संवेग कौन कौन से हैं? संवेगात्मक विकास और इसे विकास को प्रभावित करने वाले कारक || Emotional Development and Factors Affecting Emotional Development
संवेगात्मक विकास (Emotional Development) — संवेग शब्द अंग्रेजी शब्द imotion का पर्यायवाची है। इसका लैटिन रूप Imovior है, जिसका अर्थ है उत्तेजित करना या हिला देना। संवेगात्मक विकास मानव जीवन के विकास तथा उन्नति हेतु अपना विशेष महत्व रखते हैं। यह विकास मानव जीवन को प्रभावित करता है। जब भी संवेग की स्थिति आती है, व्यक्ति में बैचेनी आ जाती है। वह कुछ असामान्य व्यवहार प्रकट कर सकता है, हृदय की धड़कने बढ़ जाती है, आँखों से आँसू बह भी सकते हैं, चेहरे पर मुलीनता आ सकती है या चेहरा लाल तमतमा उठता है। अचेतन में व्याप्त अनेक सुप्त व्यवहार जागृत हो जाते हैं।
संवेग के संदर्भ में बोरिंग सैम लैगफील्ड एवं फील्ड ने कहा है कि "संवेग प्रभावशाली अनुक्रिया के समान होता है। यह शरीर की सामान्य एवं शारीरिक प्रतिक्रियाओं के रूप में व्यक्त होता है।"
प्रमुख संवेग— मानव शरीर में उत्पन्न होने वाले प्रमुख संवेगों के बारे जानकारी प्राप्त करने हेतु हम संवेगों को प्रमुख दो श्रेणियों में बाॅंटते हैं—
(i) सकारात्मक या वांछनीय संवेग— सकारात्मक या वांछनीय संवेगों के अन्तर्गत हर्ष, प्रेंम, उत्सुकता दया, करुणा, वात्सल्य, हास्य इत्यादि सकारात्मक या वांछनीय संवेगों की श्रेणी में आते हैं। सकारात्मक संवेगों का शरीर पर सही प्रभाव पड़ता है और ये विभिन्न विकास की अवस्थाओं में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करते हैं।
(ii) नकारात्मक या अवांछनीय संवेग— नकारात्मक या अवांछनीय संवेगों के अन्तर्गत ईर्ष्या, भय, क्रोध, घृणा इत्यादि अवांछनीय या नकारात्मक संवेग कहलाते हैं। अवांछनीय संवेगों का बालक के शारीरिक मानसिक विकास के अलावा अन्य विकासों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
संवेगों का महत्व– सवेगों का मानव. जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। धनात्मक अर्थात सकारात्मक संवेग व्यक्ति के व्यवहार को परिपूर्ण बनाते हैं। संवेग की स्थिति में व्यक्ति की विचार प्रक्रिया में शिथिलता आ जाती है। संवेग मूल प्रवृत्तियों से सम्बंधित होते हैं। उचित शिक्षा-दीक्षा के द्वारा संवेगों का परिमार्जन किया जा सकता है।
विभिन्न अवस्थाओं में संवेगों की स्थिति— संवेग हर प्राणी में पाये जाते हैं जो उसके प्रति होने वाले व्यवहार या स्थितियों के कारण उत्पन्न होते हैं। शैशवास्था में संवेगात्मक व्यवहार प्राय: अस्थिर होता है। प्राय: यह देखा जाता है कि शिशु छोड़ी ही देर में हँसने थोड़ी ही देर में रोने लगता है। जबकि बाल्यावस्था में संवेगों के प्रति स्थिरता की ओर अग्रसर होने लगता है काफी हद तक संवेगों पर नियंत्रण भी करता है। बाल जीवन के प्रमुख संवेग– हर्ष, प्रेंम, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध, उत्सुकता आदि हैं। किशोरावस्थ में प्राय: किशोरों की संवेगात्मक स्थिति अधिक उग्र होती है किंतु उन पर नियंत्रण भी कर सकते हैं। जब किशोर प्रौढ़ावस्था में पहुॅंचता है तो वह संवेगात्मक रूप से स्थिरता को प्राप्त कर लेता है। किंतु वृद्धावस्था में पुन: संवेगात्मक रूप से व्यक्ति अस्थिर होने लगता है।
संवेगों की दशाएँ— संवेगों को दो दशाएं होती हैं— (1) आंतरिक दशा (2) बाह्य दशा।
(1) बाह्य शारीरिक परिवर्तन— जब व्यक्ति में सवेगों के कारण बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तित होता है तो वे बाह्य शारीरिक परिवर्तन के अन्तर्गत गिने जाते हैं। इन परिवर्तनों के अन्तर्गत चेहरे की मुद्रा का बदलना, हास्य स्थिति, रुदन, प्रेंम उमड़ता आदि के भाव उभर आते हैं। इसके अलावा स्वर में परिवर्तन, शरीर के आसनों में परिवर्तन जैसे- हाथ पैर फेंकना, हाथ झाड़ना होने लगते हैं। इस तरह संवेगों की दशायें व्यक्ति की शारीरिक प्रकृति पर निर्भर करते हैं।
(2) आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन— संवेगों की स्थिति में जब व्यक्ति में आंतरिक परिवर्तन होते हैं तब आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों के रूप में गिने जाते हैं। इन परिवर्तनों के अन्तर्गत श्वास, नाड़ी, हृदय तथा रक्त की गति में परिवर्तन हो जाता है। रक्त की रासायनिक क्रिया बदल जाती है। पाचन किया गड़बड़ा जाती है। ग्रंथियों तथा त्वचा की प्रतिक्रिया बदल जाती है।
संवेगों का प्रभाव— संवेग मानव जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण होते हैं। यदि संवेगों का विकास संतुलित रूप से नहीं होता है तो व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विघटित हो जाता है। अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। संवेगों से ही व्यक्ति में निर्माण तथा ध्वंस की भावनाएँ उत्पन्न हो जाती है। किशोर किशोरियाॅं अपनी प्रकृति के प्रति चैतन्य रहते हैं। इसके लिए वे समय पर क्रोध, ईर्ष्या तथा प्रतिस्पर्धा और उच्च संवेगों का खुलकर प्रयोग करते हैं।
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक— व्यक्ति के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले निम्न लिखित कारक हैं—
(1) थकान - व्यक्ति की थकान संवेगात्मकता को प्रभावित करने कला एक तत्व है। अधिक थकान बालक के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। जब बालक थका हुआ होता है, तब उसमें क्रोध या चिड़चिड़ापन के जैसा अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है।
(2) स्वास्थ्य— बालक के स्वास्थ्य की दशा का उसकी संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं से घनिष्ठ सम्बंध होता है। अच्छे स्वास्थ्य वाले बालकों की अपेक्षा बहुत बीमार रहने वाले बालकों के संवेगात्मक व्यवहार में अधिक अस्थिरता रहती है।
(3) मानसिक योग्यता— अधिक मानसिक योग्यता वाले बालकों का संवेगात्मक विकास अधिक विस्तृत होता है। वे भविष्य के सुखों और दुखों, भयों और आपत्तियों को अनुभव कर सकते हैं। साधारणतया निम्नतर मानसिक स्तरों, के बालकों में उसी आयु के प्रतिभाशाली के बालकों की अपेक्षा संवेगात्मक नियंत्रण कम होता है।
(4) अभिलाषा— माता-पिता को अपने बालक से बड़ी आशायें होती हैं स्वयं बालक में कोई-न-कोई अभिलाषा होती है। यदि उनकी अभिलाषा पूर्ण नहीं होती है, तो वह निराशा के सागर में डुबकियाँ लगाने लगता है। साथ ही उसे अपने माता-पिता की कटु आलोचना सुननी पड़ती है। ऐसी स्थिति में उसमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है। कोई भी बात जो बालक उसके के आत्मविश्वास को कम करती है, उसके द्वारा समझे जाने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसकी चिन्तित और भयभीत रहने की प्रवृत्ती प्रवृत्ति में वृद्धि कर सकती है।
(5) परिवार— बालक का परिवार उसके संवेगात्मक विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है—
(i) यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेगात्मक होते हैं, तो बालक भी उसी प्रकार का होता जाता है।
(ii) यदि परिवार में शांति, सुरक्षा और आनन्द कारण उत्तेजना उत्पन्न नहीं करती है, तो बालक के संवेगात्मक विकास का रूप संतुलित होता है।
(iii) यदि परिवार में लड़ाई-झगड़े होना, मिलने-जुलने वालों का बहुत आना और मनोरंजन का कार्यक्रम बनते रहना इस प्रकार की साधारण घटनाओं से भी बालक के संवेगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है।
(6) माता-पिता का दृष्टिकोण— बालक के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है। बच्चों की उपेक्षा करना, बहुत समय तक घर से बाहर रहना, बच्चों के बारे में आवश्यकता से अधिक चिन्तित रहना, बच्चों को अपनी इच्छानुसार कोई भी कार्य करने की आज्ञा न देना और बच्चों को घर के सभी सदस्यों के प्रेंम का पात्र होना, माता-पिता की ये सभी बातें बच्चों में अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार को बढ़ाती हैं।
(7) सामाजिक स्थिति— बालकों की सामाजिक स्थिति उसके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। सामाजिक स्थिति और संवेगात्मक स्थिरता में धनिष्ठ सम्बंध होता है। निम्न सामाजिक स्थिति के बालकों में उच्च सामाजिक स्थिति के बालकों की अपेक्षा असंतुलन और अधिक संवेगात्मक अस्थिरता होती है।
(8) सामाजिक स्वीकृति— यदि बालक को अपने किसी कार्य को करने हेतु सामाजिक रूप से स्वीकृति नहीं मिल पाती तो उसका संवेगात्मक स्तर शिथिल या उग्र हो जाता है।
(9) निर्धनता— निर्धनता बालक के अनेक अशोभनीय संवेगों को स्थायी और शक्तिशाली रूप प्रदान कर देती है। बालक विद्यालय में धनवान बालकों की वेशभूषा को देखता है, उसके आनंद पूर्व जीवन की कहानियाँ सुनता है तो उसमें ईर्ष्या व द्वेष के भाव उभर आते हैं।
(10) विद्यालय— विद्यालय का बालक के संवेगात्मक विकास पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। यदि विद्यालय में कार्यक्रम उसके संवेगों के अनुरूप होते हैं तो उसे उनमें आनन्द का अनुभव होता है। इसके विपरीत, यदि उसे विद्यालय के कार्यक्रमों में असफल होने या अपने दोषों के प्रकटीकरण का भय होता है, उसमें घृणा, क्रोध और चिड़चिड़ापन का स्थायी निवास हो जाता है।
(11) शिक्षक— शिक्षक का बालक के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। शिक्षक बालक में अच्छी आदतों का निर्माण करके और अच्छे आदर्शों का अनुशरण करने की इच्छा उत्पन्न करके, अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने की क्षमता का विकास करा सकते हैं।
(12) वंशानुक्रम— वंशानुक्रम का प्रभाव निश्चित ही संवेगों पर पड़ता है। यदि माता-पिता संवेगात्मक रूप से सक्षम हैं तो उनके बालक भी संवेगों के नियंत्रण में सक्षम होते हैं इसके विपरित संवेगात्मक रूप से अन्दर माता-पिता की संतानें अस्थिर मनःस्थिति की होती हैं।
(13) अन्य कारक— बालक के संवेगात्मक विकास पर अवांछनीय प्रभाव वालने वाले कुछ कारक भी महत्वपूर्ण हैं— जैसे अत्यधिक कार्य, कार्य में अनावश्यक बाधा, अपमानजनक व्यवहार इत्यादि जो कि संवेगात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं।
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