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भाषा विकास (Lingual Development) | भाषा अर्थ एवं परिभाषा, विकास के चरण एवं प्रभावित करने वाले कारक | Bhasha vikas Teachers Selection (TET CTET) Exam

एक बालक की बौद्धिक क्षमता का आंकलन प्राय: उसके भाषा विकास से किया जाता है। भाषा को बौद्धिक विकास की सर्वाधिक उत्तम कसौटी माना गया है। बच्चे को सर्वप्रथम भाषा का ज्ञान परिवार से होता है। बालक परिवार के अन्य सदस्यों की वाणी को सुनकर उसका अनुसरण कर बोलने का प्रयास करता है। भाषा ज्ञान एक अर्जित कौशल है न कि जन्मजात। एक बच्चा ओठों, दांतों और तालु आदि वाकयंत्रों से समीकरण (उचित संयोजन) से बोलने का प्रयास शुरू करता है एवं अंततः बोलना सीख जाता है बालक के बोलने की प्रक्रिया में अनुकरण, प्रयास एवं भूल, प्रेरणा, संबंधता आदि का महत्वपूर्ण स्थान है प्रारंभ में शिशु माता-पिता परिवारजन द्वारा बोले गए शब्दों का अनुसरण करता है फिर धीरे-धीरे उसे भाषा प्रयोग में आनंद आने लगता है शिशु पहली बार में नाना, बाबा, पापा, दादा, काका जैसे शब्द बोलना प्रारंभ करता है।

बुहलर नामक वि‌द्वान ने कहा है कि शिशु सर्वप्रथम स्वरों का एवं बाद में व्यंजन ध्वनियो का उच्चारण करने में समर्थ होता है।

भाषा विकास के सन्दर्भ में हम यह देखते है कि भाषा विकास मानव जीवन के प्रारम्भ की एक प्रक्रिया है। एक शिशु 10 माह की अवस्था से बोलना प्रारम्भ करता है। बच्चों में ध्वनियों में विविधता पाई जाती है और वे बलबलाने में लगे रहते हैं। प्रारम्भ में बालक की क्रियाएँ कृन्दन, अंग-विक्षेप, बलबलाने आदि तक सीमित रहती हैं। शनै: शनै: बालक के शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता के साथ उसके बोलते की प्रक्रिया में वृद्धि हो जाती है। यह बात स्मरणीय है कि बोलने वह जिस प्रक्रिया से बालक की आबश्यकताओं जैसे—प्यास हेतु 'पानी' भूख हेतु दाना, उत्सर्जन हेतु पोट्टी' आदि की पूर्ती होती है जो कि प्रारंभ में वह अपने से बड़ों से सीखता है।

ई वी. हरलाक का मत है कि—बालक के बोलने की प्रकिया पर माता-पिता की प्रसंशा एवं प्रेरणा का प्रभाव पड़ता है। बालक घर की अपेक्षा अपने समवस्यको बच्चों के सम्पर्क में आकर ज्यादा भाषा को सीखता है। इसका कारण यह है कि परस्पर व्यवहार हेतु उन्हें ज्यादा से ज्यादा बोलने की आवश्यकता होती है।

बालक में भाषा विकास की शुरुआत देखें तो जन्म लेने के तुरंत बाद उसका क्रन्दन (रोना) ही उसकी पहली भाषा होती है। 25 सप्ताह (लगभग 6 माह ) का शिशु की भाषा में स्वरो की संख्या ज्यादा होती है। लगभग 10 महिने की अवस्था में बालक कुछेक पूर्ण शब्द बोलना सीखता है और बार-बार उन्हीं की पुनरावृत्ति करता है। एक शिशु की भाषा पर उसके परिवार की संस्कृति व शब्द सिखाने के ढंग का प्रभाव ज्यादा देखा जाता है।

शिशु के जन्म से लेकर 8 माह के अवस्था तक उसके पास शब्दों की संख्या शून्य होती है किन्तु 6 वर्ष की अवस्था तक उसके पास शब्दो की संख्या 2500 हो जाती है। "सीशोर" नामक विद्वान ने अपने अध्ययन के अनुसार अलग-अलग आयु स्तर में शब्दों की संख्या का विश्लेषण प्रस्तुत किया है।

सीशोर के अनुसार भाषा विकास
आयु (वर्षों में)——शब्दों की संख्या
4———————5,600
5———————59,600
6——————— 14,700
7——————— 21,200
8——————— 34,300
10———————26,300

एक बालक की भाषा विकास पर परिवार, समुदाय, विद्यालय, सामाजिक परिस्थितियों एवं स्वयं शासक की बौद्धिक क्षमता का प्रभाव पड़ता है। वस्तु‌ओं को देखकर उसका प्रत्यय ज्ञान स्थुल से सूक्ष्म की ओर तथा मूर्त से अमूर्त की ओर होता है।

एनास्टसी नामक विद्‌वान मान‌ते हैं कि शैशव काल में लड़कियों का लड़कों की अपेक्षा ज्यादा भाषा विकास होता है। आयु बढ़‌ने के साथ-साथ बालकों के सीखने की गति में वृद्धि होती है। बाल्यकाल में बालक शब्द से लेकर वाक्य विन्यास तक की क्रियाएं सीख लेते हैं।

किशोरावस्था एवं भाषा विकास—

किशोरावस्था में बालक में भाषा ज्ञान काफी विस्तृत हो जाता है। इस अवस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तनो से जो संवेग उत्पन्न होते हैं।भाषा विकास भी उनसे प्रभावित होता है। किशोरों में साहित्य पढ्ने की रुचि उत्पन्न हो जाती है। उनमें कल्पना शक्ति का विकास होने से वे कवि, कहानीकार चित्रकार बनने लगते है। किशोर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति हेतु कविता, कहानी की रचना करने लगते हैं या चित्रों के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त करते हैं।
किशोरावस्था में लिखे प्रेम-पत्रों की भाषा मे भावुकता मिश्रण होने उनमें प्रस्फुटन होने लगता है।

किशोर का शब्दकोश भी विस्तृत हो जाता है।वे कई प्रकार की गुप्त बातों का संप्रेषित करने हेतु कूट शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। भाषा के माध्यम से किशोर की संकल्पनाओं का विकास होता है। ये संकल्पनाएं उसके जीवन की तैयारी की प्रतीक होती है। भाष के विकास का चिन्तन भी प्रभाव पर पड़ता है किशोरावस्था तक व्यक्ति जीवन में भाषा का प्रयोग किस प्रकार किया जाये, कैसे किया जाये आदि रहस्यों को जान जाता है।

भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक—

एक बालक के भाषा विकास, पर प्रभाव डालने वाले निम्न लिखित कारक हैं।
(1) माता पिता एवं पारीवारिक सदस्य— एक बालक के भाषा विकास पर प्रभाव डालने हेतु उसके माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य अपनी महलपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। शैशववस्था में बच्चों से वस्तुओं की जानकारी के लिए शुद्ध शब्दों का उच्चारण करना बहुत आवश्यक होता है। प्रायः यह देखा जाता है कि परिवार में शिशु को पानी के लिए 'मम या मानी' जैसे शब्द सिखातें हैं जो गलत है। इसी तरह से परिवार के सदस्य ज्यादा से ज्यादा बालक को समय देकर उसके साथ उचित वार्तालाप करते रहते हैं तो ऐसे घरों के बालकों का भाषायी विकास उत्तम ढंग से होता है।

(2) बालक का स्वास्थ्य— निश्चित ही जो बालक लम्बी बिमारी से या अक्सर स्वास्थ्य खराब रहने की वजह से भाषा विकास मे पिछड जाते हैं लम्बी बिमारी की वज़ह से सम्पर्कजन्यता कम हो जाती है. अर्थात बालक लोगों से कम मिलते जुलते हैं जिससे भाषाई आदान प्रदान कम होने से वे भाषा विकास में पिछड़ जाते हैं। इसी के साथ कम सुनने की दशा में या वाणी दोष की अवस्था में भी भाषा विकास अवरुद्ध हो जाता है। बिमारियों की बजह से बालकों में शब्द भण्डार की कमी हो जाती है क्योंकि भाषा अनुकरण के माध्यम से सीखी जाती है और बालक को अनुकरण के अवसर बहुत कम प्राप्त होते हैं।

(3) बुद्धि लब्छि— बुद्धि तथा भाषा का बहुत गहरा संबंध है भाषा ज्ञान से ही या भाषा के स्तर से भाषा का पता लग जाता है।
भाषा विकास तथा बुद्धि लब्धि का घनिष्ट सम्बंध होता है जिस बालक की बुद्धि लब्धि अधिक होगी उसे बालक का भाषा विकास उत्तम कोटि का होगा। इसके विपरित कम बुद्धि लब्धि या मूर्ख बुद्धि वाले बालकों का भाषा विकास भी बहुत निम्न स्तर का होता है। यद्‌यपि बालक की आरंभिक अवस्था में भाषा का विकास उसकी बुद्धि का दयोतक है किंतु बाद के बालकों में बुद्धि का आंकलन मात्र भाषा विकास से नहीं किया जा सकता। प्रारंभिक अवस्था में माता-पिता या घर के सदस्यों का यह दायित्व है कि बालक के भाषा विकास में अपना सहयोग प्रदान करे।

(4) वाणी दोष (हकलाना)— एक बालक के वाणी दोष जैसे हकलाना, उच्च-निम्न स्तर हो जाना, वर्णो की सही ध्वनि न निकल पाना। अर्थात् तुतलाना, पुरुषों की स्त्रियों के समान अपनी आवाज निकलना एवं एवं स्त्रियों की पुरुषों के समान मोटी (भारी) आवाज निकलना, नाक से स्वर निकलना अर्थात नाक बिठाकर बोलना उसके भाषा विकास में बाधक बनते हैं।
हकलाना एक वाणी दोष है और यह मानसिक अवस्था के कारण होता है।बालकजब स्वाभाविक रूप से शब्दोच्चारण पर जोर नहीं देता, तब उच्चारण संबंधी तन्त्र को अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। फेफड़ों में हवा नहीं रहते ऐसी स्थिति में उच्चारण दोष उत्पन्न होता है।
खासकर जिन बालकों में किसी भी तरह का वाणी दोष पाया जाता है। तो वे समूह में या वार्तालाप के दौरान कम से कम बोलने का प्रयास करते हैं ताकि वह हंसी के पात्र न बने ऐसी स्थिति में जब वह भाषा का कम प्रयोग करते हैं तो उनका भाषा विकास अवरुद्ध हो जाता है।

(5) सामाजिक एवं आर्थिक स्तर— भाषा विज्ञानियों द्वारा व्यापारी वर्ग, श्रमिक वर्ग तथा बुद्धिजीवी वर्ग के बच्चों की भाषा का अध्ययन करके यह, परिणाम निकाला गया है कि भिन्न-भिन्न बालको की शब्दावली वाक्य विन्यास आदि में भिन्नता पाई जाती है। उच्च वर्ग के बालकों के आपसी सम्बंध भी उसी प्रकार के लोगों से रहते हैं और सुसंस्कृत शब्दावली युक्त लोक- व्यवहार की भाषा बोलते हैं। जहाँ पर परिवारों का सामाजिक स्तर नीचा होता है वहाँ पर बालकों की भाषा का विकास दु्त गति से नहीं होता है। प्रायः यह भी देखा जाता है कि बालक जिस वर्ग से सम्बंध रखता है वह उसी क्षेत्र विशेष की शब्दावली का ज्यादा प्रयोग करता है और दक्ष हो जाता है इसके विपरित अन्य क्षेत्र से सम्बंधित बालक उस शब्दावली का प्रयोग नहीं करते व पिछड़े रहते हैं। उदाहरण के तौर पर खेल के क्षेत्र से सम्बंध रखने वाले लोगों के बच्चे खेल शब्दावली जैसे क्रिकेट, विकेट, नो बॉल, कीपर, गोल, टीम, रेडर, से परिचित रहता है, जबकि इसके अन्य क्षेत्र के बालक ऐसी शब्दावली से अनभिज्ञरहता है।

(6) लिंग भेद— लिंग का प्रभाव भी भाषा विकास पर पड़ता है। लड़‌कियाँ, लड़कों की अपेक्षा शीघ्र ध्वनि संकेत ग्रहण करती हैं। लड़‌कियों का सम्बंध तथा समाजीकरण माता से अधिक रहता है। अतः उसी संपर्क से लड़‌कियों की भाषा में अन्तर आने लगता है। एक बात और देखने मिलती है वाणी दोष जैसे-हकलाना लडकियों की अपेक्षा लडकों में अधिक देखने को मिलता है। इसका कारण लड़कों में संवेगात्मक सुरक्षा बताया जाता है। इसके अतिरिक्त बालक-बालिकाओं के स्वभावत उनकी भाषिक शब्दावली में अन्तर पाया जाता है। चुंकि बालिकाये, बालकों की अपेक्षा शीघ्र विकास को दर्शाती है इसलिए उनका भाषा विकास की तीव्र गति से होता है।

(7)मानसिक रुग्णता— यदि एक बालक मानसिक रूप से रोगी अवस्था में होता है तो उसका भाषा विकास नहीं हो पाता। वह केवल कुछेक शब्द ही सीख पाता है। जो बालन जन्म से ही मानसिक रूप से कमजोर या रोगी पैदा होते हैं। उनकी भाषिक योग्यता न्यून होती है। जो बीच की अवस्थामों में रुग्णता की स्थिति में आते हैं उनका आगामी भाषा विकास अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे व्यक्ति पूर्व में सीखें भाषाई ज्ञान का प्रयोग गलत दिशा में करने लगते हैं। एव निरर्थक रूप से अपनी बातों को व्यक्त करते हैं। किसी भी दशा में मानसिक रूग्नता भाषा विकास में अवरोध का सर्वप्रमुख कारण होता है।

(8) पारीवारिक सम्बंध— प्रायः यह देखने में आया है कि अनाथालयों, छात्रावासों या अन्य परिवारों में पले-बढ़े बच्चों को भाषाई, कौशल में अन्तर पाया जाता है। इन संस्थाओं में रह-रहे बालकों का भाषा विकास उतना नहीं होता जितना कि एक सफल परिवार के बच्चे का भाषा विकास होता है। संस्थाओं के बच्चों को भावनात्मक संवेदना प्रेम इत्यादि नहीं मिल पाता और वे परिवार के संवेगात्मक सम्पर्क से दूर रहते हैं इसलिए भाषा के प्रयोग को शीघ्रता से नहीं सीख पाते। उन्हें भाषा सीखने में देरी लगती है। परिवार में बालकों को प्रेरणा, प्रोत्साहन इत्यादि मिलता रहता है इसके अतिरिक्त उन्हें कहानी, कविताए यात्रा वृतांत इत्यादि अक्सर ही सुनाये जाते हैं। जिससे उनका भाषा विकास निरन्तर होते रहता है जबकि अनाधाश्रम के बच्चों को ये सब सुविधाएं नहीं मिलती जिससे उनका भाषायी विकास धीरे से होता है।

(9)एकाधिक भाषा— जब कभी बालकों को अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा सीखना होता है तो वह सरलता से नहीं सीख पाता। विभाषा सीखने के समय उसका सामान्य भाषा विकास निलम्बित हो जाता है। अंग्रेजी माध्यम से अध्ययन करने वाले बालकों की भाषा में अस्पष्टता, चिन्तन में अवरोध या प्रत्ययों में असमानता पाई जाती है। इसके अतिरिक्त अन्य भाषा को सीखने के लिए पर्याप्त माहौल एवं भाषा कौशल से युक्त व्यक्ति का सम्पर्क अनिवार्य होता है। जैसे कि हिन्दी भाषी क्षेत्र में अंग्रेजी नहीं बोली जाती या कन्नड़ भाषी क्षेत्र मैं हिन्दी नहीं बोली जाती तब ऐसे माहौल में बालक भाषाई विकास पिछड़ सकता है। इसी के साथ यदि किसी भाषा से अवधारणों की समझ पर पकड़ नहीं बनती तब ज्ञान प्राप्ति में भी व्यवधान पैदा होता है। इस तरह एक से अधिक भाषाएं भी बालक के भाषा विकास पर प्रभाव डालती है।

(10) संकोची प्रवृति— जिन बालकों में संकोची प्रवृत्ति पाई जाती है उनका भाषा विकास प्रभावित होता है क्योंकि संकोच या हीन भावना की वजह से वे कहीं भी कुछ कुछ भी बोलने में हिचकीचाते हैं। एवं भाषा के विविधिक प्रयोग से वंचित रह जाते है जिससे उनका भाषा विकास पिछड जाता है।

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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com

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