पाठ 18 परमानंद माधवम् | कक्षा 6 हिन्दी प्रमुख गद्यांशों की संदर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या | सम्पूर्ण अभ्यास (प्रश्नोत्तर व व्याकरण)
केन्द्रीय भाव— सेवा मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। विश्व के सभी धर्म सेवा कार्य और सेवा करने की भावना को महत्व देते हैं। महापुरुषों का जीवन सेवा कार्य का जीता-जागता उदाहरण है। विवेकानन्द, महात्मा गांधी, बाबा साहब आमटे, मदर टेरेसा आदि सभी ने सेवा कार्य को प्रमुखता दी है। महापुरुषों के जीवन से प्रेरित होकर समाज के कई व्यक्तियों के सेवा भाव से सेवा कार्य में अपने को समर्पित किया है। इनमें से एक थे - सदाशिवराव गोविन्द कात्रे। स्वयं कुष्ठ रोगी होते हुए भी उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्षों का सामना करते हुए कुष्ठ रोगियों की सेवा की और उनकी चिकित्सा के लिए आश्रम को स्थापना भी की। उनके समर्पणशील, सेवाभावी स्वभाव से अनेक लोगों ने सेवा कार्य की प्रेरणा ली। प्रस्तुत पाठ में उनके सेवा कार्यों का उल्लेख किया गया है। —भागीरथ कुमरावत
संपूर्ण पाठ परिचय
जर्जर छोटी सी कुटिया। उसमें एक पुरानी लगभग टूटी हुई सी खटिया। उस पर एक 70 वर्षीय व्यक्ति लेटा है। उसके हाथ-पाँव की अंगुलियाँ टेढ़ी- मेढ़ी, आधी गली, अशक्त किन्तु चेहरे एवं आँखों में परम संतोष स्पष्ट झलक रहा था मानो वह चुनौतियों को ललकार रहा हो।
ठंड हो चाहे बरसात या भीषण गर्मी । स्वयं पीड़ा भोगते हुए, भोजन के अभाव में भी मधुर मुस्कान लिए अपनी कर्म साधना में रत् रहने वाला व्यक्ति कोई और नहीं सदाशिवराव गोविन्द कात्रे था जो अपने उपहास के बीच भी इस प्रकार की सेवा भावना के स्वभाव के कारण परमानन्द माधवम् कहलाया।
सदाशिवराव गोविन्द कात्रे का जन्म 23 नवम्बर सन् 1909 को गुना (म.प्र.) जिले के आरौन ग्राम में हुआ था। उनके पिता गोविन्द कात्रे एवं माता राधाबाई थी। सदाशिवराव के पूर्वज वेदपाठी ब्राह्मण थे। परिवार में पौराणिक कथाओं के श्रवण करने से सदाशिवराव के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। अल्पायु में ही उन्होंने बहुत कष्ट उठाए, जब वे आठ वर्ष के थे तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया।
सदाशिवराव की प्रारम्भिक शिक्षा झाँसी में उनके काका के यहाँ हुई। शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने रेल्वे में नौकरी कर ली तथा 1930 में उनका विवाह हो गया। दो वर्ष बाद उन्हें कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। इसी बीच प्रकृति ने उनके साथ क्रूर उपहास किया। उन्हें कुष्ठ रोग ने आ घेरा लेकिन उन्होंने किसी को कुछ नहीं बताया। चुपचाप उपचार चलता रहा पर रोग छिप न सका। हाथ पैर गलना प्रारम्भ हो गए। घावों से द्रव बहने लगा। जब आत्मीय लोगों को पताचला तो वे भी दूर रहने लगे। सभी उनसे घृणा करने लगे। परिवार में भी उनके खान-पान और रहने की व्यवस्था पृथक से कर दी गई। उनकी स्थिति घर में ही अछूत जैसी हो गई।
रोग के प्रति अज्ञानता, रोग से रिसने वाला द्रव और भिनभिनाती मक्खियां ही रोगी के प्रति घृणा पैदा करती हैं। जिन परिस्थितियों में रोगी को अधिक ढाढस, अपनापन और स्नेह की आवश्यकता होती है, उन परिस्थितियों में निरन्तर घृणा और दुराव जीवन में नेराश्य का भाव पैदा करता है लेकिन इन सब परिस्थितियों में भी सदाशिवराव की जिजीविषा स्पष्ट दिखाई देती थी।
सदाशिवराव को अपनी पुत्री के विवाह की चिन्ता थी। उनके मन में अंतर्द्वन्द्र चलता था कि कुष्ठ रोगी पिता की कन्या का वरण कौन करेगा? यदि समाज ने उसे स्वीकार नहीं किया तो क्या होगा, वह कहाँ जाएगी? उन्होंने पुत्री को पढ़ा-लिखा कर इस योग्य बनाया कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके। बाद में शिक्षित पुत्री का विवाह ग्वालियर निवासी मधुकरराव सर्वेटे के साथ हो गया। विवाह उपरांत वे अत्यंत प्रसत्रता एवं संतोष का अनुभव करने लगे। इसी बीच सदाशिवराव की माँ का देहावसान हो गया और पत्नी तो पहले ही परलोक सिघार चुकी थी। अब उन पर कोई पारिवारिक दायित्व नहीं रहा।
संसार के दुःखों से लड़ते हुए वे अपनी चिकित्सा कराने पहले वर्धा, अमरावती गए वहाँ से पुनः घर आए तथा जिला बिलासपुर में बैतलपुर नामक स्थान पर पहुँचे। यहाँ ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित कुष्ठ चिकित्सालय स्थित था। वे वहाँ भर्ती हो गए। वहाँ उनका इलाज ठीक ढंग से हो रहा था लेकिन वहाँ कतिपय कारणों से सदाशिवराव का मन विचलित हो गया और अंततः वे आश्रम छोड़कर चले गए।
सदाशिवराव का शरीर जर्जर होता जा रहा था परन्तु संवेदनशील मन एवं आत्मवल कुछ-न-कुछ करने के लिए मचल रहा था। उपचार से उन्हें लाभ होता जा रहा था परन्तु शरीर का रूप ऐसा हो गया जैसे सुंदर मूर्ति में आग लग गई हो।
"इसी जन्म में इसी शरीर से कुछ करना चाहिए" यह संकल्प सदाशिवराव ने लिया और कुष्ठ निवारण का व्रत लेकर वे आगे निकल पड़े। इसी बीच इनकी भेंट म.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम हरिभाऊ पाटस्कर से हुई। इस भेंट के समय सदाशिवराव ने कुष्ठ रोगियों की सेवा के संबंध में चर्चा कर उनसे प्रेरणा प्राप्त की और कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा एव आवास के लिए कुष्ठ आश्रम स्थापित करने का विचार किया। इस कार्य हेतु वे बिलासपुर के पास चाँपा नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ कुष्ठ रोगियों की दुर्दशा देखकर उनका हृदय करुणा से भर गया। वे स्वयं कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। कुष्ठ रोगियों के दर्द और मनोदशा को वे जानते थे। अतः उनकी सेवा के लिए वे वहीं झोपड़ी बनाकर घोघरानाला कुष्ठ बस्ती में रहने लगे। कुष्ठ रोगी उनके निश्छल प्रेम एवं आत्मीयता से अभिभूत थे। चापा नगर की बस्ती में इस कार्य को करते समय उन्हें उपहास एवं उपेक्षा के बाणों का सामना भी करना पड़ा परन्तु उनकी मुस्कान और वाणी के माधुर्य ने अनेक प्रतिष्ठित लोगों को सेवा कार्य के लिए प्रेरित किया। सदाशिवराव को योजना के अनुसार उन्हें रोगी की चिकित्सा एवं आवास हेतु लखुरी ग्राम में स्थान भी मिल गया जो कि चाँपा से लगभग दस किलोमीटर दूर है। आगे चलकर यह आश्रम भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, चाँपा के नाम से 1962 में विधिवत एक संस्था के रूप में पंजीबद्ध हो गया।
आश्रम में रामचरितमानस और महाभारत के विभिन्न दृष्टांतों के माध्यम से कुष्ठ रोग के प्रति सेवा भाव एवं सहयोग को राष्ट्रीय गुण के रूप में जाग्रत किया। धीरे-धीरे आश्रम का विस्तार होने लगा । सदाशिवराव ने स्वयं कुदाल से खोदकर बंजर भूमि को उर्वरा बनाया। उनके अथक परिश्रम एवं राष्ट्रभक्ति के भाव से समाज को सकारात्मक दृष्टिकोण प्राप्त होने लगा। एक व्यक्ति ने रोगी होते हुए भी समाज की उपेक्षा और तिरस्कार को सहते हुए अपने पुरुषार्थ से आश्रम की स्थापना की। आश्रम के सुसंचालन के लिए उन्हें समर्पित व्यक्तियों और धन की महत् आवश्यकता हुई।
सदाशिवराव सोचते थे कि यदि कुष्ठ के कलंक से राष्ट्र को मुक्त करना है तो राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सहभाग इसमें होना चाहिए। रोग मुक्त समाज होगा तो राष्ट्र बलवान होगा। यह सद्भाव लेकर सदाशिवराव ने तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय डॉ. राधाकृष्णन को पत्र लिखा। राष्ट्रपति महोदय ने पत्र पाकर इनके कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा तो की ही साथ-ही-साथ इन्हें प्रशंसा पत्र और एक हजार रुपये का योगदान भी भेजा। इस प्रकार सदाशिवराव के कार्यों को समाज द्वारा मान्यता मिलने लगी जिससे उनका मनोबल यह कार्य करने में और भी बढ़ गया।
सदाशिवराव ने आश्रम के लिए एक-एक, दो-दो रुपयों का दान एकत्र करने के लिए साइकल से पाँच-पाँच घण्टे की यात्रा करके धन संग्रह किया। आश्रम में रहने वाले कुष्ठ रोगियों के भोजन के लिए समाज को जोड़ते हुए घरों में भोजन बनाते समय "एक मुठ्ठी चावल कुष्ठ रोगियों के लिए निकालें" इस प्रकार का आन्दोलन प्रारम्भ किया। आश्रम में वे कुष्ठ रोगियों की सेवा के साथ-ही-साथ उन्हें अपने हाथों से ही भोजन बनाकर खिलाते थे। उन्होंने कहा- "कुष्ठ रोग राष्ट्र के लिए कलंक है। आओ! हम सब मिलकर अपने राष्ट्र को कुष्ठ के कलंक से मुक्त करें।"
सेवा के बारे में उपदेश देना, आश्रम की सराहना करना, सदाशिवराव की प्रशंसा करना, यह कार्य तो लोग निःस्वार्थ भाव से कर रहे थे परन्तु समय देकर आश्रम में रहकर कार्य करने वाला कोई नहीं था। सदाशिवराव का शरीर थक चुका था। उनका घूमना-फिरना, आना-जाना बंद हो गया था पर वे बैठे-बैठे कार्य एवं कार्यकर्ताओं की पूछताछ करते थे। आश्रम के सभी सेवा कार्य भली प्रकार चले इसकी चिन्ता करते थे और आश्रम में निरन्तर भगवद्भजन चलता रहता था।
सदाशिवराव की मृत्यु के कुछ समय पूर्व उनकी पुत्री प्रभावती और उसके पति दोनों आश्रम आए। प्रभावती और सदाशिवराव ने सहसा एक दूसरे को देखा तो स्नेह से आँखें भर आई। पता नहीं क्यों सदाशिवराव को लगा कि यह अंतिम भेंट है। सेवा का भाव प्रबल था पर शरीर को पीड़ा जकड़कर कमजोर किए जा रही थी। जर्जर कुटिया का वह देदीप्यमान दीपक जो हजारों लोगों के जीवन को प्रकाशित करने में रत् था, 16 मई सन् 1977 सोमवार, को दिव्य ज्योति में लीन हो गया।
शब्दार्थ
भीषण = भयानक।
पौराणिक = पुराणों से संबंधित।
जर्जर = क्षीण, कमजोर।
क्रूर = दया न होना।
नैराश्य = निराशा का भाव।
अंतर्द्वन्द्व = मन में विचारों का संघर्ष।
देहावसान = मृत्यु, देह का अन्त।
मतावलम्बी = किसी विशेष मत के मानने वाले।
महत्वपूर्ण गद्यांशों की व्याख्या
गद्यांश (1) रोग के प्रति अज्ञानता, रोग से रिसने वाला दृव और भिनभिनाती मक्खियाँ ही रोगी के प्रति घृणा पैदा करती हैं। जिन परिस्थितियों में रोगी को अधिक ढाढ़स, अपनापन और स्नेह की आवश्यकता होती है, उन परिस्थितियों में निरन्तर घृणा और दुराव जीवन में नैराश्य का भाव पैदा करता है लेकिन इन सब परिस्थितियों में भी सदाशिवराव की जिजीविषा स्पष्ट दिखाई देती थी।
सन्दर्भ— प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक 'भाषा-भारती' के पाठ 'परमानन्द माधवम्' से ली गई हैं। इस पाठ के लेखक 'भागीरथ कुमरावत' हैं।
प्रसंग— इन पंक्तियों में बताया गया है कि सदाशिवराव कुष्ठ रोगी थे। विपरीत परिस्थितियों में भी उनमें जीवन जीने की प्रबल इच्छा थी।
व्याख्या— लेखक कहता है कि इस कुष्ठ रोग के विषय में जानकारी न होना तथा इस रोग के कारण शरीर से धीरे-धीरे बहता हुआ पदार्थ तथा ऊपर से मक्खियों का लगातार भिनभिनाते रहना, उस रोगी के प्रति घृणा भाव पैदा करता है। ऐसी दशा में रोगी को धैर्य बँधाने की जरूरत होती है। उसके प्रति अपनापन और प्रेम रखने की आवश्यकता होती है, परन्तु उस गम्भीर दशा में लोग ऐसे रोगी से लगातार घृणा करते हैं। अपनेपन के भाव को छिपा लेते हैं। उस दशा में उस रोगी के हृदय में जीवन के प्रति निराशा की भावना पैदा हो जाती है। इस तरह की विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए भी सदाशिवराव के अन्दर जीवन को जीने की इच्छा साफ दीख पड़ती थी।
गद्यांश (2) सदाशिवराव सोचते थे कि यदि कुष्ठ के कलंक से राष्ट्र को मुक्त करना है तो राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सहभाग इसमें होना चाहिए। रोग मुक्त समाज होगा तो राष्ट्र बलवान होगा। यह सद्भाव लेकर सदाशिवराव ने तत्काली और महामहिम राष्ट्रपति महोदय डॉ. राधाकृष्णन को पत्र लिखा। और राष्ट्रपति महोदय ने पत्र पाकर इनके कार्य की भूरि-भुरि प्रशंसा तो की ही साथ-ही-साथ इन्हें प्रशंसा पत्र और एक हजार रुपये का योगदान भी भेजा। इस प्रकार सदाशिवराव के कार्यों को समाज द्वारा मान्यता मिलने लगी जिससे मनोबल यह कार्य करने में और भी बढ़ गया।
सन्दर्भ— पूर्व की तरह।
प्रसंग— सदाशिवराव ने अपने राष्ट्र से कुष्ठ रोग को मिटाने के लिए संकल्प लिया और समाज ने उनके कार्य को महत्व देना शुरू कर दिया।
व्याख्या— सदाशिवराव की चिन्तन शैली में एक बात जोर पकड़ती नजर आने लगी कि यदि पूरे राष्ट्र से कुष्ठ रोग को दूर करना है, तो इस प्रयास में भारत के प्रत्येक नागरिक को अपना सहयोग देना चाहिए। कुष्ठ रोग भारत के लिए कलंक है। इस रोग से यदि राष्ट्र मुक्ति पा सका तो समझिए पूरा देश शक्तिशाली को हो सकेगा। किसी भी रोग से रहित नागरिक स्वस्थ राष्ट्र की नींव रखते हैं। इसी अच्छी भावना के साथ उन्होंने उस समय के देश के राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन को एक पत्र लिखा और उस पत्र में उन्होंने अपनी कार्य-योजना का विवरण भी दिया जिसे पढ़कर ॥ राष्ट्रपति महोदय बहुत प्रभावित हुए और सदाशिवराव के इस कार्य की बार-बार प्रशंसा की। साथ ही, उन्होंने उनको एक प्रशंसा पत्र तथा एक हजार का योगदान भी भेजकर अपने सहयोग की पहल की। इसका प्रभाव यह हुआ कि सदाशिवराव द्वारा चलाए - गए कार्यों को समाज ने महत्व प्रदान किया। इसका नतीजा यह हुआ कि सदाशिवराव को मानसिक बल प्राप्त हुआ और वे अपने कार्य में पूरी मजबूती से लग गए।
अभ्यास
प्रश्न 1. सही विकल्प चुनकर लिखिए—
(क) सदाशिवराव कात्रे का जन्म सन में हुआ था।—
(i) 23 नवम्बर, 1909
(ii) 21 नवम्बर, 1906
(iii) 23 दिसम्बर, 1989
(iv) 25 दिसम्बर, 1990
उत्तर—(i) 23 नवंबर, 1909
(ख) सदाशिवराव कात्रे द्वारा स्थापित बिलासपुर के पास कुष्ठ रोग सेवा का आश्रम है—
(i) बेतलपुर
(ii) झाँसी
(iii) चाँपा
(iv) रायपुर।
उत्तर—(iii) चंपा
(ग) राष्ट्र के लिए कलंक है—
(i) मलेरिया
(ii) कुष्ठ रोग
(iii) हैजा
(iv) दमा।
उत्तर—(ii) कुष्ठ रोग
(घ) सदाशिवराव की मृत्यु सन् में हुई—
(i) 16 मई, 1977
(ii) 15 मई, 1975
(iii) 25 जून, 1990
(iv) 30 जून, 1977
उत्तर—(i)16 मई, 1977
प्रश्न 2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए—
(क) कुष्ठ रोगियों की दुर्दशा देखकर उनका हृदय करूणासे भर गया।
(ख) सदाशिवराव कात्रे कुष्ठ निवारण का व्रत लेकर चांपा पहुंचे।
(ग) सदाशिवराव कात्रे को अपनी पुत्री के विवाह की चिन्ता थी।
(घ) कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा एवं आवास हेतु लखुरी ग्राम में स्थान मिल गया।
प्रश्न 3. एक या दो वाक्यों में उत्तर लिखिए—
(क) सदाशिवराव कात्रे का जन्म कहाँ हुआ था?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे का जन्म मध्य प्रदेश के 'गुना' जिले के आरौन ग्राम में हुआ था।
(ख) कुष्ठ रोगी के प्रति घृणा भाव होने का कारण लिखिए।
उत्तर— कुष्ठ रोगी के घावों से द्रव का निरन्तर बहते रहना, और भिनभिनाती मक्खियाँ ही रोगी के प्रति घृणा पैदा करती है।
(ग) सदाशिवराव कात्रे ने पुत्री प्रभावती को क्यों पढ़ाया ?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे ने अपनी पुत्री प्रभावती को इसलिए पद्मया कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके। वे सोचते थे कि कुष्ठ रोगी पिता को कन्या का बरण कौन करेगा। इस दृष्टि से उन्होंने अपनी पुत्री को सुशिक्षित कराया।
(घ) समाज का सकारात्मक दृष्टिकोण कैसे विकसित होने लगा ?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे ने आश्रम में रामचरितमानस और महाभारत के अनेक उदाहरण देकर कुष्ठ रोग के प्रति सेवाभाव एवं सहयोग को राष्ट्रीय गुण के रूप में लोगों के हृदय में जगाया। उन्होंने खुद कुदाल से खोदकर बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया सदाशिवराव कात्रे के अथक परिश्रम एवं राष्ट्र भक्ति के भाव से समाज का सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होने लगा।
(ङ) सदाशिवराव कात्रे ने किसकी प्रेरणा से कुष्ठ रोगियों की सेवा का कार्य प्रारम्भ किया?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे कुष्ठ निवारण का व्रत लेकर चले तो उनकी मुलाकात मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम हरिभाऊ पाटस्कर से हो गई। उन्होंने कुष्ठ रोगियों की सेवा के विषय में चर्चा की। इस तरह राज्यपाल महोदय से प्रेरणा प्राप्त हुँचे। करके सदाशिवराव कात्रे ने कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा और आवास के लिए स्थान प्राप्त करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए।
प्रश्न 4. तीन से पाँच वाक्यों में उत्तर दीजिए—
(क) 'सदाशिवराव कात्रे में जिजीविषा स्पष्ट दिखाई देती थी', ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे को कुष्ठ रोग ने घेर लिया। सभी लोग घृणा करते थे। परिवार के लोगों ने उनके खानपान और रहने की व्यवस्था अलग कर दी। वे उस रोग के विषय में अज्ञानी थे। रोग के कारण द्रव लगातार बहता रहता था, मक्खियाँ भिनभिनाती ना रहतीं जिससे लोगों में घृणा पैदा हो रही थी। उन्हें धैर्य और स्नेह करने वाला कोई भी नहीं था। जीवन में घृणा, दुराव और निराशा भर गई थी। परन्तु फिर भी उनके अन्दर जीवन जीने की लालसा स्पष्ट दीख पड़ती थी। उन्होंने इन सभी विपरीत स्थितियों में कुष्ठ ना. रोग को दूर करने का व्रत लिया और सुनियोजित प्रयास किए। है। इससे लगता था कि उनमें जिजीविषा विद्यमान थी।
(ख) सदाशिवराव कात्रे 'परमानंद माधवम' क्यों कहलाए?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे को परमानन्द माधवम् इसलिए कहा जाता था कि उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम समय तक बिना किसी स्वार्थ के कुष्ठ रोग से पीड़ितों की सेवा के लिए आश्रम व चिकित्सालय की स्थापना की। वे कुष्ठ रोग को राष्ट्र के लिए कलंक कहते थे। आश्रम में हर क्षण भगवत् भजन और संकीर्तन चलता रहता था। उनके प्रयासों से कुष्ठ रोगियों को सेवा और उपचार मिलने लगा। समाज में सही धारणा बनने लगी। साथ ही सदाशिव का अर्थ परमानन्द और गोविन्द का नाम माधव (कृष्ण) भी है। इसलिए उन्हें परमानन्द माधवम् कहा जाने लगा।
(ग) भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, चाँपा की स्थापना कब और कैसे हुई?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे ने कुष्ठ रोगियों के इलाज का व्रत लिया। उनकी भेंट मध्य प्रदेश के राज्यपाल महामहिम हरिभाऊ पाटस्कर से हुई। कुष्ठ रोगियों की सेवा के विषय पर चर्चा हुई। उनसे प्रेरणा लेकर कुष्ठ रोगी होते हुए भी उनकी सेवा के कार्य में खुशी-खुशी लगे रहे। सदाशिवराव कात्रे की योजना के अनुसार कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा एवं आवास के लिए लखुरी नामक ग्राम में स्थान मिल गया। यह स्थान चाँपा से दस किमी. दूर है। सन् 1962 ई. में यह आश्रम भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, चाँपा के नाम से स्थापित हो गया।
प्रश्न 5 सोचिए और बताइए—
(क) "प्रकृति ने भी सदाशिवराव कात्रे के साथ क्रूर उपहास किया", ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे के पिता का देहावसान उस समय हो गया जब इनकी आयु आठ वर्ष थी। इनकी शिक्षा 'काका' के यहाँ झाँसी में हुई। शिक्षा पाकर इन्हें रेलवे में नौकरी मिल गई। सन् 1930 ई. में इनका विवाह हो गया। इसी बीच उन्हें कुष्ठ रोग ने घेर लिया। इन्हें अपनी अल्पायु से ही आपदाओं ने घेरा हुआ था। इस प्रकार यह कि 'प्रकृति ने भी सदाशिवराव कात्रे के साथ क्रूर उपहास किया' कहा गया है। कुष्ठ रोग भयानक रोग है जिससे समाज और अपने भी छूट जाते हैं।
(ख) आश्रम में रहकर कोई कार्य करने हेतु तैयार नहीं होता था, क्यों?
उत्तर— कुष्ठ रोगियों के आश्रम में सेवा करने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता था क्योंकि रोगियों के अंगों से रिसता द्रव मक्खियाँ जो घृणा का भाव पैदा करती थीं। आश्रय में कुष्ठ रोगियों के प्रति अछूत जैसी दशा, धैर्य और अपनेपन की कमी थी।
(ग) कुष्ठ रोगियों की दुर्दशा देखकर सदाशिवराव कात्रे के हृदय में करुणा उत्पन्न होने के दो कारण लिखिए।
उत्तर— सदाशिवराव कात्रे के हृदय में करुणा उत्पन्न होने के दो कारण थे—
(1) कुष्ठ रोगियों की दशा अछूत जैसी होना, घर-परिवार से अलग कर देना।
(2) उन रोगियों के प्रति घृणा एवं अपनापन से रहित मानकर उपेक्षा भरा जीवन, सामाजिक असम्मान और घृणास्पद व्यवहार।
(घ) चाँपा नगर के प्रतिष्ठित जन कुष्ठ रोगियों की सेवा हेतु कैसे प्रेरित हुए?
उत्तर— चाँपा नगर के आश्रम में कुष्ठ रोगियों के लिए चिकित्सा और आवास के लिए लखुरी ग्राम में स्थान मिल गया। यह संस्था पंजीबद्ध हो गई। सदाशिवराव के प्रयासों में रामचरितमानस और महाभारत के उदाहरणों से लोगों में कुष्ठ रोग के प्रति सेवा भाव जगने लगा। चाँपा के प्रतिष्ठावान और समझदार उदार व्यक्तियों में कुष्ठरोग के प्रति सेवाभाव एवं सहयोग को राष्ट्रीय गुण के रूप में जगाया। इस प्रकार सदाशिवराव के अथक परिश्रम और राष्ट्रभक्ति के भाव से लोगों में सकारात्मक सोच पैदा होने लगी।
भाषा की बात
प्रश्न 1. निम्नलिखित शब्दों का शुद्ध उच्चारण कीजिए।
पौराणिक, संचालित, चिकित्सा, संवेदनशील, करुणा
उत्तर— अपने अध्यापक महोदय की सहायता से उच्चारण कीजिए और अभ्यास कीजिए।
प्रश्न 2. निम्नलिखित शब्दों की शुद्ध वर्तनी लिखिए।
(i) असरम, (ii) देहवसान, (iii) दैदिप्यमान, (iv) अंतरद्वंद्व (v) राष्ट्र।
उत्तर—(i) आश्रम
(ii) देहावसान
(iii) दैदिप्यमा
(iv) अंतरद्वंद्व
(v) राष्ट्र।
प्रश्न 3. निम्नलिखित शब्दों में उपसर्ग बताइए—
(i) दुर्दशा (ii) उपचार (iii) अज्ञान (iv) अनुभव (v) विज्ञापन।
उत्तर — (i) दूर + दशा
(ii) उप + चार
(iii) अ + ज्ञान
(iv) अनु + भव
(v) वि + ज्ञापन।
प्रश्न 4. 'आई' प्रत्यय लगाकर पाँच शब्द लिखिए—
उत्तर— भलाई, लिपाई, पुताई, लिखाई, पढ़ाई, बुराई।
प्रश्न 5. निम्नलिखित शब्दों का सन्धि विच्छेद कीजिए।
चिकित्सालय, देहावसान, विवाहोउपरांत, अल्पायु, मतावलंबी।
उत्तर— (i) चिकित्सा + आलय
(ii) देह + अवसान
(iii) विवाह + उपरान्त
(iv) अल्प + आयु
(v) मत + अवलम्बी।
प्रश्न 6. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग कीजिए—
(i) आत्मबल (ii) व्यवस्था (iii) संतोष (iv) कुष्ठरोगो (v) जन्म।
उत्तर—(i) आत्मबल = आत्मबल से ही मुसीबतों पर विजय पा सकते हैं।
(ii) व्यवस्था = आश्रम की व्यवस्था में सभी सदस्यों के सहयोग की जरूरत है।
(iii) सन्तोष = सन्तोष से जीवन सुखी होता है।
(iv) कुष्ठ रोगी = कुष्ठ रोगी से लोग घृणा करने लगते हैं।
(v) जन्म = जन्म से कोई बड़ा-छोटा नहीं होता है।
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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
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