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नैतिक या मूल्य परक विकास (Moral Development) भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में नैतिक विकास || प्रभाव डालने वाले कारक|| TET and CTET exams teachers selection

नैतिक या मूल्य परक विकास का अर्थ, बच्चों में मूल्यों का विकास एवं नैतिक संकल्पना की भावना. जागृत करना। नैतिक संकल्पना की भावना जागृत करना। नैतिक संकल्पना के अन्तर्गत बच्चों में ईमानदारी, सत्यनिष्ठा निश्छलता की भावना विकसित करना होता है। समाज एवं परिवार की अपेक्षा होती है कि सामुदायिक मानको प्रति अनुरूपता, जिसमें वे जीवन मूल्य निहित हो, बच्चे ग्रहण कर, उसके अनुसार आचरण करें। प्रत्येक समाज में कुछ कार्यों को सही एवं कुछेक को गलत समझा जाता है। बच्चों को नैतिक संकल्पनाओ का विकास भी इससे जुडा होता है। प्रारंभ में वे प्रयत्न एवं त्रुटि परिवार और विद्यालय के माध्यम से समाज के द्वारा स्वीकृत व्यवहार सीखते हैं। इसके पश्चात् वे अमूर्त भाषिक रूप में नैतिक संकल्पनाएं अपनाकर सही या गलत के नियम एवं सिद्धांत सीखते हैं

मूल्य परक विकास में बालक आयु बढ़ने के साथ-साथ अपने परिवार समुदाय एवं समाज के द्वारा अपनाई हुई नैतिक भावनाओं आदर्श या मूल्यों को भी ग्रहण करने लगता है यह प्रक्रिया क्रमिक रूप से चलती है यद्‌यपि इस दौरान बालक को यह चेतना नहीं रहती कि वह सामाजिक आदर्शो को सीख रहा है। धीरे-धीरे बालक का अधिकांश व्यवहार उसके परिवार विद्यालय एवं समुदाय द्वारा स्वीकृत नैतिक मूल्यों के नियंत्रण में आ जाता है। सामाजिक नैतिक मूल्यों को अपनाकर ही बालक अपने परिवार या समुदाय की वास्तविक सदस्यता प्राप्त कर पाता है।

मूल्य, व्यक्ति की वह नैतिक शक्ति है, जिसकी मदद से वह अच्छे-बुरे, उचित अनुचित में अन्तर को समझ पाता है। सामाजिक तथा नैतिक मूल्य बालक के सम्पूर्ण आचरण के निर्धारक माने जाते हैं। अलग- अलग संस्कृतियों में अलग-अलग तरह के ही मूल्य विकसित होते हैं। यहाँ तक की एक बालक के परिवार एवं समुदाय के मूल्य में भी अंतर पाया जाता है।

मनोवैज्ञानिकों ने नैतिक विकास की भिन्न अवस्थाएँ निर्धारित की हैं। फिर भी समान आयु के बालकों में नैतिक विकास में भिन्नता देखी जाती है।

भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में नैतिक विकास

(i) नवजात शिशु— अविकसित नैतिकता की भावना होती है।
(ii) प्रथम तीन वर्ष— प्रारंभिक वर्षों में बालक आत्मकेंद्रित रहता है, उसका व्यवहार संवेग जनक होता है। वह नैतिक मूल्यों को ठीक ढंग से नहीं समझता।

(iii)तीन से छः वर्ष की आयु— इस आयु में नैतिकता का पूरी तरह से विकास नहीं होता है। उसका व्यवहार अभी भी प्रौढ़‌व्यक्तियों की प्रशंसा या निन्दा पर निर्भर करता है। बालक को पूर्णत: सत्य व झूठ की पहचान नहीं होती है। छः वर्ष की आयु में बालक ध्वंसात्मक प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगती है। उसके व्यवहार में अभी भी संवेगा- त्मकता का अंश रहता है।

(iv) नौ से बारह वर्ष की आयु— इस अवस्था में बालक अच्छाई व बुराई में अन्तर समझने लगता है। उसमें सही व गलत की समझ विक‌सित होने लगती है। वह शुद्ध आचरण की ओर प्रवृत होने लगता है।

(v)12 से अठारह वर्ष— यह अवस्था किशोरावस्था का काल होती है। इस अवस्था में वह पूर्णतः नैतिक मूल्य को समझने लगता है और परिवार समुदाय या समाज द्वारा निर्धारित मूल्यों के अनुसार आचरण करने लगता है। कभी कभी इसके विपरित भी आचरण करता है जिससे उसे समाज का निन्दा का पात्र बनना पड़ता है।

चूंकि सामाजिक रूप से देखा जाये तो नैतिक विकास जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण है और चरित्र हीन व्यक्ति का जीवन पशु, समान ही समुझा जाता है। नैतिक मूल्यों को उ‌चित मार्गदर्शन, पर्याप्त शिक्षा व्यवस्था एवं सदव्यवहारों से बालकों में विकसित किया जा सकता है।

नैतिक विकास को प्रभावित करने बाले कारक—

व्यक्ति की नैतिकता का आधार "आध्यात्मिकता" है और यह अविकसित दशा में बालक में विद्‌यमान रहती है। एक बालक के मूल्य परक वा नैतिक वि‌कास को प्रभावित करने वाले निम्न कारक हैं।

(1) परिवार― परिवार के संदर्भ में हम भली भांति जानते हैं। परिवार के सदस्य जिस प्रकार होंगे और उनका व्यवहार एक दूसरे से जिस तरह से होगा या उनके आपसी संबंध जिस तरह के होंगे। इस आधार पर उसे परिवार की बच्चों में नैतिक विकास होगा।

(2) विद्यालय एवं शिक्षक— अध्यापक निरन्तर अपने बालकों के व्यवहार का निरीक्षण करते है और उनकी चरित्र सम्बंधी त्रुटियों का सुधार कर सकते हैं। अध्यापक अपने कार्यो से छात्रों में आदर्शता का निर्माण कर सकते हैं।

(3) मित्रमण्डली― मित्र मंडली बच्चों के नैतिक विकास का सबसे प्रमुख कारक होता है। निश्चित रूप से बच्चे बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में अपनी मित्र मंडली के साथ ज्यादा रहते हैं। बच्चों के इस समूह में जिस तरह के बच्चे होते हैं उसका प्रभाव उसे समूह के अन्य बच्चों पर पड़ता है। यदि मित्र मंडली में सभ्य बच्चे होते हैं एवं उच्च आदर्शो को अपनाते हैं तो ऐसे समूह के बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उनका उच्च मूल्य पर विकास होता है। इसके विपरीत जिस समूह में बच्चे चोरी-चकारी या अनैतिक आचरणों को अपनाते हैं उस समूह के बच्चों का नैतिक पतन निश्चित ही होता है।

(4) धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएँ— समाज सुधार एवं संस्कृति हित को लेकर कई तरह की धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएं समाज में चलती हैं जैसे- आर्य समाज, सनातन धर्म, ब्रह्म समाज राधास्वामी सत्संग, गुरुद्वारा समिति, वेदान्त समिति आदि। इनके द्वारा अपने-आप ने सिद्धांतों एवं व्यवहारों को समाज में प्रचारित किया जाता है जिसका प्रभाव बच्चों के नैतिक विकास पर पड़ता है यह संस्थाएं अपने-अपने मूल्यों के अनुसार आदर्शो का निर्माण करने में अपना सहयोग देती हैं।

(5) साहित्य व मनोरंजन के साधन― कहा जाता है साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में घटित घटनाओं या संस्कृति को ही साहित्य में स्वरूप दिया जाता है। जब इस साहित्य को बच्चे पढ़ते हैं तो उसी के अनुरूप आचरण करना सीखते हैं। यदि साहित्य में उच्च कोटि के दर्शन को प्रदर्शित किया जाता है तो वहां के बच्चों का मूल्य परक विकास उच्च कोटि का होता है। यदि बच्चों के समक्ष अश्लील साहित्य एवं फुहड़ता को प्रदर्शित किया जाता है तो बच्चों के अंदर नैतिक पतन देखा जा सकता है। इसी तरह मनोरंजन के साधनों का प्रभाव भी बच्चों के नैतिक विकास पर पड़ता है। बच्चे में चैस, क्रिकेट, कबड्डी जैसे खेलों से खेल भावना विकसित होती है। व्यर्थ के खेलों से बच्चों में नैतिक पतन देखा जा सकता है।

(6) इतिहास व उसके महान चरित्र― इतिहास का अपना महत्व होता है इतिहास एवं उसकी घटनाओं तथा उन घटनाओं में वर्णित चरित्र का बहुत गहरा प्रभाव बच्चों के नैतिक विकास पर पड़ता है। उदाहरण के लिए हमारे देश के बच्चों को यदि सम्राट शिवाजी की जीवन गाथा एवं चरित्र को पढ़ाया जाता है तो निश्चित ही बच्चों के अंदर वीरता एवं सम्मान के भाव जागृत होते हैं। वहीं दूसरी ओर औरंगजेब को पढ़ाया जाए तो बच्चों के अंदर हम जिस सदाचार की कल्पना करते हैं वह नहीं आ पाएगी। इस तरह से हमारे इतिहास और उसके महान व्यक्तित्व का प्रभाव बच्चों के नैतिक विकास पर पड़ता है।

(7) दूरदर्शन व सिनेमा― दूरदर्शन एवं सिनेमा समाज का दर्पण होते हैं। सिनेमा में वही दिखाया जाता है जो समाज में घटित होता है या जिस प्रकार की परंपराएं एवं संस्कृति होती है। निश्चित ही दूरदर्शन एवं सिनेमा को देखकर बच्चे उसी के अनुरूप आचरण करने का प्रयास करते हैं। अभिनेता, अभिनेत्री के द्वारा जिस तरह का श्रृंगार किया जाता है या उनके द्वारा वस्त्र धारण किए जाते हैं बच्चे भी उसी का अनुसरण करते हैं। यदि सिनेमा के द्वारा उच्च आदर्शता को अभिव्यक्त किया जाता है तो बच्चे उसी के अनुरूप नैतिकता को प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत यदि सिनेमा में पाश्चात्य संस्कृति को ज्यादा महत्व देते हुए इसी तरह की फूहड़ता की जाती है तो बालक भी अनुचित आचरण करने लगते हैं और उनका मूल्य परख विकास पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। निश्चित ही एक बालक के नैतिक विकास में दूरदर्शन एवं सिनेमा की अहम भूमिका होती है।

(8) समुदाय व समाज― बालक के मूल्य परक विकास में उसके समुदाय और समाज का बेहद प्रभाव देखा जाता है। समुदाय के द्वारा जिस तरह का आचरण किया जाता है बच्चे भी उसी का अनुसरण कर बहुत सारी बातों को सिखते हैं। समाज और संस्कृति का उनकी नैतिकता के विकास पर समुदाय और समाज का प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूप से प्रभाव पड़ता है।

(9) वातावरण एवं जलवायु― जलवायु एवं वातावरण का प्रभाव बच्चों की नैतिकता पर पड़ता ही है। बालक जिस परिवेश में रहते हैं और वहां की जलवायु जिस प्रकार की होती है उनके नैतिकता अर्थात मूल्य परक विकास पर प्रतिकूल या अनुकूल प्रभाव पड़ता है। कुछ स्थान ऐसे होते हैं जहां का पानी बच्चों के अंदर बोलने या वार्तालाप करने का ढंग बदल देता है। बच्चे परिवेश के अनुसार आचरण भी करते हैं।

(10) पारीवारिक, सामाजिक व‌ आर्थिक स्तर― निश्चित ही एक बच्चे की पारिवारिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का प्रभाव उसके नैतिक विकास पर पड़ता ही है। यह देखने में आता है कि जिस परिवार के बच्चे उच्च सामाजिक परिस्थितियों एवं अच्छी आर्थिक स्थिति के होते हैं ऐसी स्थिति में उनका परिवार भी उत्कृष्ट श्रेणी का होता है तो ऐसे परिवार के बच्चों का नैतिक विकास बहुत अच्छा होता है। इसके विपरीत कमजोर आर्थिक, सामाजिक परिस्थिति के बच्चों का नैतिक विकास कमजोर पाया जाता है।

(11) संस्कृति व परम्पराएँ― संस्कृति और परंपराओं का निश्चित ही बालकों के मूल्यपरक अर्थात नैतिक विकास पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता ही है। जिस समाज की परंपराएँ एवं वहाँ की संस्कृति उत्तम होती है उस समाज के बच्चों का नैतिक विकास उत्तम कोटि का होता है। ऐसे समाज के बच्चे समाज निर्माण, देश का निर्माण एवं स्वयं के जीवन में काफी प्रगति करने वाले होते हैं। इसके विपरीत असभ्य संस्कृति एवं परंपराओं के समाज से बच्चों में उत्तम कोटि का नैतिक विकास नहीं हो पाता है। ऐसे समाज के बच्चे अपराधी प्रवृत्ति में लिप्त हो सकते हैं और समाज के लिए नासूर भी बन सकते हैं।

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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
infosrf.com

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