में "कस्मैदेवाय हविषा विधेम" में रहस्यवाद की स्थिति है। हिन्दी काव्य में छायावादी प्रकृति के जन्म के बहुत पहले कबीर, जायसी, मीरा आदि में रहस्य- परमात्मा के संबंध में जिज्ञासा या ज्ञान, परमात्मा से मिलन हेतु विरहानुभूति ये बाद अपनी पूर्ण गरिमा के साथ विद्यमान है। काव्य में जहाँ भी जीव या आत्मा द्वारा परमात्मा से मिलकर एकाकार होने की स्थिति की अभिव्यक्ति हुई वहाँ रहस्यवाद है, पर इस प्रकार के सभी काव्य को छायावादी काव्य नहीं कहा जा सकता। आधुनिक काल की कविता में रहस्यवाद छायावादी काव्य का एक अंग भर है। यद्यपि छायावादी कवि में प्रसाद के "आंसू" महादेवी के गीतों, निराला और पंत आदि की बहुत-सी रचनाओं में रहस्यवाद है, किन्तु इनकी सभी रचनाएँ रहस्यवादी नहीं। आचार्य शुक्ल ने रहस्यवाद के विषय में "चिंतन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है वही भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद है" कहा है। अद्वैतवाद में केवल ब्रम्ह सत्य है, जगत् मिथ्या है। वहाँ दो की स्थितियों में दो की स्थिति अनिवार्य है। मिलन की स्थिति में आत्मा-परमात्मा का एकाकार होने के कारण रहस्यवाद की अंतिम स्थिति में अद्वैतवाद है। वस्तुतः भारतीय काव्य में जहाँ निर्गुण भक्ति में माधुर्य भाव का समावेश होता है, उसे रहस्यवाद कहना अधिक समीचीन होगा। रहस्यवाद का निश्चय ही छायावाद से अपना पृथक अस्तित्व है। आधुनिक काल में रहस्यवादी काव्य की रचनाएँ छायावादी कविताओं के अन्तर्गत होते के कारण, शुक्ल जी ने इस काल को "छायावादी" नाम दिया है और रहस्यवादी को इसी का एक हिस्सा माना है।
छायावादी काव्य के प्रमुख कवि प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी है। आचार्य शुक्ल ने छायावाद का प्रवर्तक मैथिलीशरण गुप्त एवं मुकुटधर पाण्डेय को माना है। इलाचंद्र जोशी के अनुसार प्रसाद जी छायावाद के जनक हैं। नंददुलारे वाजपेयी को छायावादी काव्य का जन्मदाता मानते हैं। वस्तुतः प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी चारों छायावाद के स्तंभ हैं। इनमें अपनी अलग विशेषताएँ हैं। प्रसाद के काव्य में रहस्यवादी, स्वच्छंदतावादी स्वरों के साथ दार्शनिकता, सौंदर्यबोध और सूक्ष्मांकन की प्रवृत्ति है। पंत की रचनाओं में प्रकृति प्रेंम को प्रमुखता है, यद्यपि उनके परवर्ती काव्य में मार्क्सवाद तथा बाद में अरविन्द दर्शन की भाव-भूमि की स्थिति है। निराला में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, व्यंग्य के तीखेपन के साथ सारे बंधनों को तोड़कर उन्मुक्त प्रवाह की प्रवृत्ति मिलती है। महादेवी का का रहस्यवादी पावनता, उत्कर्ष एवं गरिमा से युक्त है। उनके काव्य में आत्मसमर्पण की भावना है। दुख एवं वेदना-भाव उनके काव्य की आत्मा है।
उपर्युक्त कवियों के अतिरिक्त छायावादी कवियों में रामकुमार वर्मा भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। छायावादी काव्य कृतियों के प्रसाद की कामायनी, आँसू। निराला की परिमल, गीतिका और अनामिका। पंत की वीणा तथा पल्लव आदि हैं। महादेवी की निहारिका, रश्मि व नीरजा, सांध्यगीत तथा दीपशिखा प्रमुख हैं।
प्रगतिवाद
सन् 1930 के कांग्रेस के आंदोलन के साथ ही भारत में समाजवादी विचार- धारा का सूत्रपात हुआ। छायावाद की वायवीयता, मांसल सौंदर्य, सूक्ष्मता तथा वैयक्तिकता की प्रतिक्रिया में हिन्दी काव्य में एक नई धारा ने जन्म लिया। वैयक्तिकता और आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति के स्थान पर समाजोन्मयता की प्रवृत्ति का नया मोड़ आया । मार्क्सवादी विचारधाराओं के प्रचारस्वरूप शोषण तथा आर्थिक विषमता के प्रति असंतोष, विद्रोह व क्रांति के आव्हान के स्वरों को काव्य में स्थान मिला। सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। हिन्दी काव्य में समाजवादी विचारधारा पर बाधारित कविताएँ लिखी जाने लगी। राजनीति की यही समाजवादी, मार्क्सवादी विचारधारा साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद के नाम से पुकारी गई। प्रगतिवादी काव्य में शोषण के प्रति आक्रोश, वैषम्यपूर्ण आर्थिक व्यवस्था के आमूल परिवर्तन के लिए क्रांति के आव्हान के स्वर, पूंजीवाद के विरुद्ध गहन असंतोष तथा हुंकार एवं संघर्ष का आग्रह है। प्रगतिवादी कवि दलित, शोषित, एवं दोनों को दयनीय स्थिति यथार्थ चित्रण द्वारा समाज की सहानुभूति उनके प्रति खींचकर क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करना चाहता है। इस प्रकार प्रगतिवादी कविता में प्रेरणा स्रोत के रूप में वह दीन वर्ग की यथार्थ दयनीयता का कहीं चित्रण करता है, कहीं उसके माध्यम से व्यंग्य की तीखी मार करता है। प्रगतिवादी कविता मजदूरों, किसानों, दलितों, शोषितों तथा दीन-दुखियों को अपनी सहानुभूति उड़ेलती उनके शुभ के लिए क्रांति का आव्हान करती है। प्रगतिवादी काव्य में यथार्थवादी चित्रण, भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता की प्रधानता है। रूढ़ियों एक बंधनों का विरोध एवं उनके उन्मूलन का प्रयास किया गया है। क्रांति के आव्हान के स्वर, पूँजीवादी व्यवस्था का विद्रोह, शोषकों के प्रति आक्रोश तथा शोषितों के प्रति सहानुभूति दर्शाई गई है। भाषा की दृष्टि से सहजता और सुबोधतापूर्ण जन-भाषा के प्रयोग पर बल है।
प्रगतिवादी कवियों में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत, माखनलाल चतुर्वेदी, नागार्जुन, डॉ. रामबिलास शर्मा, डॉ. रांगेय राघव, डॉ. शिवमंगलसिंह 'सुमन' सुभद्रा कुमारी चौहान तथा मुक्तिबोध प्रमुख हैं।
प्रगतिवादी काव्य धारा के समानांतर ही हिन्दी में राष्ट्रीय काव्य धारा भी प्रवाहित होती रही। कहीं यह बुंदेले हरबोलों के मुख से सुनी जाकर सुभद्राकुमारी चौहान की लेखनी से निस्तृत "झांसी की रानी" में उभरी, कही "एक भारतीय आत्मा" द्वारा कोयल से "प्रलय के गान" गाने के आग्रह में झलकी, कहीं किसी 'सुमन' की "एक फूल की चाह" के रूप में प्रकट हुई, कहीं नवीन के "भारतवर्ष हमारा है, यह हिंदुस्तान हमारा है" में उद्घोषित हुई।
इसी समय हिन्दी काव्य सागर में हालावाद के नाम से एक तरंग उठी। हालावाद का कवि भविष्य की चिंता भुलाकर वर्तमान को सत्य मानता है। वह परलोक की परवाह न कर इस लोक के आनंद सागर में डूब जाना चाहता है। उसके लिए इस पार तो उसकी "तुम" और "मधु" है। "उस पार न जाने क्या होगा।" उसकी दृष्टि में "हाला" मात्र प्रेंम है, प्रेंम मात्र ध्येय है। हालाबादी की इस तरंग के प्रणेता हरिवंशराय "बच्चन" रहे जिनकी "मधु कलश" "निशा निमंत्रण" तथा "मधुशाला" रचनाएँ प्रतिनिधि रचनाएँ हैं।
प्रयोगवाद
सन् 1913 में अज्ञेय द्वारा संपादित "तार सप्तक" में प्रकाशित रचनाओं के द्वारा हिन्दी कविता के क्षेत्र में एक नई प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। इस प्रवृत्ति को प्रयोगवाद नाम दिया गया। प्रगतिवाद की सामाजिकता के विरुद्ध प्रयोगवादी कवि जनजीवन के प्रवाह से कट कर नदी के द्वीप की भाँति अपनी वैयक्तिकता में सीमित रहता है। छायावादी कवि की भाँति प्रयोगवादी कवि भी समाज से अलग, अछूता और अचेत पूरी तरह से आत्मोन्मुख रहता है। वस्तुतः यह पलायन है जो प्रयोगवादी की विशेषता है प्रयोगवादी कवि अस्पष्ट और दुरूहतापूर्ण अभिव्यक्ति को नूतन प्रयोग का नाम देकर "शैली विद्रोह" का गौरव अनुभव करता है। छायावादी कवियों द्वारा समाज की प्रतिबंधित अतृप्त वासनाओं को, प्रतीकों के माध्यम से शालीन अभिव्यक्ति दी गई। प्रयोगवादी इस आवरण को उच्छेद कर अवदमित यौनाकांक्षाओं को स्वच्छंद एवं खुली अभिव्यक्ति देता है। प्रयोगवादी कविता में प्रयोग के नाम पर भाव विचार, छंद-विधान, प्रतीक-विधान, अलंकार-प्रयोग आदि सभी में परिवर्तन एवं नूतनता को प्रवृत्ति पाई जाती है। भावुकता के स्थान पर अतिबौद्धिकता के साथ मध्यवर्गीय जीवन की निराशा, कुण्ठा, मानसिक संघर्ष तथा जड़ता की अभिव्यक्ति प्रयोगवादी कविता में परिलक्षित हुई। प्रयोगवादी कवियों में शमशेर बहादुरसिंह, नरेश मेहता, अज्ञेय, नेमीचंद जैन, डॉ. रामविलास शर्मा, गजानन माधव "मुक्तिबोध" गिरिजा कुमार माथुर, डॉ. धर्मवीर भारती आदि प्रमुख हैं।
नई कविता
भारतीय स्वतन्त्रता के पश्चात लिखी गई कविताओं में कुछ और नयापन परिलक्षित होता है। नूतन शिल्पविधान, नया भाव बोध तथा नई प्रभाव सामर्थ्य लेकर जो कविता का रूप सामने आया वह पूर्ववर्ती प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद की समन्वित विकासान्वित होते हुए भी अपने नए रूप तथा नए परिवेश के कारण अपने में विशिष्ट है। इसी नूतनता के कारण इसे नई कविता नाम दिया गया। नई कविता सामान्य मनुष्य की एक क्षण की अनुभूतियों को सशक्त करने की अभिव्यक्ति देती है। वह उसकी उपेक्षित समूची संवेदनाओं और मानसिकता की प्रतिष्ठा करती है। इसमें अनुभूति की सच्चाई और यथार्थवादी दृष्टिकोण का समन्वय है। नई कविता जीवन के प्रत्येक क्षण को सत्य मानती है। इसमें नगर तथा ग्राम दोनों परिवेशों की जीवनानुभूतियों की नूतन विदात्मकता, नूतन प्रतीक योजना, नए उपमान, तथा प्रभावी खुलेपन एवं ताजगी से युक्त भाषा में अभिव्यक्त हुई है। नई कविता के कवियों में गिरिजा कुमार माथुर, डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. प्रभाकर माचवे, भवानी प्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शंभूनाथ सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, ठाकुरप्रसाद सिंह आदि हैं। इधर लयात्मकता और संगीतात्मकता के आग्रही कवियों ने नए बिंब, नए प्रतीक विधान, नए छंद विधान और नूतन सौंदर्य बोध से युक्त नए गीतों की रचनाएँ की। इन गीतों को नव गीत नाम दिया गया। बिंब की सशक्तता इन नव गीतों की अपनी विशेषता है।
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