अंकगणित क्या है? इसका इतिहास | कैसे विकसित हुई संख्यांकन पद्धतियाँ | History of Arithmetic
अपने दैनिक जीवन में, हम विभिन्न परिस्थितियों तथा अवसरों पर संख्याओं का प्रयोग करते हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संख्याओं का प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, पावनी प्रातः 6 बजे सोकर उठती है, उसके स्कूल की बस का नं० 23 है, वह छटवीं कक्षा में पढ़ती है, उसका वार्षिक शिक्षण शुल्क 1524 रु० है, उसके पास 12 कापियाँ हैं, इत्यादि, सभी संख्याओं के प्रयोग के उदाहरण हैं। वास्तव में ये सभी गिनने अर्थात् गणना करने (counting) के उदाहरण हैं। प्राचीन काल में मनुष्य को गणना करने का कोई ज्ञान नहीं था, परंतु उसे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति जैसे पशु, पेड-पौधे इत्यादि का विवरण रखना पड़ता था। इसके लिए उसे किसी लकड़ी पर लगाए गए कटावदार चिह्नों या किसी रस्सी पर लगाई गई गाँठों इत्यादि जैसे चिह्नों पर आश्रित रहना पड़ता था। एक प्रकार से वह अपनी संपत्ति की वस्तुओं तथा इन चिह्नों में एक-एक संगतता (one-to-one correspondence) स्थापित किया करता था जिससे उसके पास उनकी गणना का विवरण रहता था।
कुछ समय के बाद, इन विवरणों को पहले की अपेक्षा अच्छी प्रकार से रखने की आवश्यकता अनुभव की गई और इससे संख्याओं की खोज प्रारंभ हुई। इस प्रकार विभिन्न सभ्यताओं ने अपनी-अपनी संख्या पद्धतियों (systems) या निकायों का विकास किया जिन्हें हम संख्यांकन (numeration) कहते हैं।
मिस्त्र की संख्यांकन पद्धति को वहाँ की कब्रों और स्मारकों में की गई नक्काशी में देखा जा सकता है। यह लगभग 5000 वर्ष पुरानी है। इसमें एक ऐसी दशमलव पद्धति का प्रयोग किया गया है जो रोमन पद्धति के प्रकार की है। इसमें 10 की विभिन्न घातों के लिए अलग-अलग संकेत प्रयोग किए जाते हैं। 10 को एड़ी की हड्डी जैसे संकेत (उल्टा U), 100 को एक घुमावदार संकेत (scroll) ? से व्यक्त किया जाता है, इत्यादि।
रोमन पद्धति में, बड़ी संख्याओं के लिए विशेष संकेतों का प्रयोग किया जाता है परंतु उनमें स्थानीय मान (place value) की धारणा का कोई प्रयोग नहीं होता। 1 के लिए I, 5 के लिए V, 10 के लिए X, 50 के लिए L., 100 के लिए C, 500 के लिए D और 1000 के लिए M का प्रयोग किया जाता है। किसी बड़े संकेत के बाईं ओर लगा हुआ छोटा संकेत व्यव कलन (subtraction) प्रर्दाशत करता है तथा उसके दाई ओर लगा संकेत योग (addition) प्रदर्शित करता है। यह प्रणाली भी लोकप्रिय न हो सकी क्योंकि यह परिकलन करने में असुविधाजनक रही।
300 ईसा पूर्व (ई० पू०) तक भारतवासियों ने कुछ संख्यांक (numerals) खोज लिए थे जिन्हें ब्रहम संख्याएँ कहते थे । परंतु इनमें भी स्थानीय मान (place value) का प्रयोग नहीं किया गया तथा इनमें शून्य के लिए भी कोई संख्यांक नहीं था। केवल भारतीय पुस्तकों में ही इन संख्यांकों का इतना पुराना विवरण मिलता है।
हिन्दू खगोलशास्त्री आर्यभट्ट के एक शिष्य भास्कर ने ईसा के लगभग 500 वर्ष बाद (500 ई०) स्थानीय मान वाली एक पद्धति का प्रयोग किया जिसमें शून्य के लिए भी एक संकेत था । इसमें इकाई का स्थान (unit's place) बाईं ओर था जब कि आजकल यह दाईं ओर होता है। इसमें शीघ्र ही परिवर्तन किया गया और धीरे-धीरे यह वर्तमान हिन्दू-अरेबिक संख्यांकन पद्धति (Hindu Arabic system of numeration) के रूप में विकसित हुई जो कि सर्वाधिक वैज्ञानिक तथा पढ़ने-लिखने में सुविधाजनक हैं और अंतर्राष्ट्रीय रूप में मान्य है एवं प्रयोग में लाई जाती है।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है हिन्दू-अरेबिक सख्यांकन पद्धति भारत में विकसित की गई। अरबों ने इसे अपना लिया और इसके संख्यांकों में कुछ संशोधन किए । यूरोपवासियों ने संशोधित रूप में इन संख्यांकों को अरबों से प्राप्त किया।
इस पद्धति में दस संकेतों 0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8 और 9 का प्रयोग किया जाता है जिन्हें अंक (digits) कहते है। इन दस संकेतों की सहायता से स्थानीय मान के सिद्धांत का प्रयोग करते हुए, किसी भी संख्या को लिखा जा सकता है चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों न हो। इस पद्धति की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं जो इसे अन्य सभी पद्धतियों से श्रेष्ठ बनाती हैं।
सर्वप्रथम इस पद्धति में किसी राशि की अनुपस्थिति को व्यक्त करने के लिए शून्य के संकेत को सम्मिलित किया गया जिसके कारण स्थानीय मान के सिद्धांत का प्रयोग संभव हो सका। दूसरे इसमें चार आधारभूत संक्रियाओं (operations) के करने के लिए सरल नियम विकसित हो जाते हैं। क्योंकि इस पद्धति में दस संकेतों का प्रयोग होता है और किन्हीं भी बड़ी संख्याओं के संख्यांक लिखने में दस-दस के समूहों का प्रयोग किया जाता है, इसलिए यह आधार-10 वाली या दशमलव संख्यांकन पद्धति (decimal system of numeration) कहलाती है।
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